तिब्बत के दर्चिन में थी हमारी छोटी सी दुकान

कैप्टन रतन सिंह टोलिया से बातचीत

पिघलता हिमालय प्रतिनिधि
यदि लगन हो तो हम किसी भी कार्य में सफलता पा सकते हैं और समाज में योगदान लायक बन सकते हैं। पहले जब साधन नहीं थे, लोग ज्यादा परिश्रम करते थे। उनका श्रम उन्हें लक्ष्य तक पहँुचाता। ऐसे ही श्रमशील परिवार के सदस्य हैं 79 वर्षीय कैप्टन रतन सिंह टोलिया। मूल रूप से टोला, जोहार के टोलिया जी का जन्म भैंसकोट ;नाचनी के निकटद्ध में हुआ था। इनके पिता जीत सिंह जी 6 भाई हुए- मानसिंह, किशनसिंह, नैनसिंह, जीतसिंह, हयातसिंह माधे सिंह। अपने इलाके में 32 लोगों का संयुक्त परिवार मुख्यतः व्यापारियों का परिवार था। तिब्बत व्यापार के साथ आन्तरिक व्यापार के लिये परिवार के बुजुर्गों ने मजबूत नींव डाल रखी थी।
जोहार नगर, भोटिया पड़ाव, हल्द्वानी निवासी रतन सिंह जी अपने बचपन का स्मरण करते हुए बताते हैं कि माइग्रेसन में उनका स्कूल भी साथ-साथ चलता था। भैंसकोट, साईं, टोला में उनका प्राइमरी स्कूल चलता था। कक्षा चार की पढ़ाई नाचनी में दी, पंडित बासुदेव जी ने परीक्षा ली थी। मीडिल की पढ़ाई शेर सिंह टोलिया के संरक्षण में डीडीहाट से की। वह बताते हैं- ‘‘कक्षा आठ की पढ़ाई करके अपने ग्राम टोला गया था। व्यापारी परिवार का होने के कारण बड़े व्यापार में जुटो, तिब्बती भाषा का ज्ञान भी लो। मेरा मन पढ़ाई का था। एक दिन घर के सब सयानों के सामने मैंने झोला पकड़ा और जाने की बात करते हुए निकल पड़ा। टोला से पैदल बोगड्यार पहुंच कर रात काटी। शान्त एकान्त रात में डाक लिया हलकारा पहुंचा, वही मेरा साथ था। अगले दिन बरम रुका और फिर नारायण नगर पहुंच गया। जहाँ मेरे मित्र दलजीत सिंह वृजवाल ;स्वतंत्राता सेनानी त्रिलोक सिंह के सुपुत्र और भीमसिंह वृजवाल ;पांखू में निवास कर रहे हैं। मिल गये। नारायणनगर से हाईस्कूल किया’
रतन सिंह जी का सन् 1954 में नानासेम मुनस्यारी के माधो सिंह पांगती की सुपुत्री नन्दा से विवाह हुआ।
टोलिया जी व्यापार के पुराने दिनों की बताते हैं- ‘‘सन् 1954 में पिता के साथ तिब्बत गया। दर्चिन में हमारी छोटी सी दुकान थी। 2-3 माह के लिये वहाँ जाया करते थे। हमारे तिब्बती मित्रा व्यापार के लिये इन्तजार करते थे। दर्चिन में अपनी दुकान से आगे तिब्बती मित्र के गोम/घर वहाँ जाकर उन काटने का काम भी किया। उनका टैंट वाला घर चवर गाय के वालों का बना था, जो गर्म था। वहाँ से उन लेकर अपनी दुकान पर लौटा। बाद में सामान जमा होते ही हम लोग टोला वापस आ गये।’’
व्यापार के इस अनुभव के बाद रतन सिंह पुलिस में भर्ती हो गये। इनके ताउ रतन सिंह टोलिया ने देहरादून में इन्हें भर्ती में मदद की। लेकिन इस समय सन् 55-56 में एक दिन इन्हें टेलीग्राम आया कि पिता जीतसिंह और बड़े भाई उमराव सिंह लकड़ी काटने गये थे, भूस्खलन से मौत हो गई है। इस दुखभरे समाचार के बाद टोलिया जी नौकरी छोड़ घर आ गये। बाद में नौकरी की तलाश में निकले और चकराता में पफौज के एक धर्मगुरु से भेंट हुई। गोरखा बटालियन में कर्नल मानसिंह से उन्होंने रतन सिंह के बारे में बताया और यह भर्ती हो गये। सिपाही से भर्ती होेकर अथक श्रम करते हुए प्रमोशन पाने वाले टोलिया जी बटालियन के ट्रेनिंग सेंटर में शिक्षक की भूमिका में भी रहे। सन् 1965 में पाकिस्तान से लड़ाई के समय इनकी तैनाती स्यालकोट थी। अपने परिवार के साथ यह लोग स्यालकोट थे। ट्रेनिंग के बहाने इन्हें युद्ध में भेज दिया गया। इनका और इनके जैसे अन्य फौजियों के परिवारों ने काफी नजदीक से सीमा पर गोलाबारी की आवाजें सुनी और धुंआ देखा। इनकी कार्यशैली को देखते हुए आनरेरी कैप्टन के रूप में इन्हें सम्मान मिला। टोलिया जी अपनी यादों के साथ स्वस्थ्य रहें, कामना है।

पिघलता हिमालय 17 सितम्बर 2018 से

ट्रेडिल मशीन में हैल्पर तक बनी वह

स्व. आनन्द बल्लभ उप्रेती-स्व. कमला उप्रेती

डाॅ.पंकज उप्रेती
किसी की जिन्दगी पूरी तरह संग्राम बन जाती  है और इस संग्राम में जो लड़ता है वह योद्धा है। ऐसी की योद्धा ही ईजा। ईजा श्रीमती कमला उप्रेती अब हमारे बीच नहीं है लेकिन उसकी अनगिनत कहानी मुझे याद हैं। ‘पिघलता हिमालय’ को बनाने में ईजा का घोर संग्राम रहा है। यह कहानी 1964 से शुरु हो जाती है जब पिता स्व.आनन्द बल्लभ उप्रेती जी ने छापाखाना खोला होगा। मैंने ईजा-बाबू के मुँह से ही सुना था- ‘पहले छापाखाने की बहुत इज्जत थी।’ इस इज्जत को मैंने देखा भी। ‘शक्ति प्रेस’ नाम से हमारा छापाखाना हल्द्वानी के इतिहास मेें चार सबसे पुराने छापाखानों में से है। पिता ने बाईडिंग, परफेटिंग, रूलिंग, कम्पोजिंग, मशीनमैन हर प्रकार का काम किया था। इसी छापेखाने में हमारी बहुत बड़ी ट्रेडिल मशीन हुआ करती थी, पूरे ट्रक के बराबर। जिसमें दैनिक पिघलता हिमालय भी छपा। बाद में छोटे आकार की ट्रेडिल मशीन वगैरह भी प्रेस में लगाई गईं। इन मशीनों में अनगिनत मशीनमैन, कम्पोजिंग में अनगिनत कई आज नये प्रकार की प्रिटिंग तकनीक के साथ सफल हैं।

बचपन की याद याद आती है, जमाना भला था। तब छापाखाने में प्रतिस्पदर्धा नहीं थी और शादीकार्ड, बिलबुक इत्यादि के ग्राहकों के अलावा लिखने-पढ़ने वालों का अड्डा छापाखाने ही हुआ करते थे। आजकल तो प्रिंटिंग प्रेस लिखना आसान हो चुका है। और प्रतिद्वंद्वी अपने ग्राहकों को ढूंढने के लिये दौड़ते हैं, सरकारी काम के लिये तिकड़मबाजी करनी पड़ती है। उन दिनों हल्द्वानी पोस्टर, पर्चे, कार्ड छपवाने वालों में आन्दोलनकारी, समाज सेवी, पुस्तकें-पफोल्डर-पर्चे छपवाने के लिये लेखक, कुछ खास-खास लोग शादीकार्ड छपवाने के लिये छापेखाने तक आते थे। प्रेस की बड़ी जिम्मेदारी थी और लोगों को भरोसा था कि उनकी गलतियां भी सुधर कर छपेगा। तब एपफएस, एपफोर, एथ्री जैसे कागज साइजों को नहीं जानते थे बल्कि रिमों के साइजों के बाद कागज कटिंग होती थी। आज भी बड़े छापेखानों में यही होता है। खैर, बात पिघलता हिमालय की हो रही थी। 1978 में पिघलता हिमालय शुरु हुई, तब मैं 6 साल का था। बहुत उत्साह था पिता आनन्द बल्लभ ज्यू और हमारे चाचा दुर्गा सिंह मर्तोलिया में। इनका जोश अखबार को दैनिक में तक बदल गया। लेकिन जीवन के संग्राम में यह उलझ कर रह गये। दुर्दिनों की वह कहानी बहुत लम्बी है, फिर कभी लिखूंगा।

ईजा कमला उप्रेती ने पिता के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर छापाखाना और अखबार सींचा। लोहे की उन भारी मशीनों की खटखट आवाजों में कागज को मशीन में लगाने और उठाने में सावधानी चाहिये। कई ऐसे अवसर थे जब ईजा मशीनमैन पिता के साथ हैल्पर बनी। तब आजकल की तरह सुविधाएं और साधन भी नहीं थे। डाक से जाने वाले अखबारों में पते लिखने में भी ईजा सहायक थी। अखबार की प्रूफरीडिंग का काम भी वह करती और कभी लिखने बैठ जाती।
मन में विचार आता है कि पत्रकारिता के उस जमीन में कितनी पवित्रता थी। पत्रकारिता का मिशन था, आन्दोलन था, सामाजिक चेतना का प्रतीक था। अब ईजा हमारे बीच नहीं है लेकिन उसकी जिद, उसकी लगन, उसका संघर्ष हमें याद दिलाता रहेगा कि योद्धा संग्राम में विचलित नहीं होते। उन यादों में खुशी के साथ आँसू और साहस है।

