कला-संगीत प्रेमियों के लिये उत्साह जगाने और जनमानस को झकझोरने वाला आयोजन

पि.हि. कला-संगीत समीक्षक
हल्द्वानी शहर में ‘आवाहन’ नाम से लोक उत्सव का वृहद आयोजन कला-संगीत प्रेमियों के लिये उत्साह जगाने वाला और जनमानस को झकझोरने वाला था। व्यापारिक मण्डी के अलावा तमाम तरह के अड्डों में बदलते जा रहे हल्द्वानी भाबर में इस प्रकार के आयोजन के सूत्रधार मनोज चन्दोला की जितनी प्रसंशा की जाए कम है। क्योंकि महोत्सव की बाढ़ में फंसे उत्तराखण्ड में इस प्रकार के आयोजन मुश्किल से हो हो पा रहे हैं। आयोजन को लेकर चिन्तन करने वालों में चारु तिवारी का योगदान सबसे आगे है। चन्दोला जी और तिवारी जी की जुगलबन्दी ने इस आयोजन को मूर्त रूप दिया और कई विचारधाराओं के लोगों को एकसाथ करने का काम किया। गीत-संगीत के अलावा संगीत-साहित्य के मर्मज्ञों को मंच देकर प्रोत्साहित किया।
अभिव्यक्ति कार्यशाला की ओर से देवभूमि उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक विरासत एवं लोक विधओं को सहेजने के लिये तीन दिवसीय आयोजन में दिन में सेमिनार और रात्रि में कार्यक्रम का हिस्सा था। कार्यक्रम का शुभारम्भ सांसद अजय भट्ट ने रैली को हरी झण्डी दिखाकर किया। शहर के तमाम विद्यालयों के बच्चों ने सुन्दर प्रस्तुतियों के साथ इसमें भाग लिया। मय झांकी के बच्चों ने रंग बिरंगे परिधनों में अपनी अभिव्यक्ति की। शेष तो वही होना था जो उन्हें उनके विद्यालय में तैयार करवाया गया था। सनातन धर्म संस्कृत महाविद्यालय, सिंथिया स्कूल, ललित आर्य महिला इण्टर कालेज, बीयरशिवा, रा.मा.विद्यालय नया गांव लछमपुर, द्रोण पब्लिक स्कूल, गांध्ीनगर राजकीय मा.विद्यालय, एमबी इण्टर कालेज, लक्ष्मी शिशु मन्दिर, खालसा इण्टर कालेज, रा.पूर्व.मा.विद्यालय कालाढूंगी रोड, टिक्कू माडर्न, रा.इण्टर कालेज बनभूलपुरा, महात्मा गांध्ी इण्टर कालेज के विद्यार्थी रैली में शामिल थे। आयोजन स्थल पर स्वयं सहायता समूहों की ओर से स्टाल भी लगाए गये थे। कार्यक्रम में रेशमा शाह ने जौनसारी, प्रहलाद मेहरा ने कुमाउनी गीत प्रस्तुत किये।
सेमिनार में उत्तराखण्ड की वर्तमान सांस्कृतिक परिस्थितियों पर बोलते हुए अनिल कार्की ने कहा कि इसे अपने से शुरु करना होगा, तब दूसरों से कहने के हकदार हैं। प्राध्यापक डाॅ.प्रभा पन्त ने कहा कि संस्कृति और पलायन बाधा नहीं है। जितना पलायन होगा उतना विस्तार होगा। कवि और साहित्यकार जुगल किशोर पेटशाली ने कहा कि भगनौल, बैर गीत हमसे दूर होते जा रहे हैं, जो चिन्ता की बात है। पत्रकार और चिन्तक ओ.पी.पाण्डे ने कहा कि उत्तराखण्ड राज्य का गठन संस्कृति के आधर पर हुआ था लेकिन सरकार ने आज तक संस्कृति को बचाने का रोड मैप तक तैयार नहीं किया है। लोेक गायक हीरा सिंह राणा ने ‘मुख में लागी ताई’ व्यंग गीत से कालाकारों की पीड़ा को व्यक्त किया।