पिथौरागढ़

पिथौरागढ़ नगर की चार समस्यायें

मदन चन्द्र भट्ट
पिथौरागढ़ नगर 1380 ई. में कत्यूरी राजा पिथौरा ने बसाया। उसकी तीन रानियाँ थीं- गंगा देवी, धर्मा देवी और मोलादेवी ;जियारानी। तीनों रानियों सेे तीन राजकुमार पैदा हुए- सिंहराज, बागदेव और दुलाशाही ;धमदेव। जागरों और वंशावलियों से ज्ञात होता है कि ‘पिथौरा’ लाड़प्यार का नाम था। इसके अलावा उसके चार नाम और थे- पृथ्वीशाही, पृथ्वीपाल, पृथ्वीमल्ल और प्रीतमदेव। उसका पौत्र और धमदेव का बेटा मालूशाही दारमा के सार्थवाह शुनपति शौक की पुत्री राजुला शौक्याणी के साथ गन्धर्व विवाह के लिए प्रसिद्ध है।
ब्रिटिश शासनकाल ;1815-1947 ई. तक पिथौरागढ़ की सीमा दक्षिण में सुकौली और ऐंचोली से लेकर उत्तर में सात शिलिंग तक तथा पूर्व में भड़कट्या से लेकर पश्चिम में पौण गाँव पैंगउाक शिलिंग तक फैली हुई थी। उस समय थरकोट गाँव में छः थरों ;पट्टी की एक पंचायत बैठती थी और सभी राजनैतिक समस्याओं का निबटारा करती थी। उदाहरण के लिए थरकोट की थर ने 1815 ई. में यह निश्चय किया कि रामेश्वर और थलकेदार के आचार्य होने से बिशाड़ गाँव के भृगुवंशी और विश्वामित्रा गोत्री ब्राह्मणों को अंग्रेजों की कुली बेगार से मुक्त रखा जाय। इस निर्णय को सपफल बनाने के लिए ‘रावल’ और ‘बल्दिया’ पट्टी के सभी थोकदार और जिमदार तलवार और खुखरी पहन कर अलमोड़ा ;प्राचीन लखनपुर में कमिश्नर ट्रेल की अदालत में उपस्थित हुए। जिस तरह ‘गर्खा’ ;परगनाद्ध के अन्तर्गत डीडीहाट, द्वाराहाट, गंगोलीहाट आदि बाजारें थें, उसी तरह कत्यूरी, चन्द, बम, मल्ल, पाल, गोरखा ;1790-1815 ई. आदि के शासन काल में थरकोट और हाट गाँवों में ‘शोरहाट’ थी। शोर का अर्थ है हल्ला। यह शब्द लोक में ‘सोर’ के नाम से प्रचलित है। स्थानीय अनुश्रुति के अनुसार कैलास-मानसरोवर और पशुपतिनाथ के तीर्थयात्रियों के यहाँ ग्रीष्मकाल में आने से भयंकर शोर होता था। जाड़ों में तिब्बती लामा, शौका और भोटिया अपने ढाकरों के साथ चार महिने पिथौरागढ़ में पड़े रहते थे। वैदिक काल में पिथौरागढ़ में वैराज्य ;राजा रहित परम्परा का गणराज्य था जिसकी राजधनी ‘गणकोट’ सोर की हाट के उत्तर मेें नाग नदी के किनारे स्थित है। बिशाड़ गाँव के बिल्वेश्वर महादेव में नाग नदी में ‘बिल्ववती’ और ‘सरस्वती’ नदी के मिलने से ‘त्रिवेणी’ बन जाती है।
स्कन्दपुराण के मानसखण्ड के अनुसार नाग, यक्ष, असुर, विद्याधर  और  सिद्ध यहाँ के मूल निवासी थे। पिथौरागढ़ नगर के मध्य में बहने वाली ‘ठुलि गाड़’ को ‘यक्षवती’ नदी कहा गया है। इसके समीप स्थित घंटाकरण देवता, जाख और जाखिनी गाँव यक्ष परम्परा के नाम हैं। प्राचीन काल में तिब्बत के ‘ताकलाकोट’ को अलकापुरी कहते थे। शीतकाल में अलकापुरी के यक्ष पिथौरागढ़ में आ जाते थे और यक्षवती नदी के दोनों ओर शीतकाल में रहते थे। इस प्रकार पिथौरागढ़ वैदिक काल में शीतकालीन अलकापुरी था और उत्तराखण्ड का सबसे पहला और चर्चित नगर था। मानसखण्ड के अनुसार यक्षवती नदी ‘असुर’ प्रान्त से निकलती थी। आज भी ठुलियाड़ के उद्गम के समीप दो उँचे ‘असुरचुल’ नाम के पहाड़ हैं जिनमें लोक देवता ‘असुर’ की थापना है। असुर देवता की पूजा जागर प(ति से होती हैं आसपास के ग्रामीणों का विश्वास है कि यह असुर देवता तिब्बत से ‘सोर’ आया। मानसखण्ड में कत्यूरी शैली की मूर्तियों से भरी -घुंसेरा’ गुफा को ‘विश्वकर्मा’ की गुफा कहा गया है।
पिथौरागढ़ नगर में चैतोला, हिलजात्रा, आठूं, होली, रामलीला आदि के आयोजनों में ढोल-नगाड़े के साथ भयंकर भीड़ एकत्र होती है और प्राचीन ‘उत्सव संकेत’ गणराज्य की यादें ताजा हो जाती हैं।
पिथौरागढ़ तीन पीढ़ी तक- राजा पृथ्वीशाही, दुलाशाही और मालूशाही की राजधानी रहा है। उस समय कत्यूरी साम्राज्य उत्तर में कैलास-मानसरोवर से लेकर दक्षिण में सहारनपुर जिले के शाकम्भरी मन्दिर तक तथा पश्चिम में देहरादून जनपद के जौनसार में स्थित बैराटगढ़ से लेकर नेपाल के ‘डोटीगढ़’ तक फैला हुआ था। डाॅ.प्रयाग जोशी ने द्वाराहाट में प्रचलित कत्यूरी वंशावली को एकत्रा किया है। उसमें कहा जाता है कि कत्यूरी साम्राज्य में बारह रजबार और नौ लाख सेना थी-
‘जोत राजा कत्यूराॅ की!
जदोल मनसोर करम चाको पाट।
पफीणी कत्यूर रणचूलीहाट।
सचनी नागनी पूरब।
मालिनी पछम लागो ढांउ।
एकै बीड़ा सब लोगन को बानँू।
छाटछारी बार रजबारी।
नौ लाख कत्यूराॅ ले तपायो।
धरती को तीसरो बानूॅ।
कभी वैराज्य, कभी उत्सव संकेत गण और रंगीली सोर रहा पिथौरागढ़ आज चार ऐसी भीषण समस्याओं से त्रस्त है जिसका समाधन न अपफसरों के पास है और न नेताओं के पास है। उन समस्याओं के समाधन के लिए छात्रा, महिलायें, राजनैतिक दलों के कार्यकर्ता और ग्रामीण निरन्तर आन्दोलित हैं। यूं कहिये कि उनकी नींद हराम है। ये चार समस्यायें हैं-
1. डिग्री कालेज को कुमाउ वि.वि. का कैम्पस का दर्जा दिया जाना और दिल्ली की तर्ज पर तीन वर्ष का बीए, एलएलबी खोलना।
2. बारहमासी सड़क को ऐंचोली से सप्त शिलिंग तक न जाने देना।
3. प्रस्तावित नगर निगम में आसपास के गाँवों को सम्मिलित न होने देना।
4. पंचेश्वर बांध् को न बनने देना।

पिघलता हिमालय 20 अगस्त 2018 अंक से

पिथौरागढ़ की चार समस्यायें- 2

डाॅ.मदन चन्द्र भट्ट
पिथौरागढ़ डिग्री कालेज तिब्बत पर चीनी आक्रमणसे सीमान्त विकास की नीति के अन्तर्गत खुला। पहले जूनियर हाईस्कूल बजेटी में कक्षायें शुरु हुईं, फिर घुड़साल में टिनशेड बनाये गये। जब कुमाउँ विश्व विद्यालय की स्थापना के लिए आन्दोलन हुआ तो सबसे उग्र आन्दोलन पिथौरागढ़ में हुआ। छात्रों की उग्र भीड़ पर गोली चलानी पड़ी जिससे दो लोगों की मौत हो गई। आगरा विश्वविद्यालय बहुत दूर होने से छात्र-छात्राओं की बहुत परेशानी होती थी लेकिन कुमाउँ विश्वविद्यालय बनने पर नैनीताल और अल्मोड़ा दो कैम्पस बनाये गये, पिथौरागढ़ को छोड़ दिया गया। उसी समय गढ़वाल विश्विद्यालय भी बना। उसके तीन कैम्पस श्रीनगर, पौड़ी और टिहरी बनाये गये। नैनीताल के बजाय अल्मोड़ा में वि.वि. का केन्द्र बनाया जाता तो तब भी पिथौरागढ़ वालों के लिये नजदीक होता। नैनीताल एक पर्यटक नगर है। आज कारों से जाम लग जाने से पर्यटक बेहद परेशान हैं। जब छात्रों ने नैनीताल में विश्वविद्यालय का केन्द्र बनाने के लिए आन्दोलन शुरु किया तो वहाँ के ‘होटल एसोसिएशन’ ने उसका विरोध् किया क्योंकि पर्यटन पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। इसी तरह नैनीताल में ‘हाईकोर्ट’ का बनना भी पर्यटन के लिए बाध्क रहा है। नैनीताल में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए यह आवश्यक है कि हाईकोर्ट गैरसैंण में नवनिर्मित विधान सभा भवन में डाला जाय और पिथौरागढ़ को विश्वविद्यालय का कैम्पस बनाया जाय।
जब से कुमाउँ विश्वविद्यालय बना है, हर वर्ष पिथौरागढ़ का छात्रसंघ वि.वि. कैम्पस बनाने की मांग करता है। छात्रसंघ के चुनाव की पूर्व वेला में जब जनरल गैदरिंग होती है तो सभी प्रत्याशी वादा करते हैं कि वे महाविद्यालय को विश्वविद्यालय का कैम्पस बनाने के लिए पूरा जोर लगायेंगे। अंक तालिकाओं में गड़बड़ी हो जाने पर छात्र-छात्राओं को नैनीताल दौड़ना पड़ता है, वहां के महंगे होटलों में रहना पड़ता है। पीएचडी की मौखिकी परीक्षा के लिए नैनीताल जाना पड़ता है और वहाँ के महंगे होटलों में रहना पड़ता है। अगर पिथौरागढ़ में वि.वि. का कैम्पस बन जाता तो सीमान्त के सभी डिग्री कालेजों ;नारायण नगर, बलुवाकोट, मुनस्यारी, गंगोलीहाट, बेरीनाग आदि के छात्रों को अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए नैनीताल न भटकना पड़ता।
कैम्पस बन जाने से उत्तराखण्ड सरकार का आर्थिक बोझ भी कम होता। अध्यापकों के वेतन का अस्सी प्रतिशत व्यय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग वहन करता, केवल बीस प्रतिशत राज्य सरकार को देना पड़ता। शोध् योजनाओं, शोध् छात्रवृत्तियां तथा प्राध्यापकों के विदेश जाने में भी विशेष सुविध होती। सबसे बड़ा काम यह होता कि छात्रासंघ का चुनाव लड़ने वालों को अपने भाषण में कैम्पस बनाने का झूठा वायदा न करना पड़ता।
छात्रों की एक प्रमुख मांग महाविद्यालय में बीए, एलएलबी खोलने की है। इसके लिए आजकल कई छात्र-छात्रायें दिल्ली जा रहे हैं। प्राइवेट कम्पनियों में जिस तरह बी.टैक. करने वाले छात्रों को नौकरी मिल जाती है, उसी तरह एल.एल.बी. करने वालों के लिए भी प्राइवेट कम्पनियों के द्वार खुले हैं। एल.एल.बी. करने वाले ‘जज’ की परीक्षा दे सकते हैं, स्वतंत्र रूप से वकालत कर सकते हैं, राजनैतिक दलों के सदस्य बनकर नगरपालिका, जिला परिषद, ग्राम पंचायत, वन पंचायत, सहकारी बैंक आदि के चुनाव लड़ सकते हैं।
तीसरी भीषण समस्या स्टापफ क्वार्टरों की है। आज महाविद्यालय बने पचपन वर्ष हो गये हैं लेकिन न प्रचार्य के लिए आवास बना, न चपरासियों के लिए। प्राचार्य ‘किंग जार्ज कारोनेसन हाईस्कूल’ के प्रधनाध्यापक के लिए बने मकान में जी.आई.सी. परिसर में रहते हैं। जब महाविद्यालय का भवन बनाते समय कुछ निर्माण सामग्री बच गई तो प्राचार्य डाॅ. छैलबिहारी लाल गुप्ता ने तत्कालीन पिथौरागढ़ के डी.एम. गोबिन्द डबराल से आग्रह कर ठेकेदार श्री रौतेला को पाँच क्वार्टरों के लिए लीज में भूमि दिलायी और डिग्री कालेज रोड में पंचकुटी अस्तित्व में आयी। डी.एम., ठेकेदार और प्राचार्य के बीच एक ‘डील’ बनायी गई कि पंचकुटी में विज्ञान के विभागाध्यक्षों को सीनियर्टी के आधर पर प्राचार्य पंचकुटी में अलाट करता रहेगा और रु. 75/- किराये के रूप में ठेकेदार को मिलेंगे। आज स्थिति यह है यथासम्भव सुविध शुल्क लेकर एक क्वार्टर प्राथिमक शिक्षक संघ के नेता को और एक जीआईसी के एलटी ग्रेड के अध्यापक को दे दिया गया है।
डिग्री कालेज की और भी अनेक समस्यायें हैं। उनके समाधन के लिए अवकाश प्राप्त प्रोफेसरों ने ‘डिग्री कालेज वेलपफेयर एसोसिएशन’ बनाया है। राजकीय महाविद्यालय के सेवानिवृत्त प्राचार्य डाॅ. हरीश चन्द्र जोशी जी को अध्यक्ष बनाया गया है। डाॅ. हीरा बल्लभ खर्कवाल उपाध्यक्ष, डाॅ.लच्छी लाल वर्मा सचिव, डाॅ. मदन चन्द्र भट्ट कोषाध्यक्ष, डाॅ.परमानन्द चैबे सम्वाददाता और श्रीमती भागीरथी भट्ट महिला उपाध्यक्ष बनायी गई हैं। कार्यकारिणी में डाॅ.त्रिलोचन जोशी, प्रो. के.के.भट्ट, श्रीमती देवकी फर्तयाल और डाॅ. शीतल सिंह भण्डारी रखे गये हैं। सदस्यता शुल्क एक सौ रुपये प्रतिमाह रखा गया है ताकि प्रतिनिधि मण्डल समय-समय पर देहरादून भेजे जा सकें। इस एसोसिएशन की मासिक बैठक रामाश्रय-1, मालूशाही कालोनी, पिथौरागढ़ के सुमेरू संग्रहालय हाल में माह के अन्तिम रविवार को चार बजे से छः बजे तक होगी।