दूसरे दिन के आयोजन में दिल्ली के भगवत मनराल ग्रुप का कार्यक्रम था। युगमंच की ओर से गोपुली बुब का एकाकी मंचन हुआ। नन्दलाल भारती टीम ने जौनसारी संस्कृति प्रदर्शित की। इसके अलावा फृयूजन के नाम पर शहर में हो रहे कनफ्रयूज करने वाले कार्यक्रम हुए। कार्यक्रम के अतिथि मेयर डाॅ.जोगेन्द्र रौतेला थे। इस दिन के सेमिनार में सिने कर्मी हेमन्त पाण्डे ने कहा कि लोक संस्कृति सरकार नहीं, संस्कार से बचेगी। संगीतज्ञ डाॅ.पंकज उप्रेती ने महोत्सवों के नाम पर हो रहे छलावे पर चिन्ता व्यक्त की। नन्दलाल भारती ने कहा कि आर्थिक उदारीकरण होने के बाद अपसंस्कृति का प्रचार-प्रसार बढ़ा है। डाॅ.माध्ुरी बड़थ्वाल ने कई शानदार उदाहरण देकर अपने लोग गीतों को बचाने का आहवान किया।
समारोह के तीसरे यानी अन्तिम दिन भगवत मनराल व साथियों के अलावा अमित गोस्वामी, दीपा नगरकोटी, मनोज चड्ढा, रोहन भारद्वाज, करिश्मा, खुशी जोशी ने प्रस्तुति दी। आयोजन के तीनों दिनों में शहर की स्थानीय संस्थाओं ने प्रस्तुतियां दीं। जिसमें शास्त्राीय संगीत को लेकर फृयूजन कहा गया लेकिन संगीत की दृष्टि से वह खरा नहीं कहा जा सकता है। दरअसल अपने प्रचार के लिये व बहलावे के लिये इस प्रकार के प्रयोग किये जाने लगे हैं जिसमें गायन, वादन, नृत्य के धमाल को जोड़ने का प्रयास किया जाता है। चूंकि सीखने वाले बच्चे वही करने लगते हैं जो उन्हें बताया गया है सो वह एक शो के रूप में भीड़ के आगे परोस दिया जाता है। ऐसे में न शास्त्रीयता होती है और न लोक का नृत्यगीत। तीसरे दिन के सेमिनार में उत्तराखण्ड राज्य की परिकल्पना और यथार्थ विषय पर वक्ताओं ने विचार रखते हुए संघर्षश्ीाल ताकतों को आगे आने को ललकारा। कवि बल्लीसिंह चीमा ने कविता के माध्यम से अपना दर्द कहा- ‘मैं किसान हँू, मेरा हाल क्या, मैं तो आसमां की दया से हँू।’’ उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष पी.सी. तिवारी कहा कि राज्य गठन के बाद कांग्रेस और भाजपा के हाथ में प्रदेश की सत्ता आने से राज्य गठन की परिकल्पना ध्वस्त हो गई। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक रूप से राज्य पिछड़ गया। उत्तराखण्ड पत्रकारिता विभाग के प्रो.भूपेन सिंह ने कहा कि सरकारों ने पर्वतीय राज्य की अवधरणा को पूरी तरह मटियामेट कर दिया है। नया भ्रष्ट राजनीतिक वर्ग उभर रहा है। सत्ता में बदल-बदल कर आ रहे इन चेहरों ने समाज को भी भ्रष्ट बना दिया है। एंकर आरजे काव्या ने कहा कि हमारी संस्कृति के संरक्षण के लिये हमें स्वयं ही पहल करनी होगी। पत्रकार रूपेश ने कहा कि 10 साल के राज्य में मूल्यांकन का समय है। आयोजन के दौरान डाॅ.प्रयाग जोशी, नवीन वर्मा, मोहन बोरा, हेमन्त बोरा, अमिशा पाण्डे, नवीन पाण्डे, योगेश पन्त, विजय बिष्ट, टीसी उप्रेती, दीपक बल्यूटिया, प्रवीन रौतेला, भावना पन्त, प्रकाश भट्ट, लता कुंजवाल, कमल मठपाल, जीत राम, ललित पन्त, बबीता उप्रेती उपस्थित थे।

संघर्षमय रहा जिनका पूरा जीवन

पत्रकारिता के मिशन को जिस लगन से स्व.आनन्द बल्लभ उप्रेती-स्व.दुर्गा सिंह मर्तोलिया ने शुरू किया था, उसे बनाये रखने वाली कमला उप्रेती की 15 सितम्बर 2019 को प्रथम पुण्यतिथि है।