पिघलता हिमलाय 10 सितम्बर 2018 अंक से

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का संगीत और पहाड़ प्रेम

डाॅ.पंकज उप्रेती
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ जितने गहरे कलाकार थे उतने ही वैज्ञानिक। संगीत विज्ञान पर उनका ऐसा प्रभाव देखा जा सकता है। कवीन्द्र रवीन्द्र ने संगीत की जिस विधा को जन्म दिया उसे- ‘रवीन्द्र संगीत’ कहा जाता है। रवीन्द्र बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के थे और उन्होंने धर्म- कला-विज्ञान-ज्ञान की शाखाओं के मर्म को समझते हुए प्रकृति की रीति के साथ चलने का संदेश दिया। ऐसे में गुरुदेव का पहाड़ प्रेम होना स्वाभाविक है। जिस संगीत को लेकर वह शुरु होते हैं उसकी लहर यात्र और खोज के बाद उत्पन्न होती है। इस सच्चाई को मैं तक महसूस करता हँू जब पहाड़ की दुर्गम यात्रओं को अंजाम देता हँू और अंजान पथों पर पग धरता हँू। संगीत मात्र सरगम का खेल नहीं बल्कि वह एक विचार भी है। प्रकृति के बीच विचरने से दर्शन, कला, विज्ञान की कौंध् होने लगती है और एक शैली बन जाती है। टैगोर की शैली भी अपनी शैली बनी जिसे उनके गीत, कविता, नाट्य, संगीत में देखा जा सकता है। ‘रवीन्द्र संगीत’ के रूप में जिस विशिष्ट संगीत की धारा उन्होंने चलाई उसका अपना ही शास्त्र है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर बंगाल के ख्याति प्राप्त विष्णुपुर घराने से प्रभावित थे। कहते हैं इस घराने की स्थापना तानसेन के वशंज बहादुर खाँ ने की थी। रवीन्द्र के पहले संगीत शिक्षक विष्णु चक्रवर्ती थे। बंगाल संगीत विध का गढ़ रहा है, रवीन्द्रनाथ के पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ संगीत कला के संरक्षक थे। यदि रवीन्द्रनाथ की वंशावली को देखें तो पता चल जाता है कि सभी विख्यात कलाकार और पारखी थे। महर्षि देवेन्द्रनाथ, गिरीन्द्रनाथ, द्विजेन्द्रनाथ, सत्येन्द्र, हेमेन्द्र, ज्योतिरीन्द्रनाथ, स्वर्णकुमारी, गुणेन्द्रनाथ, अश्वनीन्द्र, गुरुदेव रवीन्द्र, दीपेन्द्र, इन्दिरादेवी, लेडी प्रतिभा चैध्री, क्षितीन्द्रनाथ………। इस लम्बी सूची में मंचीय कलाकार, कलावन्त, रचनाकार, स्वरलिपिकार, गायक-वादक सभी हैं। तत्कालीन विख्यात संगीतकारों का जमावड़ा इनके घर में होता था। विष्णु चक्रवर्ती, सुरेन्द्रनाथ वन्दोपाध्याय, राम प्रसाद, श्यामसुन्दर मिश्र, जगतचन्द्र गोस्वामी, राधिका प्रसाद जैसे श्रेष्ठ कलाकारों का इनके वहाँ आना-जाना था। ऐसे में रवीन्द्र भी इसमें गोता लगा रहे थे लेकिन उनके मुँह से निकलने वाले सजह स्वरों ने एक नई धरा को चलाया। उन्होंने जो रचनाएं तैयार की उनमें काव्य और संगीत को सन्तुलित रखा गया है। वह प्राकृतिक आवाज के साथ हाव-भाव का ध्यान रखते हुए होने वाली प्रस्तुति को संगीत की श्रेणी में मानते थे। ऐसे में स्वाभाविक रूप से रवीन्द्र संगीत ने अपना स्थान लोगों के बीच बना लिया।
लोक का अपना शास्त्र होता है, सो गुरुदेव के संगीत में भी उनके लोक का प्रभाव है किन्तु मात्र बांग्ला होना ही उनकी शैली नहीं है। इस बात को वह महसूस करते थे शायद इसी लिये उन्होंने उत्तराखण्ड के जनपद नैनीताल के रामगढ़ को चुना होगा। रामगढ़ ही वह स्थान है जहाँ कवियत्री महादेवी वर्मा ने भी अपनी साहित्य साधना की। वह दौर जब संसाधनों का कमी थी, कवीन्द्र रविन्द्र ने बंगाल से यात्रा कर इसे ही क्यों चुना होगा? एकदम निर्जन में जिस स्थान को इस कलावन्त ने चुना उसके खण्डहर आज भी पुकार रहे हैं। वह तो भला हो हिमालयन एजुकेशनल रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट सोसाइटी ने इस पुकार को सुना और पिछले कुछ सालों से निरन्तर यहाँ आयोजन करते हुए सबका ध्यान इस ओर आकर्षित किया।
लोक संगीत ही शास्त्रीय संगीत की जननी है और लोक की मान्यता समूह में होती है। लोक हमेशा नकल की बजाय स्वाभाविकता का पालन करता है। गुरुदेव का भी यह मानना था, तभी तो उन्होंने शास्त्राीय संगीत की जड़ों को जानने के बावजूद अपनी स्वाभाविकता को नहीं छोड़ा। यह एक बड़ा सत्य है कि जो भी स्वाभाविक कलाकार-चित्राकार- लेखक- विज्ञानी-ज्ञानी होगा वह अपनी छाप अपने अंदाज से छोड़ता है। शास्त्रीय संगीत कलाकारों के तमाम उदाहरण देख लीजिये- भीमसेन जोशी, जसराज, कुमार गन्ध्र्व, बिस्मिला खान, हरिप्रसाद चैरसिया, पन्नालाल घोष इत्यादि। पिफल्मी गायकों के उदाहरण भी देख लें- लता, रपफी, मुकेश इत्यादि। कहने का आशय यह है कि असल कलाकार अपने आप में एक होता है और शेष उसकी नकल करने लगते हैं। संगीत में नायकी-गायकी के बारे में बताया जाता है, जिसका मतलब है- जब शिष्य अपने गुरु/उस्ताद से सीखता है तब वह नकल करता है अर्थात नायकी और जब वह मझ कर अपनी प्रस्तुति देता है तब वह गायकी करता है। सीखने के क्रम में नकल स्वाभाविक है किन्तु अपनी प्राकृतिक स्वाभाविकता को नष्ट नहीं करना चाहिये। इस बारे में गुरुदेव का मानना था कि शास्त्रीय किलिष्टता के चक्कर में संगीत रचना और उसमें निहित भाव को गम्भीर हानि पहँुचती है। भाव के साथ ही संगीत खिलता है। भावपूर्ण संगीत ही कर्णप्रिय और रंजक होता है।
रवीन्द्र संगीत पर उत्तर भारत में प्रचलित ध््रुपद-धमार, ख्याल, टप्पा, ठुमरी, पाश्चात्य ओरल गीत, बंगाल की लोक ध्ुनों का प्रभाव रहा है। गुरुदेव ध््रुपद गायकी से प्रभावित थे ऐसे में रवीन्द्र संगीत का मूलाधर भी ध््रुपद है। ऐसे में गुरुदेव ने लगभग दो हजार गीत लिखे जिनमें हिन्दी गीतों के आधार पर रचित गीतों की संख्या 215 बताई जाती है। बंगला भाषा में ये गीत ‘भाँगा-गान’ के नाम से प्रसिद्ध हुए जिन्हें पूजा गीत या ब्रह्म संगीत के रूप में गाया जाता है। श्रदेय प्रभुलाल गर्ग ने रवीन्द्र संगीत पर गहन अध्ययन करते हुए बताया है कि रवीन्द्र संगीत की अधिकांश रचनाएं तोड़ी, भैरवी, आसावरी, पूर्वी, ईमन, मल्लार और केदार में की गईं हैं। मालकौंस और बागेश्वरी का प्रयोग भी किया गया है लेकिन अधिक नहीं। भैरवी राग में लगभग 150, मल्हार में 40 और पूर्वी में 30 रचनाएं की गई हैं। तालों में सरलता का ध्यान रखा गया है ताकि गीत का काव्यपक्ष किसी भी कारण से मन्द न पड़े। गुरुदेव के 215 गीत हिन्दुस्तानी संगीत में रूपान्तरित हैं। उनका गीत- प्रथम आदि तव शक्ति आदि ‘परमोज्जवल’ उनके प्रथम कोटि के गीतों में गिना जाता है, इसे ध्ु्रपद से लिया गया है। वर्षाकालीन गीत राग देश व दादरा ताल में निबद्ध है- ‘आई सावन की बेला’। बाउल गीत के आधार पर रची गई उनकी रचना- ‘यदि तोर डाक शुने केउ ना आसे तवे एकला चलो रे’ गांध्ी जी को अतिप्रिय थी। महात्मा गांध्ी ने ही रवीन्द्रनाथ के नाम के साथ- ‘गुरुदेव’ और ‘कविगुरु’ शब्द जोड़े थे और रवीन्द्रनाथ ने उन्हें ‘बापूजी’ नाम दिया था।
शान्तिदेव घोष द्वारा लिखित ‘रवीन्द्र संगीत’ में टैगोर की अनेक रचनाओं से सम्बन्धित राग-तालों का उल्लेख मिलता है। ‘गीत-वितान’ नामक बंगला पुस्तक में टैगोर के गीतों की स्वरलिपि का वृहद संग्रह मिलता है। इसके कई भाग हैं। उनकी रचनाओं से पता चलता है कि वह अवसर के अनुकूल तैयारी करते थे तभी यह भाव प्रधान थीं।शास्त्रीय रागों को गुरुदेव अपने ढंग से प्रस्तुत करते। ऐसे में शास्त्रीय संगीत का प्रभाव होते हुए भी उसकी अपनी धारा थी। उन्होंने वैष्णव पद, ईसाई प्रार्थनाएं, कीर्तन, आॅपेरा, समूहगान को नई ऊँचाई दी। रवीन्द्र संगीत के गीतों को 6 भागों में समझा जा सकता है- 1. पूजा गीत, 2. स्वदेश गीत, 3. प्रेम गीत, 4. प्रकृति गीत, 5. नृत्यनाटक गीत, 6. विविध् गीत। रवीन्द्रनाथ ने 1901 में नैवेद्य, 1906 में खैया, 1909 में गीतांजलि की रचना की। इनके अन्तर्गत आने वाले गीत पूजा गीत श्रेणी में हैं। इनमें ध्वनिमय व्यंजना और आदिशक्ति के लिये व्याकुलता दिखाई/सुनाई देती है। उदाहरण- ‘आजि तजो तारा सब आकाशे, सबे मोर प्राण भरि प्रकाशे।’ उनके लिखे/गाये देश गीत उच्चकोटि के हैं। एक उदाहरण- ‘ओ आमार देशेर माटी तोमार पाये छो आई माथा।’ बंगाल के महान प्रेमकाव्य रचनाकार निध्ु बाबू, मध्ुकान, बिहारी लाल का रवीन्द्र संगीत के गीतों मंे गहरा प्रभाव था। भौतिक प्रेम प्रसंगों को गुरुदेव ने आध्यात्म चेतना में ढालने के साथ ही छायावाद और रहस्यवाद की ओर ध्यान आकर्पित किया। चित्रांगदा, चंडालिका, श्यामा, कालमृगया, मायार खेला, वाल्मीकि प्रतिभा जैसे गीत तथा नृत्यनाटकों में इसका प्रभाव देखा जा सकता है। प्रकृति सम्बन्ध्ी गीतों में गुरुदेव ने जड़ और चेतन दोनों के प्रति वाणी मुखर की है। नृत्य-नाटक के लिये उन्होंने रचना तैयार की तथा कथावस्तु इस प्रकार गठित की कि उसका प्रभाव श्रोता/दर्शक को तत्काल हो। उनके गीतनाट्यांे को कलामंच पर हमेशा प्रसिद्धी मिली है। इसके अलावा उन्होंने विविधगीतों को गुंथा। गुरुदेव भावपूर्ण संगीत के लिये ताल को भी सहज-सुगम करने को कहते। सांगीतिक दृष्टि से देखें तो पता चल जाता है कि भावपूर्ण गायन के लिये उन्होंने ऐसे प्रयोग किये। यही कारण है कि रवीन्द्र संगीत का प्रभाव पिफल्म संगीत पर भी पड़ा। सचिनदेव बर्मन, आर0सी0 बोड़ाल, हेमन्त कुमार, सलिल चाौैधरी, पंकज मलिक, पहाड़ी सान्याल इत्यादि संगीतकारों की रचनाएं इसके उदाहरण हैं।
रवीन्द्रनाथ के संगीत में बंगाल के लोक की छाप और पहाड़ का सा दर्द है। वह कहते थे- शास्त्रीय संगीत सीखने के लिये गले के प्राकृतिक गुण-धर्म को नष्ट करना न्यायसंगत नहीं है। आवाज मिठास युक्त और भावपूर्ण होनी चाहिये। बंगाल संगीत विध में समृद्ध रहा है, यहाँ के लोक का संगीत और शास्त्राीय संगीत का अद्भुत प्रचलन सोचने पर मजबूर करता है कि गद्य और पद्य दोनों में लयकारी है। ऐसी लयकारी जो कई सम्भावनाओं को संगीत की दृष्टि से बताता है। यहाँ राध-कृष्ण से सम्बन्धित गीतों को कीर्तन के नाम से जानते हैं और पदावलियों को दुहराते हुए गाते हैं। लोकध्ुनों की छाया भी इनमें है। बंगाल में भटियाली लोकगीत भी समृद्ध है, इसमें दीर्घ स्वरों के साथ ध्ुन गाई जाती है। बाउल संगीत के रूप में काव्य की भावप्रधन प्रस्तुति देखने को मिलती है। चटक प्रस्तुति के लिये चटका गायन भी एक शैली है। इसमें व्यंग्यवाण के साथ छेड़छाड़ भरा मनोरंजन होता है। विरह गीत के रूप में भवइया सुना जा सकता है। ऐसी ही अन्य विधएं बंगाल के लोक में हैं। जब बात पहाड़ यानी कि उत्तराखण्ड की करें तो यहाँ भी इसके लोक के अनगिनत गीत विविध् शैलियों में मिलते हैं। न्योली के रूप में दर्दभरे स्वरों का आलाप, झोड़ा-चांचरी-ढुस्का के रूप में नृत्यगीत, बैर के रूप में सवाल-जबाब का मनोरंजन, हुड़कीबौल के रूप में कृषिगीत, होली के रूप में शास्त्रीय और लोक संगीत का मिश्रण व भावप्रधन गायकी, रामलीला के रूप में गीतनाट्य शैली, सम्वाद के रूप में पांडव नृत्य, झुमौलों, बाजूबन्द, थड्या, पफाग, सगुनगीत, संस्कार गीत……और भी कितने ही प्रकार हैं। लोक बंगाल का हो, उत्तराखण्ड का हो या कहीं अन्य का, उसकी सहजता-सरलता जन्म से होती है, विकार और विकास तो उसका अगला चरण है। जब बात लोक गीतों की हो तो उनमें गेयता, व्यक्तितत्व, भावप्रवणता, रागात्मक अन्विति, आत्मद्रवणता, प्रवाहमयी शैली, भावाभिव्यंजना, प्रकृति चित्राण होता है। इसमें छन्द, लय, विम्ब, प्रतीक, अलंकार, रस का स्वाभाविक रूप से होते हैं। लोक का यह शास्त्रा ही है जो शास्त्रीयता के शास्त्र को भी दिशा देता है। लोक से उपजने वाले गीतों की सार्थकता हमेशा नवजीवन देने वाली, जन-जन में ऊर्जा संचार करने वाली रही है। रवीन्द्रनाथ जैसे विद्वान संगीत के इस पक्ष को बखूबी जानते थे। तभी उन्होंने बंगाल से पहाड़ का रुख किया होगा। प्रकृति के बीच अपनी साधना को जारी रखने का संकल्प रखने वाले रवीन्द्र का शान्तिनिकेतन रामगढ़ भी तो हो सकता है? ‘टैगोर टाप’ नाम से जिस खण्डहर को जाना जाता है, रवीन्द्र की उस धरोहर को फिर से स्थापित करने का सपना देख रही संस्था ‘हर्डस’ यदि अपनी योजना में सफल होती है तो रवीन्द्र का पहाड़ प्रेम निश्चित रूप से झलक उठेगा। यह प्रेम गीत-संगीत के रूप में ज्यादा है। गीत-संगीत ही ज्ञान-विज्ञान का सरल उपाय और ध्यान का सुगम माध्यम है। आज के परिप्रेक्ष्य में गुरुदेव का सपना सच साबित करने की जिद होनी ही चाहिये। क्योंकि यह जिद, ‘जिद’ न होकर लोक का स्वाभाविक रंग है।

पिघलता हिमालय 7 मई2018 के अंक से

श्रद्धांजलि स्व.शमशेरसिंह बिष्ट

आन्दोलन का भरोसा थे
अल्मोड़ा। जन आन्दोलनों में अग्रणीय रहे डाॅ. शमेशर सिंह बिष्ट का 22 सितम्बर 2018 की प्रातः निधन हो गया। समाजसेवी, पत्रकार के रूप में भी वह आम जन की आवाज उठाते रहे। उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी के मुखिया के रूप में वह जनता की आवाज उठाते रहे। बिष्ट जी आन्दोलनों का भरोसा थे। अपने छात्र जीवन से ही वह अन्याय के खिलाफ आन्दोलनों में जुड़े रहे। मूल रूप से खटल गाँव, स्याल्दे निवासी डाॅ.शमशेर सिंह बिष्ट का जन्म 4 फरवरी 1947 को अल्मोड़ा में हुआ। बचपन से ही मेधवी और जुझारु बिष्ट जी 1972 में अल्मोड़ा कालेज में छात्रा संघ अध्यक्ष बने। उनके आन्दोलन तरीका एकदम अलग था। जब वह छात्रा संघ चुनाव लड़े थे तब उन्होंने एक मोहर बनाई थी और दूसरे छात्र नेताओं द्वारा फैंके गये पर्चे-बिल्लों के पीछे अपनी मोहर लगाकर बांट देते। उनके सोचने और समझाने का यह तरीका हर किसी को भाता था। उत्तराखण्ड आन्दोलन सहित जल, जंगल, जीमन की बातों पर वह बेवाक लिखते व बोलते थे। पिछले दो साल से स्वास्थ्य विकार के कारण उन्हें दिक्कत थी, बावजूद वह बैठकों, सभा, आन्दोलनों में जुड़े रहे। आर्य समाज के साथ स्वामी अग्निवेश से वह बहुत प्रभावित रहे। स्वास्थ्य बहुत खराब होने के बाद उन्हें दिल्ली अस्पताल में भर्ती करवाया गया था। वह इलाज करवाकर अल्मोड़ा आ गये और दवाईयों खाने के अलावा स्वध्याय में लगे रहे। किताबों के दोस्त और समझ रखने वाले डाॅ.शमशेर की कल्पना थी- ‘किताब घर’। तभी उनके प्रतिष्ठान का नाम किताबघर रखा गया। जिसमें स्तरीय पुस्तकों का खजाना है।
स्व.बिष्ट जी व उनके परिवार का पिघलता हिमालय परिवार से गहरा रिश्ता है। वह हर सुख-दुःख में शामिल होते रहे हैं। बिष्ट जी के पत्नी श्रीमती बिष्ट अध्यापिका रही हैं। उनके सुपुत्रा अयजमित्र व जयमित्र जानेमाने फोटोग्राफर, ट्रैकर व समाजसेवी हैं। स्व.बिष्ट अपने पीछे ईष्ट-मित्र-भरापूरा परिवार छोड़ गये हैं। पिघलता हिमालय परिवार उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

वह सपने नहीं सच्चाई को जीती थी…..