जिन्दगी को आन्दोलन बना चुके आनन्द बल्लभ उप्रेती के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलते हुए आपने किसी से कोई शिकायत नहीं की। जिन्दगी के सफर में रोग-शोक से लड़कर भी बच्चों को हौंसला दिया। घर-परिवार और गाँव के सारे लोगों को आपका ममतामयी स्पर्श हमेशा बांधे रहा। अपने सीमित साधनों में घर-गृहस्थी चलाते हुए सामाजिक आन्दोलनों में सक्रिय भूमिका आपने निभाई। बहुत विपरीत स्थितियों में भी आपके बोल संस्कारों से भरे थे। ‘जशौदा मैया तेर कन्हैया बड़ो झगड़ी, झन लगाया गोरु-ग्व्ाला हमन दगड़ी’ जैसे भजनों से लेकर होली के आशीष तक के गीत गाने वाली इस माँ ने जीवन की सच्चाई को हमेशा सामने रखा और गुनगुनाया- ‘संग्राम जिन्दगी है लड़ना इसे पड़ेगा….।’
66 वर्ष की आयु में अन्तिम सांस तक अपने मिशन के लिये जिस साहस से आप लड़ीं वह चिंगारी बुझ नहीं सकती है। पिघलता हिमालय का यह अंक आपको समर्पित।

सामाजिक आन्दोलनों में राजनीति ठुकराई कमला जी ने

टी.सी.पपनै
कमला बहिन जी से मेरा सम्पर्क सन् 1990 से था जब मैं लोक चेतना मंच से जुड़ा। बहिन जी एक प्रखर समाज सेविका के साथ महिलाओं के सशक्तिकरण की प्रबल कार्यकर्ता भी थी। स्व.आनन्द बल्लभ उप्रेती जी से तो मेरा सम्पर्क वर्ष 1980 से था ही जब हम लोग साहित्यिक गोष्ठियों में अक्सर मिला करते थे। उप्रेती परिवार से मेरा पारिवारिक सम्बन्ध् रहा है। एक दुर्घटना में जब मेरा हाथ फैक्चर हुआ था और मैं अस्पताल में भर्ती था तो बहिन जी ने जिस आत्मभाव से साथ दिया मैं कभी नहीं भूल सकता।
श्रीमती कमला उप्रेती आन्दोलनों की अगुवाई में कभी अग्रिम पंक्ति में रहती थीं तो कभी सबको धकेलने के लिये पीछे अपने साथियों के साथ। आन्दोलनों में उनका यह स्वभाव ‘उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन’ में खूब दिखाई दिया। पृथक राज्य के लिये लड़ी गई लड़ाई में उन्हें भी आम आन्दोलनकारियों की तरह कोई गुमान नहीं था। बस, आन्दोलनकारी होने की खुशी थी। राज्य के लिये छिड़े ऐतिहासिक आन्दोलन में वह हल्द्वानी की सड़कों पर महिला शक्ति के साथ निरन्तर रहीं। होने वाली सभाओं की अध्यक्षता करते हुए वह युवा आन्दोलनकारियों को ललकाती थीं- ‘यह लड़ाई बच्चों के भविष्य की लड़ाई थी। इसका नेतृत्व स्वयं करना होगा।’
राज्य आन्दोलन के दौरान हल्द्वानी में हुए पुलिस लाठीचार्ज में घायलों में वह भी थीं। लेकिन उन्होंने प्रतिदिन होने वाले प्रदर्शन में जाना नहीं छोड़ा। राज्य बनने और उसके नाम पर सुविधा लेने वालों की होड़ कमला जी को बेचैन करती थी। वह कहतीं- ‘राज्य की लड़ाई नेता बनने के लिये थोड़ा ही लड़ी है।’ बाद को जब राज्य आन्दोलनकारियों को सरकार की ओर से प्रमाण पत्र दिये गये तो उन्हें भी इसके लिये बुलवाया गया। जब सरकार द्वारा राज्य आन्दोलनकारियों के लिये पेंशन प्रावधन किया गया, वह हँसती और कहती- ‘‘अब मैं पेंशन वाली हो गई हँू।’ क्योंकि जरूरत के समय भी उन्होंने सरकार से ऐसी याचना नहीं की थी। न ही उनके मन में कभी ऐसा विचार आया।