डाॅ.पंकज उप्रेती
‘‘संग्राम जिन्दगी है, लड़ना इसे पड़ेगा…..।’’ इस प्रकार के गीतों को गुनगुनाने वाली हमारी ईजा अब सिर्फ याद आती रहेगी। वह सपने नहीं सच्चाई को जीती थी। बीमारी, अस्पताल, मौत तो उसके निकट थे लेकिन अचानक वह चल देगी ऐसा पता नहीं था।
मुझे याद है पिता के साथ घोर संघर्षों में साथ देने वाली माता ने कितनी परीक्षाएं मौत के लिये दी। अपनी 66 साल का आयु में उन्होंने सौ प्रतिशत संघर्ष किया जिसमें मौत से संघर्ष भी था। बचपन में हम तीन भाई बहन ;पंकज, ध्ीरज, मीनाक्षी सोचते माँ कब ठीक होगी, उसे भवाली सेनेटोरियम में भर्ती करवाना पड़ा। ईजा की बीमारी के समय दैनिक पिघलता हिमालय को बन्द करना पड़ा था। पहाड़ टूट पड़ा था। मुनस्यारी में दुर्गा चाचा ;दुर्गा सिंह मर्तोलिया अपने जीवन संग्राम में बुरी तरह टूट चुके थे। थके-हारे पिता आनन्द बल्लभ ने छापाखाना ‘शक्ति प्रेस’ को बिकाउ होने का विज्ञापन दे डाला था। लेकिन नहीं, परमात्मा को यह मंजूर नहीं था। ईश्वर को हमारा लड़ना ही पसन्द है। पूरा परिवार छिन्न-भिन्न हो गया। 6 साल का मैं और 4 साल का भाई ध्ीरज गाँव गंगोलीहाट चले गये। छोटी बहन को नैनीहाल रानीखेत भेज दिया गया। माँ अस्पताल और पिता हल्द्वानी में। संघर्षों के उन सालों में जितने टोने-टोटके, पूजा-पाठ हो सकते थे सब किये पिता ने। ताकि हमारा परिवार बन सके। दो साल के अन्तराल में बिखरा हुआ पूरा परिवार एक हो गया लेकिन कुछ समय बाद ईजा फिर से बीमार हो गई। हम तीनों बच्चे रोते थे। पिफर से दो साल तक घोर संग्राम। पिता भी परेशान थे लेकिन ‘शक्ति प्रेस’ हमारी धुरी था। ‘उप्रेती ज्यू’ को मानने वाले, उनकी ईमानदारी को पहचानने वालों की कमी नहीं रही। ईजा ठीक होकर घर आ गई लेकिन बीमारियों ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। पिघलता हिमालय को पिता ने फिर से जीवन दिया और टेªेडिल मशीन के जमाने की मशीनों पर जूझते रहे। खून में व्यापार तो था नहीं, हाँ उनकी कलम की ताकत और ईमानदारी ने परिवार को सम्मान के पद पर खड़ा रखा। बीमारियों और संघर्षों ने हम बच्चों को भी बहुत कुछ सिखाया। हमें सिखाया की दुर्दिन कैसे होते हैं, दुनिया के मेले में कितने प्रकार के चेहरे होते हैं, अपना पराया क्या होता है………..।
मुपफलिसी में दवाईयों तक को पैसे नहीं होते थे लेकिन अखबार निकालना प्रतिब(ता थी। संकल्प ले रखा था इसे चलाने का। ईश्वर कभी कोई दूत भेज देता और उम्मीदें जग जाती। एक दिन हल्द्वानी बेस अस्पताल में ईजा को बाहर रख दिया गया और डाक्टरों ने कह दिया था कि भगवान ही बचा सकता है। हम बच्चे रात्रि में रोते हुए यह कहकर नींद की गोद चले गये- ‘‘हे भगवान! हमारी मम्मी को ठीक कर देना।’’ अगले दिन पता चला कि ईजा ठीक हो गई है। पिता जी अपने कुछ साथियों के साथ रातभर अस्पताल में मौत से जूझ रही ईजा के पास थे। अस्पताल में जाने से पहले मुंह का ग्रास तक छोड़कर जाना पड़ा था उन्हें। उस दिन मेरा जनमबार था और पिता ने तय किया था बहुत दिनों बाद आज ढंग से खाना खायेंगे। उन्होंने खाना पकाया और हम लोग खाना खाने बैठे ही थे कि हमारे पड़ौसी लाला दाउ दयाल जी बताने आ गये कि अस्पताल में चलो, हालत खराब है।
अस्पताल में बहुत समय अकेले ही काटा है ईजा ने। वह हिम्मती थी तभी इतने साल तक उसका शरीर बचा रहा। बीमारियों से लड़ते-लड़ते वह थकी नहीं बल्कि परेशान इसलिये थी कि उनका परिवार परेशान है। वह कहती थी- ‘‘मैं एमबीबीएस हो चुकी हँू। बीमारियों के कारण सारी दवाईयों के नाम और बीमारियों के बारे में जान चुकी हँू।’’ कई बार मरते मरते बची ईजा बताती थी- ‘‘यमराज के वहाँ आधे रास्ते से लौट कर आई हँू।’’ संघर्षों के इन घोर दिनों को कई जगह किराये के मकान में हमने काटा। इसके अलावा ‘शक्ति प्रेस’ तो हमारा केन्द्र ही रहा। इस पुराने मकान में छापाखान, आन्दोलनकारियों की बैठकें, प्रेस वार्ता, जुलूस-आन्दोलन वालों की भीड़, बच्चों की पढ़ाई और संगीत सबकुछ एकसाथ चलता रहता था। ईजा का शरीर रोग से घिर चुका था लेकिन उसने संघर्ष नहीं छोड़ा। अपनी और अपने परिवार की परेशानियों के बावजूद वह पिता जी के साथ बराबर की हिस्सेदार थी। बैठकों में भाग लेना, अखबार की तैयारी, आने-जाने वालों का तांता सबकुछ मेला सा लगा रहता था। इतना ही नहीं, गंगोलीहाट इलाके के सभी लोगों का अड्डा उस जमाने में हमारा शक्ति प्रेस था। अब तो होटलों में रहने की परम्परा हो चुकी है और फैलते हल्द्वानी में कई लोगों के परिवार-रिश्तेदार हो चुके हैं। मुनस्यारी-धरचूला के कौने-कौने से आने वाले ‘पिघलता हिमालय’ परिवार के सदस्यों को ईजा अच्छी तरह पहचानती थी। घर में रोटी की समस्या बनी रहती लेकिन ईजा-बाबू के लिये आन्दोलन और अखबार जरूरी था। हल्द्वानी के कालाढूंगी रोड में घनी आबादी के बीच प्राइवेट बस अड्डे को हटाने के आन्दोलन में ईजा ने कई बसों के सीसे तोड़ डाले। हम बच्चे भी पत्थर मारकर बस के सीसे तोड़ने को खेल मानकर तोड़ डालते। दरअसल उस समय कई खूंखार लोग अड्डे से जुड़ चुके थे और वह बस अड्डे को वहीं रखना चाहते थे जहाँ पर हमारा छापाखाना था। उन्होंने लोभ भी दिया कि टिकट बुक आपके छापेखाने में ही छपवायेंगे। हल्द्वानी थाने के सीओ पुष्कर सिंह सैलाल जो बाद में एसपी के पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। ईजा को समझाने आते थे- ‘भाभी जी बस अड्डा हट जायेगा, इनके सीसे मत तोड़ना।’ हल्द्वानी में होने वाले उत्तरायणी मेले का संचालन ही हमारे ‘शक्ति प्रेस’ से हुआ करता था। बीमार ईजा ने मेले के झण्डे तक सिले थे। पर्वतीय सांस्कृतिक उत्थान मंच के उस दौर के प्रबुद्धजनों की बैठक वहाँ हुआ करती थी। लोक चेतना मंच से जुड़कर ईजा ने कई जगह प्रतिभाग किया। सीखने की इच्छा में ईजा ने ट्राइसेम योजना के तहत पीपुल्स कालेज में सार्टहैंड भी सीखा। गायत्री परिवार के अभियान में जुड़कर उन्हें सहयोग किया। ईजा को राजनैतिक पार्टियों की ओर से लगातार पार्टी में शामिल होने के निमंत्राण मिलते रहे लेकिन वह कभी किसी से नहीं जुड़ी। समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने लखनउ में ईजा को पार्टी से जुड़ने का निवेदन किया लेकिन वह टाल गई। कठोर संघर्षों के बाद एक दिन हमारा छोटा सा घोंसला बना और सारा परिवार एकजुट हो गया। जैसे-तैसे हम भाई-बहिन ने भी अपनी स्कूली शिक्षा पूरी कर ली। बीच-बीच में बीमारी का सफर भी चलता रहता। सन् 2004 में हल्द्वानी में हमने अपना एक आशियाना बना लिया था- जे.के.पुरम् छोटी मुखानी हल्द्वानी में। इस छोटे से मकान में अपनी नई-पुरानी यादों के साथ पड़ाव डाल दिया। सालों साल की परेशानी के बाद पटरी में आते परिवार को झटका लगा लगा जब बाबू आनन्द बल्लभ जी 22 पफरवरी 2013 को अचानक चल दिये। उनके निधन के 6 माह में ईजा को फालिश/लकवा पड़ गया। अस्पतालों के चक्कर लगाने के बाद ईजा अपने पैरों में खड़ी कर दी गई लेकिन पहले से ही कमजोर शरीर के कारण वह अस्पताल-दवाईयों से बधी रही। इतने के बाद भी ईजा तो ईजा थी। उसकी उपस्थिति हमारे लिये सबकुछ था। 15 सितम्बर 2018 को प्रातः उसने प्राण त्याग दिये। उसे अहसास हो गया था अपने जाना का। सच्चाई की यह कहानी बहुत लम्बी है, फिर कभी……

मोहन उप्रेती के बाद नईमा सींचती रही पर्वतीय कला केन्द्र

डाॅ.पंकज उप्रेती
लोक कलाकार नईमाखान उप्रेती का 15 जून 2018 की प्रातः दिल्ली उनके आवास में निधन हो गया। वह पिछले दो साल से अस्वस्थ्य चल रही थीं। निधन के बाद शरीर दान होने के कारण उनके शव को चिकित्सा शोध् केन्द्र को दे दिया गया। बाद में उनके परिजनों ने शान्ति पाठ करवाते हुए श्रद्धांजलि दी।

‘मोहन उप्रेती-नईमा खान’ चर्चित जोड़ी रही है। लोक कलाकार संघ के साथ ही पर्वतीय लोक ध्ुनों को विश्व स्तर पर स्थापित करने वाले मोहन दा और नईमा की पहचान अल्मोड़ा में हुई थी। 70 के दसक में जब नृत्य सम्राट पं. उदयशंकर अल्मोड़ा प्रवास में थे, नईमा को अवसर मिला कि वह पंडित जी से संगीत के बारीकियां सीखे। नृत्य-गीत- नाट्य की तालीम के साथ ही मोहन उप्रेती के साथ इनकी निकटता अल्मोड़ा शहर को खटकने लगी थी लेकिन यह संयोग तय हो चुका था। लोक कलाकार संघ के बैनर तले स्थानीय कलाकारों को एकजुट कर मोहन उप्रेती ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई थी। उनकी खुशी- उनका आक्रोश गीत- संगीत के माध्यम से ही कोरस के रूप में सुनाई देता था। शास्त्राीय संगीत की जानकारी होने के बावजूद उन्होंने लोक संगीत को चुना और उनके किये गये प्रयोग आज तक मंचों पर प्रचलित हैं। अल्मोड़ा निवासी नईमा खान के साथ मोहन दा की नजदीकियां बढ़ीं लेकिन घर व समाज के अखरते हुए दिनों में इन्होंने अपने रियाज  पर ही ध्यान दिया। बाद में इन दोनों ने अपने जीवन के उत्तरार्द्ध मेंविवाह कर लिया।

युवा मोहन उप्रेती ने हुड़के थाप पर जिन प्रकार मंचीय प्रस्तुतियों को जीवंत किया था, उतनी की बारीकी से नईमा ने अपने नृत्य-गीत से दर्शकों में सम्मोहन सा कर दिया था।