नेतृत्व का गुण उन्हें नेता बनाये हुआ था लेकिन अपने संस्कार और गृहस्थी के साथ सामंजस्य रखते हुए वह केवल सामाजिक आन्दोलनों का हिस्सा बनी। भ्रष्टाचार के खिलापफ वह एकदम गरज पड़ती थी। उनकी सभी महिला साथी आज उन्हें याद करती हैं, जो जानती हैं कि सामाजिक आन्दोलनों के आगे पहली जिम्मेदारी घर-गृहस्थी है। घर को संवार देना किसी भी महिला का सबसे बड़ा आन्दोलन है। वह धर्मपरायण थी लेकिन मंच सजाकर ढोंग का प्रवचन करने वालों के खिलाफ मुखर थीं। श्रीमती उप्रेती के सामने राजनीति के कई मौके आये लेकिन वह टाल गईं। वह जानती थी कि एक-एक, दो-दो व्यक्तियों की पार्टी भी उत्तराखण्ड में बनी हुई है। उत्तराखण्ड क्रान्तिदल को क्षेत्रीय पार्टी के रूप में वह पसन्द करती थीं। इसके अलावा बड़ी पार्टियों की नीतियाँ उन्हें रास नहीं आई। भीड़ एकत्रित करने के लिये वह मनोनीत होने से भी मना कर देती। हाँ, किसी भी पार्टी की जो बात उन्हें भा जाती उसमें वह समर्थन करती। इसके लिये वह भाकपा माले के प्रदर्शन में भी शामिल हुई थी। कांग्रेस के समर्थन में जुटी थीं। कांग्रेस की अकड़ पर भाजपा के नेता का समर्थन किया था। स्पष्ट निर्णय लेने वाली समाजवादी पार्टी के लिये भी वह बोली और जनता पार्टी के समय उसकी नीतियों पर भी उसके साथ थी। राष्ट्रीय दलों से कई बार उनके मनोनयन के लिये पत्रा आए लेकिन वह टाल गईं और न ही उन्होंने किसी पार्टी की सदस्यता ली। नेतृत्व के गुण होने के कारण ही वह पालिका चुनाव से लेकर संसदीय चुनाव तक बूथ में गड़बड़ करने वाले किसी भी पार्टी के कार्यकर्ता को झिड़क देती थीं।
राजनीति की हलचल को परखने और जानने के बाद वह अपने मिशन पर अडिग थीं। महिला संगठनोें के साथ जुड़कर वह शिक्षा व सामाजिक कार्यों में रुचि लेती। इसके लिये कई बार उन्हें सम्मानित किया गया था। बेवाक बोलने वाली कमला जी पत्रकारिता के घराने से थीं तो उन्हें किसी भी अधिकारी या नेता से सम्वाद करने में झिझक नहीं थी लेकिन वह अपने दायरे में रहकर ही सम्वाद करतीं। सामाजिक संस्थाओं से जुड़कर वह कार्यों में जुड़ी रहीं। लोक चेतना मंच की सक्रिय महिला सदस्य के रूप में उनकी भूमिका थी। पिघलता हिमालय के सम्पादक के रूप में उन्होेंने जनपक्षीय मुद्दों को उठाया और हिमालय संगीत शोध् समिति की अध्यक्ष के रूप में बच्चों और बड़ों का मार्गदर्शन किया।
सेनि. तहसीलदार, समाजसेवी

जन चेतना का गढ़ रहा है शक्ति प्रेस

धीरज उप्रेती
महानगर की शक्ल ले चुके हल्द्वानी के कालाढूंगी रोड की सूरत भी अब बदलती जा रही है। कभी इस सड़क पर फड़ों का छोटा सा बाजार और दूर जाकर पीलीकोठी मुख्य स्थान हुआ करता था। उसके बाद उँचापुल। तब कहीं जाकर कठघरिया, फतेहपुर का ग्रामीण इलाका। मुखानी नहर चैराहे के बाद यह सारे गाँव बसे थे। आज कुछ पहचान नहीं आता है। चारों ओर फैल रहा शहर महानगर का आकार ले चुका है। कालाढूंगी चैराहा शहर का मुख्य चैराहा है, इसी सड़क पर हमारा छापाखाना शक्ति प्रेस तमाम सामाजिक आन्दोलनों का मुख्यालय बनकर रहा। इस पुराने भवन में छापाखान, आन्दोलनकारियों की बैठकें, प्रेसवार्ता, आन्दोलनकारियों की भीड़ हमेशा रही। यही मेरा जन्म स्थान है। बचपन के खेलकूद, पढ़ाई और संगीत सबकुछ इसी माहौल में हुआ। जन चेतना के इस गढ़ का अपना इतिहास है।