मोहन उप्रेती, नईमा खान जब दिल्ली में स्थापित हो चुके थे। उस समय नाटककार लेनिन पन्त भी इनके साथ दिल्ली में थे। गीत-संगीत-नाटक के अद्भुत प्रयोग इनके द्वारा कर दिये गये। मोहन उप्रेती राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में ड्रामेटिक म्यूजिक के प्रोपफेसर थे तब उन्होंने पर्वतीय कला-नाटक-संगीत को प्रोत्साहन देने के लिये पर्वतीय कला केन्द्र की स्थापना की। इस केन्द्र के नाम से मोहन-नईमा ने जो हलचल की, वह सांस्कृतिक गढ़ के रूप में स्थापित हो गये। मोहन दा के निर्देशन में पर्वतीय लोक कला के अद्भुत प्रदर्शन व्यापक रूप से होने लगे। पचास महत्वपूर्ण नाटक 15 दूरदर्शन नाटक और सीरियल में इस केन्द्र ने योगदान दिया। 22 विदेशी मुल्कों में इस केन्द्र ने धाक जमाई। इसमें कालीदार रचित ‘मेघदूत’ नृत्य नाटिका बेहद लोकप्रिय हुई। पर्वतीय कला केन्द्र द्वारा प्रदर्शित अमीर खुसरो तथा संगीत नाटक ‘इन्द्र सभा’ भी लोकप्रिय रहे हैं। पहाड़ की लोकगाथाओं को नाटक के रूप में मंच पर लाने का ऐतिहासिक कार्य भी इनके द्वारा किया गया। इनमें ‘गोरिया’, ‘राजुला मालूशाही’ मुख्य हैं। ‘बेडू पाको बारहमासा’ को आध्ुनिक स्वरूप व संगीत-स्वर देकर अन्तर्राष्ट्रीय पहचान बनाई। पं.जवाहर लाल नेहरु मोहन दा को प्यार से ‘बेडू पाको ब्वाय’ कहत थे। 5 जून 1997 को उनके निध्न के बाद श्रीमती नईमा ने पर्वतीय कला केन्द्र को सींचा। स्व.मोहन दा की यादों में वह निरन्तर कार्यक्रमों का संचालन करती रहीं। मोहन दा के भाई प्रो.ध्ीरेन्द्र उप्रेती हल्द्वानी में अपनी गृहस्थी में थे, एक दिन वह भी चल दिये। मोहन उप्रेती के छोटे भाई पखावज वादक भगवत उप्रेती ने पर्वतीय कला केन्द्र के कार्य को आगे बढ़ाने में सहयोग किया। भगवत जी का निध्न होने के बाद नईमा खान पिफर भी अकेले हिम्मत जुटाती रहीं। लेकिन उम्र के साथ-साथ वह हार चुकी थीं और पिछले दो सालों से अस्वस्थ होने के कारण घर में ही थीं। उनकी सेवा के लिये एक नर्स को रखा गया था और उनके निकटस्थ लोग सुध्बुध् लेते रहे। इस बीच वह हम सबसे विदा हो चुकी हैं। परिवार में स्व.ध्ीरेन्द्र उप्रेती के सुपुत्रा डाॅ.मनोज उप्रेती, स्व.भगतव उप्रेती की विववाहित पुत्रियां दीक्षा व दिव्या सहित अन्य लोगों ने जुटकर अपनी ताई का स्मरण और संस्कार किये। रंगकर्म से जुड़े लोगों ने भी नईमा जी के निधन पर शोक जताया है। मोहन दा के भांजे हिमांशु जो की गीत-संगीत की बेहतरीन पकड़ रखते हैं, से उम्मीद की जा रही है कि वह इन मोहन-नईमा की विरासत को विस्तार देंगे।

उल्लेखनीय है कि मोहन उप्रेती मूल रूप से कुंजनपुर, गंगोलीहाट के निवासी थे। इनके दादा अपनी अल्मोड़ा रानीधारा आकर बस चुके थे। मोहन उप्रेती, ध्ीरेन्द्र उप्रेती, भगतव उप्रेती का बचपन अल्मोड़ा में बीता। नईमा खान का परिवार अल्मोड़ा के संभ्रात परिवारों में रहा है। संगीत कला जगत में मोहन उप्रेती और नईमा की पहचान उन्हें करीब लाई परन्तु अपने-अपने घरों की मर्यादा को रखते हुए दोनों ने दूरी रखी। घर के बूढ़े-बुजुर्गों के निधन के पश्चात जीवन  के उत्तराद्र्ध में एक दूजे के हो लिये। पर्वतीय कलाकार केन्द्र के रूप में अपने लोक से जुड़ी एवं यहाँ के गीत-संगीत को संजोने वाली नईमा खान उप्रेती के निधन पर पिघलता हिमालय परिवार श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

पिघलता हिमालय प्रतिनिधि
अल्मोड़ा। लोककला की वाहक जानीमानी रंगकर्मी नईमा खान उप्रेती के निधन के बाद से उनसे जुड़ी हर स्मृतियाँ का स्मरण करते हुए लोगों ने श्रद्धांजलि अर्पित की है। 15 जून को मयूर विहार फेस 2 के उनके किराए के घर में लम्बी बीमारी के बाद 80 वर्षीय नईमा का निधन हो गया था। उनके शरीर को करारनामे के अनुसार आयुर्विज्ञान संस्थान;एम्सद्ध को दे दिया गया। स्व.नईमा और स्व.मोहन उप्रेती के साथ बीते बचपन का स्मरण करते हुए अल्मोड़ा के वरिष्ठ होल्यार चन्द्रशेखर पाण्डे कहते हैं कि वह दोनों अद्भुत प्रतिभासम्पन्न थे और लोकसंगीत के लिये उन्होंने जबर्दस्त कार्य करते हुए विदेशों में तक हमारे पहाड़ को पहचान दिलवाई।
अल्मोड़ा के रंगकर्मियों ने नईमा जी के निधन पर शोक प्रकट करते हुए श्रद्धांजलि दी। हल्द्वानी में हिमालय संगीत शोध् ने स्व.नईमा को पहाड़ की लोक संस्कृति के लिये प्रतिबद्ध कलाकार बताते हुए श्रद्धांजलि दी।