समय के साथ सब बदलता जायेगा लेकिन कुछ स्थान ऐसे होते हैं जो केन्द्रबिन्दु बनकर इतिहास में दर्ज हो जाते हैं। शक्ति प्रेस का यह ठिकाना भी ऐसा ही है। मैंने बचपन से प्रेस/घर के हिस्से में अन्तर ही महसूस नहीं किया। सबकुछ तो हँसीखुशी के माहौल में होता था। आज घुट से रहे हल्द्वानी शहर में भीड़ बढ़ती जा रही है लेकिन अपनापन नहीं है। अपनों के बीच बसने की चाह लेकर पलायन कर रहे लोग भीड़ में खो चुके हैं। बैठने के पुराने अड्डे नहीं रहे। दौड़भाग की शक्ल वाला यह शहर सिर्फ बाजार बनकर खड़ा है, जिसमें बेचने और बिकने वालों की बात हो रही है। ऐसे में सावधान रहने की जरूरत है। पुराने जमाने की लकीर भले न पीटी जाए लेकिन उसकी मान्यताओं को रखना जरूरी है।
हमारे गाँव कुंजनपुर, गंगोलीहाट इलाके के सभी लोगों का अड्डा उस जमाने में शक्ति प्रेस था। अब तो होटलों में रहने की परम्परा हो चुकी है और फैलते हल्द्वानी में कई लोगों के परिवार-रिश्तेदार हो चुके हैं। मुनस्यारी-धरचूला के सीमान्त से ‘पिघलता हिमालय’ परिवार के सदस्यों के अलावा तमाम जगह से लोगों का आना-जाना था। रामनगर, काशीपुर, बाजपुर के लिये चार-पाँच बसों का अड्डा हमारे छापाखाने के बगल में खुल गया। वर्षाें बाद 80 के दशक में यह बस अड्डा बड़ा आकार ले चुका था और करीब अस्सी बसें इसमें थीं लेकिन इसे हटाना जरूरी था। तब कालाढूंगी रोड में घनी आबादी के बीच प्राइवेट बस अड्डे को हटाने के लिये शासन-प्रशासन बौना दिखाई दिया। ऐसे में उग्र आन्दोलन ही सहारा था। मैंने यह पहला आन्दोलन देखा जिसकी अगुवाई ईजा ने की। इसमें धरना- प्रदर्शन, ज्ञापन से कुछ होने वाला नहीं था। ईजा श्रीमती कमला उप्रेती ने कई बसों के शीशे तोड़ डाले। हम बच्चे भी पत्थर मारकर बस के शीशे तोड़ने को खेल मानकर जुट जाते। दरअसल उस समय कई खूंखार लोग बस अड्डे से जुड़ चुके थे और मनमानी चाहते थे। ऐसे में सबकी नज़रे ‘शक्ति प्रेस’ पर होती। हल्द्वानी थाने के सीओ पुष्कर सिंह सैलाल जो बाद में डीआईजी के पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं, ईजा को समझाने आते थे- ‘भाभी जी बस अड्डा हट जायेगा, इनके शीशे मत तोड़ना।’ हल्द्वानी में होने वाले उत्तरायणी मेले का संचालन ही हमारे ‘शक्ति प्रेस’ से हुआ करता था। पर्वतीय सांस्कृतिक उत्थान मंच के उस दौर के प्रबुद्ध जनों की बैठक यहाँ हुआ करती थी। लोक चेतना मंच से जुड़कर ईजा ने कई जगह प्रतिभाग किया। सीखने की इच्छा में ईजा ने ट्राइसेम योजना के तहत पीपुल्स कालेज में जुड़ीं। गायत्री परिवार के अभियान से जुड़कर उन्हें सहयोग किया। आन्दोलन के साथ विचार-विमर्श के इस अड्डे से कई अन्य आन्दोलन भी संचालित हुए, जो सामाजिक सौहार्द व दिशा देने वाले थे।

फरवरी 2019

कमला: वह वीरांगना थी

महेश पाण्डे
सबसे कठिन होता है अपने किसी नजदीकी के बारे में लिखना। जिसको आप बचपन से से देखते-सुनते आये हैं उसके बारे में लिखना तो और भी मुश्किल होता है। फिर कमला पाण्डे-उप्रेती के बारे में कलम कितनी निरपेक्ष होकर लिखेगी, कहना मुश्किल है। रानीखेत में एक ही मोहल्ले खड़ी बाजार में आमने-सामने मकानों में पाँच मकान छोड़कर कमला का घर था। उन दिनों पूरी खड़ी बाजार एक परिवार की तरह था। जाति-धर्म भाषा का विभेद कोई मायने नहीं रखता था। सब रिश्ते सहज और आत्मीयता लियेे हुए थे। हमारी ईजा, चाची या जड़जा ताई जी थी। हमारी एक बहन जानकी ताउजी की लड़की थी। जानकी के बहाने सभी का घर में आना-जाना लगा रहता था। जानकी की देखा-देखी हमारी ईजा और हम लोग एक रिश्ते में बंध्े हुए थे। कब कमला और उसकी बहनों ने मुझसे दाज्यू कहना शुरु किया, याद नहीं पड़ता लेकिन यह रिश्ता आज तक अटूट बना हुआ है। इसी रिश्ते की डोर से मैं आज पंकज, ध्ीरू और मीनाक्षी का मामा बना हुआ हँू। कमला से अन्तिम मुलाकात वर्ष 2018 में रानीखेत में उमेश डोभाल स्मृति समारोह में बस चन्द मिनटों के लिए हो पायी थी। उसे सपरिवार गंगोलीहाट अपनी ससुराल और हाटकालिका मन्दिर जाना था। इसके बाद दो-तीन बार पफोन से अशल-कुशल का आदान-प्रदान हो पाया। उसके निधन के बाद 22 सितम्बर 2018 को परिवार को शोक सम्वेदना व्यक्त करने घर गया था।
रानीखेत में कमला की परवरिश एक भरे-पूरे और सम्पन्न परिवार में हुई। किसी चीज कर कोई अभाव नहीं था। शादी के कुछ वर्षों में ही तीनों बच्चे पैदा हो गए थे। सभी 7-8 साल से कम वय के थे। उप्रेती जी का फक्कड़पन कमला ने ससुराल आते ही पूरी तरह समावेषित कर लिया था। उनका घर शक्ति प्रेस गाँव-देहात के लोगोें की आश्रय स्थली हुआ करती थी। कितने ही लोगों ने वहाँ प्रेस का काम सीखा। अखबार निकालना सीखा। वहाँ जो भी आया वह आत्मनिर्भर होकर निकला।
जिन दिनों उत्तराखण्ड चिपको आन्दोलन से गुंजायमान था उन दिनों ‘उत्तर उजाला’ के बाद ‘शक्ति प्रेस-पिघलता हिमालय’ आन्दोलनकारियों का केन्द्र बने हुए थे। रात-विरात आन्दोलन के पर्चे-पोस्टर छापने का काम उप्रेती दम्पति के जिम्मे था। उन्होंने कभी किसी से माँगा भी नहीं। उल्टे चाय-नाश्ते की जिम्मेदारी भी उनके ही हिस्से जाती थी। कमला बीमार कैसे पड़ी यह भी एक अलग किस्सा है। किस्सा क्या बहुत त्रासदी है। इसने हँसते-खेलते उप्रेती परिवार को जबरदस्त संकट में डाल दिया। यह संकट आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक तीनों ही मोर्चों पर उभरकर सामने आया। हुआ यों कि एक दिन शाम को दोनों लोग घूमने गए हुए थे। आइसक्रीम वाले को देखकर कमला ने आइसक्रीम खाने की इच्छा जताई। आइसक्रीम खाने के बाद उसे हल्की-फुल्की खाँसी आती रही। जब दो-तीन दिन में भी खाँसी नहीं रुकी तो चिन्ता होने लगी। हल्द्वानी में इलाज चलता रहा, लेकिन खाँसी ठीक नहीं हुई, कुछ महीनों बाद उसने बिस्तर पकड़ लिया तो भवाली एडमिट करना पड़ा। उसके भवाली जाने से पूरे परिवार पर संकटों का पहाड़ टूट गया। बच्चे छोटे थे, उनको ननिहाल रानीखेत भेजना पड़ा। उप्रेती जी को प्रेस और अस्पताल के बीच लगातार चक्कर काटने पड़े। परिवार के भरण-पोषण के साथ ही दवा और कमला के पौष्टिक आहार के लिए उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ी। डेढ़-दो साल तक बच्चों की परवरिश रानीखेत व गंगालीहाट घर में हुई। जब कमला का स्वास्थ्य कुछ सुध्रने लगा तो पहले पंकज-ध्ीरू और पिफर मीनाक्षी कुछ समयावधि के बाद हल्द्वानी आये। इनकी वापसी के साथ ही परिवार का आर्थिक संकट गहराने लगा। साप्ताहिक से दैनिक बना पिघलता हिमालय ने उनके सामने चतुर्दिक समस्याएं खड़ी कर दीं। मित्रों और परिचितों के सहयोग से उन्हें राहत मिली लेकिन तकादों की भरमार ने उन्हें काफी परेशान भी किए रखा। घर के जेवर तक उन्हें या तो गिरवी रखने पड़े या बेचने पड़े। परिवार की बड़ी मेहनत के बावजूद उन्हें पिघलता हिमालय दैनिक से साप्ताहिक करना पड़ा। तब तक दुर्गा सिंह मर्तोलिया भी आर्थिक संकट से घिर चुके थे। किसी तरह उप्रेती जी, कमला और पंकज तब तक हाथ बँटाने और काम करने वाला हो गया था कड़ी मेहनत और घोर अभावों के बीच भी अखबार छापने से कभी पीछे नहीं हटे। यही कड़ी मेहनत आज भी पिघलता हिमालय के पीछे लगी हुई है।
बाद के वर्षों में शक्ति प्रेस बौद्धिक और सम्भ्रान्त नागरिकों का सबसे प्रिय केन्द्र बन चुका था। प्रसिद्ध रंगकर्मी बांकेलाल साह, साहित्कार गोबिन्द बल्लभ पन्त, डिग्री कालेज के शिक्षक, व्यापारी आदि वहाँ की बैठकी को अघोषित क्लब का स्वरूप दे चुके थे। इसी शक्ति प्रेस में कई दिनों की लम्बी बैठकों और विचार-विमर्श के बाद पर्वतीय सांस्कृतिक उत्थान मंच ने आकार लेना शुरु किया। उन्हीं बैठकों का नतीजा आज हल्द्वानी की पहचान बन चुके पर्वतीय सांस्कृतिक उत्थान मंच है। एक गृहणी के रूप में कमला भी कभी-कभार बैठकों में भाग लेती थी, उसके विचारों को भी लोग गम्भीरता से सुुनते थे। मंच में महिलाओं की भागीदारी का जो दृश्य आज हम देखते हैं उसके पीछे कमला की मेहनत भी है।
बाद के दिनों/वर्षों में कमला ने कई स्वैच्छिक संगठनों में काफी सक्रियता से भाग लिया, लम्बी यात्राएं भी कीं। उत्तराखण्ड आन्दोलन में उसकी सक्रियता से कोई अपरिचित नहीं है। उप्रेती दम्पति की संगीत के प्रति अत्यधिक लगाव ने तीनों बच्चों को अभावों के बीच भातखण्डे संगीत महाविद्यालय से अलग-अलग विधाओं में दीक्षित कराया और आज तीनों की अपनी-अपनी विधाओं में अलग पहचान है। तीनों बच्चों और उप्रेती दम्पति के कठोर परिश्रम और साधना के रूप में हमें आज ‘हिमालय संगीत शोध् समिति’ जैसी बहुमुखी संस्था की विरासत मिली हुई है। उप्रेती जी के न रहने पर कमला ने तमाम शारीरिक कमजोरियों और बीमारी के बावजूद परिवार को एकजुट बनाये रखने में काफी दक्षता और कठिन श्रम से काम किया। वास्तव में वह वीरांगना थी। अभावों और कष्टों के बीच कैसे जिया जाता है कोई उससे सीखता। आज वह भौतिक रूप से जरूर हमारे बीच नहीं है लेकिन उसकी बोयी फसल अब सोने की तरह दमक रही है। माँ-बाप की विरासत को निरन्तर आगे बढ़ा रहे उनके बच्चों से यही उम्मीद है कि उनकी जलाई मशाल उनके साथ-साथ और लोगों के जीवन में भी उजाला करते रहे। जिस पिघलता हिमालय को वो छोड़ गये हैं उसकी पिघलन गंगा-यमुना का सदा नीरा जल हमेशा बहता रहे। आमीन।
9/1006 इन्दिरा नगर, लखनउ