पिघलता हिमालय 25 जून 2018 के अंक से

पुस्तक समीक्षा: ईथर से कागज पर

डाॅ.प्रयाग जोशी

मैं, कम्प्यूटर, स्मार्टपफोन, इण्टरनेट आदि पर निकलने वाले पोर्टलों की करिस्माई तकनीकों के सहारे चलने वाली साहित्यिक गतिविधियों से निरक्षर आदमी के जितना अनजान हँू। इधर संयोग से ही चन्द्रशेखर जोशी की किताब ‘धरती के चुभते सवाल’ हाथ आ गई जो पफेसबुक के एप पर प्रकाशित हुए एक सौ पचास ब्लागों के कण्टेण्ट को लेकर पुस्तकाकार छपी है।
एक ब्लाग एक पृष्ठ में है तो एक सौ पचास ब्लाग भी उतनी ही गिनती के पृष्ठों में आ गए हैं। मुद्रण की इस सुविचारिता से, किसी भी एक ब्लाग को पढ़ने के लिए, अगले पृष्ठ में जाने या पृष्ठ को पलटने की जरूरत नहीं होती। एक पेज पर एक विषयवस्तु पूरी खत्म हुई और दूसरे में नयी चीज पढ़ने को मिलती जाती है। एकरसता के लिए उसमें कोई ठौर नहीं हैं अखबार का जैसा, बिना आयास के पढ़ते जाने का तारतम्य उत्सुकता बढ़ाता जाता है कि देखें अगले पेज में क्या लिखा है? जितने पेज पढ़ने का मन हो, पफुर्सत से पढ़ो और रखते जाओ। हर रोज, हर बैठक में पाठक नयी-नयी सम-सामयिक सोच विचार की चीजंे पढ़ता जाता है। विविध् वण्र्य-वस्तु की यह किताब नाना प्रकार के स्रोतों से जुटाई गई और मौलिक अंदाज में प्रस्तुत की गई ज्ञातव्य जानकारियों से सजी हुई है। ज्ञान का ‘बखार’ नहीं है इसमें। पाठक को ज्ञान के उजाले में लाने की कोशिश है। जीवन और जगत की तात्कालिकता में अनुभव की गई बेचैनियों से निःसृत हुई यह प्रेरणा प्रशंसनीय है।
अधसधे हाथों की लिखाई से, स्कूली विद्यार्थियों की कापियों में छोटे निबन्ध्/ लेखों की तरह, अधिक से अधिक तीन-चार पृष्ठों में प्रश्नों का उत्तर लिखकर परीक्षा देने वालों का भी एक जमाना हुआ करता था। मैं उसी जमाने की अनुश्रुति में इस किताब को देखता और पढ़ता भी गया। कमजोर आँचाों में होने वाली किरकिरी और जलन के बावजूद किताब पढ़ने की उत्सुकता थमी नहीं। उसकी वजह विषयों को लिखने के लिए बरती गई सूझ, सोचने की निजता और भाषा की सतर्कता और सरलपन लगी। पढ़ने के लिए रखे अखबार और पत्रिकाओं की तरह किताब मेज में पड़ी रही। जो ब्लाग पढ़ लिया उसमें निशान बनाकर रखता गया। समय-साक्ष्य ‘वर्तमान’ था। विषयों की तरतीबें और संयोजन मनोनुकूल लगते गए तो मजे से बीस दिन में आद्योपांत पढ़ लेने के बाद, एक अच्छी और नयी शैली में लिखी हुई सर्वतोभद्र नालेज की किताब पर प्रतिक्रिया लिखे बगैर रह न सका।
किताब में, उत्तराखण्ड से सन्दर्भित सबसे ज्यादे तेरह ब्लागों में लेखक की स्व चेतना, सामाजिक संचेतना और मानवीय सम्वेदनशीलता की झलक मिली। लेखक ने अपनी ध्रती की खासियतें सुर्खियों में रखीं। क्षमताओं को समझा और विडम्बनाओं को रेखांकित किया है। ‘उत्तराखण्ड मंे जहाँ सुविधएं न होने और पहाड़ छोड़ने की मानसिकता अपफसरों के लिए कस्तूरी बनी हुई है तो वहीं, वहाँ के अपेक्षाकृत सम्हले हुए मौरुसी लोगों के महा-पलायन को थामने को कोई समाधन किसी के पास नहीं है।’ अपने लोगों का, अपने लोगों के लिए और अपने भूगोल की खातिर बना बना उत्तराखण्ड ‘रैबार खत्म दीदा करव जाणा छा?’ से शुरु होता है। उसके उत्तर की भद, गिर्दा  की, सिर्फ एक पंक्ति की कविता-भाषा की लाक्षणिकता मं है कि ‘खेल तुम्हारा तुम्हीं खिलाड़ी’।
अपने बड़बोलेपन से रौशनदार शीर्षकों से ही नहीं अपितु एक-एक वस्तुगत यथार्थ का सार्वभौमिक व सार्वजनिक परिचय कराते जाते ब्लाग हैं- ‘सॅवर जाये तो जन्नत से कम नहीं उत्तराखण्ड’, ‘प्रेम की दुनियाँ उत्तराखण्ड’, ‘वीरों की ध्रती उत्तराखण्ड’, ‘डब डब आँखें उत्तराखण्ड’, पर क्या करते हो कह कर? विडम्बनाआंे ने पेच ऐसे पफॅसा रखे हैं कि ‘खनन, ठेकेदारी और भ्रष्टाचार से उपजे ध्न से बलवान बने नेता और सत्ता के दाॅवों से बाजी मारने के अभ्यासी अफसर कुछ ही समय में यहाँ बदमाश का रूप ध्र लेते हैं।’ नशे का व्यापार और दबंगई कार्य-संस्कृति का ऐसा अंग हो जाती है कि ‘लोकोपकारी’ कहा जाने वाला सबकुछ, वांछित अपेक्षाओं से एकदम उलट चले जाता है। लेखक के पास लिखने को बचा रह जाता है तो यही कि ‘लाचार जवानी उत्तराखण्ड’, ‘चोखे धन्धे उत्तराखण्ड’, ‘इस धरती पर गहरे जख्म उत्तराखण्ड’। आइरनी यह है कि यह सब धन के प्रवाह में तेजी से हो रहा है। नव-धनिक और हुकूमत इस प्रवाह की धर को तेज करते हैं। इसका अंदाज ‘शादियों और सेल्फियों पर लिखे गए ब्लागों से होता है।’ उच्च तकनीक के उपयोग का विरोध् ठीक वैसे ही नहीं किया जा सकता जैसे कि शराब का, लेकिन ये दोनांे चीजें यदि कम अक्ल और कम उम्र के बच्चों की पहँुच में चली जाऐं तो बर्बादी तय है। सस्ते और अच्छे मोबाइल फोन और उस पर भी सस्ते इण्टनेट वाउचरों ने युवा पीढ़ी को अपनी गिरफ्रत में ले लिया है।’
यहाँ, ‘खुशियों और मेल-मिलाप के विस्तार के सामूहिक भावना से शुरु हुए मेलों और संस्कार समारोहों में बाजार का इरादा घुसा तो बेचने और कमाने की नीयत में सब कुछ बिगड़ता चला गया है। देखने को बच गया केवल ‘हुड़दंग’। लेखक का जिम्मेदार और समझबूझ भरा मशवरा है कि ‘शादियों के सम्बन्धें को जीवन्त, उल्लासपूर्ण और बहुआयामी बनाने में कोलाहल व लेन-देन का कोई महत्त्व नहीं है। यह एक मजबूरी की रश्म भी नहीं। यह जीवन का महत्वपूर्ण पल हैं इसे महत्वपूर्ण बनाने के लिए लालच, ढोंग व पाखण्ड की जरूरत नहीं होती’ परन्तु कौन सुन रहा? ‘सड़कों पर उतरी सिरफिरों की टोली’, ‘इस सुहानी डगर में सौ खतरे’, ‘गिरने का सीजन’, ‘मेरी बच्ची अब शादी के बाद तेरा हर कदम’ आदि ब्लागों को सामाजिक चलों की वर्णनात्मकता में नहीं अपितु हमारे सीध्े सादे और सरल रिवाजों में हाबी होते सम्बन्नता की विकृतियों के रूप में लेना होगा।
‘कैसा चलन हो गया है कि ठण्ड कितनी ही हो, कुछ महिलाएं स्वेटर तक नहीं पहन देतीं। दुल्हन को ऐसे बना देते हैं कि जैसे प्लैैस्टिक की गुड़िया। कार्यक्रम में, एक-दो आदमियों को रजिस्टर थमाकर कुर्सी पर ऐसे बिठा दिया जाता है मानो मण्डी में आड़ती के मुंशी।’
विविध् जातियों के, अलग-अलग वर्गों के असल और कम असल आयोजनों की शादियाँ होती रहती हैं पर ‘दिलदारों की शादी ओ हो’ क्या कहने। ‘रहम है कि ‘आज मेेरे यार की शादी है’ गीत को बैंड मास्टर पूरा नहीं गाते। ‘आदमी सड़क का’ पिफल्म के उस गीत में रपफी साहब ने आगे गाया था- ‘आज तू हमें नचाए, वक्त वो आने वाला ओ हो दुल्हनियाँ तुझे नचाए’।
लग्न, मुहूर्त और कर्मकाण्ड की शास्त्राीय जो अभी हाल-हाल के वर्षों तक जीवन के सबसे सुन्दर रिश्ते का केन्द्र बिन्दु हुआ करता था, इस कदर आडम्बरों से घिर गया है कि अब उसकी याद आते ही हर व्यक्ति तनाव में आ जाता है। लड़के-लड़कियों की बेडौल ऐठती कमरें, बेवजह आसमान में झूलते हुए हाथ और लात मारते पैरों को ये लोग डांस कहते हैं। ये डांस सड़कों पर होते हैं। शादियों का सबसे बड़ा किरदान पफोटोग्रापफर होता हैं पफोटोओं की अल्बम, विवाह के बड़े खर्च की मदों में से एक होती है। संगीत का सत्यानाश पिटी इन अल्बमों को कोई नहीं देखता फिर भी इनको घरों में रखे रहने का रिबाज हो गया है।’
उपर्युक्त सामाजिक नव-चलनों के बहुत गम्भीर सांस्कृतिक अर्थ हैं। लेखक सभी के घोड़ों को एक चाबुक से नहीं हांकता। किसी वर्ग, वर्ण या जाति के प्रति उसके मन में कोई पूर्वाग्रह, दुराग्रह नहीं है। वह निष्पक्ष हो, चलन, शगल, पिफतरत और फैशन के नाम पर पफैलाई जाती धन की की बदौलतो को देखता है। जहाँ उंगली उठानी हो, तर्जनी से वरजता है। उसकी मंशा के विपरीत मौजियों को भी वह भांपता है। रसूखदारों की मानसिकताओं की भद्दी नकल करने वाले जलसों पर भी उसकी नज़र है परन्तु भाषाई तिक्तता उसमें नहीं मिलती। समझदारों और कुछ नया करने के सम्भावनाशीलों से अपेक्षा भी कम नहीं हैं परन्तु उसका कोई एनजीओ नहीं है। चुटकियाँ, नख-क्षत, व्यंग्य और पफब्तियों के कुछ नमूने हैं-
‘दिनकर की लड़की एम.एस.सी. पास है। शादी के मामले में उसका मन अभी भी ‘पंछि बनूं उड़ति पिफरूँ’ में ही तरंगित हैं सक्सेना जी का लड़का हैसियत से 25 लाख का है। जोशी जी के लड़के की शादी बिना दहेज की हुई। बलबीर ने तीन वर्ष पहले बड़े बेटे की शादी की तो सवर्णों के लिए अलग से भोजन का इंतजाम करवाया था। छोटे लड़के की शादी का नम्बर आया तो बोले थे ‘जीवन भर अपमान करने वालों को खुशी में शामिल नहीं किया जाएगा। वर्मा जी ने सापफ कह किदया कि शादी कर रहा हँू पर एक रुपये का भी दहेज नहीं लिया जाएगा। एक शादी और हुई। लड़की एम.एस.सी. पास थी। लड़का सरकारी स्कूल में शिक्षक था। लड़के वाले सुबह एक स्टील का परात लेकर गए।’
फिजूल-फिजूल ही बखत-बखत सेल्पफी लेने के चलन पर शिक्षा-विभाग को निशाना बनाती सरकारी मशीनरी पर चुटकी अकारण नहीं है। विद्यार्थियों की तरफ से गुजारिश हुई है, ‘भेजो मास्साब सेल्फी भेजो। हाजरी के समय ही नहीं हर पीरियड की सेल्पफी केदारनाथ धम की तरह भेजना। हिन्दी के पीरियड पर वेष हिमाचल का सा बनाना। उर्दू के पीरियड की पफोटो उलेमाओं से मुलाकात जैसी होनी चाहिए। अंग्रेजी पढ़ाने की सेल्पफी हमेशा बदली-बदली भेजना। जिस विषय में शिक्षक न हो तो अध्किारी के पास की सेल्पफी दिखा देना। आपकी उंगली लगता है, सही-सही काम कर रही है, इसलिए जल्द आपका पूरा शरीर नेट पर लिंक किया जाएगा। इसके बाद आप आदर्श शिक्षक बन जाओगे।’
मजाक की ससब बनती सरकारी योजनाओं में ‘महेशराम की कागजी मशरूम’ भी एक ब्लाग है। उससे शुरु होकर, बीमार आदमी की चारपाई पर लकड़ी बाँध् कर अस्पताल ले जाने के लिए नदी पार कर रहे ग्रामीणों के पफोटो के साथ छपा ‘हम जीते हैं अपने दम पर सरकार की यहाँ जुर्रत नहीं’ के रोष भरे शब्दों को ‘बाक्स बंद’ करके ‘कब तक सितम सह लें: तड़प लें या रो लें’ तक और उसके बाद भी कई ब्लाग हैं। एक में, अपन ओवर टाइम में पोस्टमार्टम का अतिरिक्त काम करके घर लौटा सपफाई कर्मचारी सोनपाल है। वह अपने सत्राह वर्ष के लड़के को, सड़क में सापफ करने को बची पड़ी ढेरियों को उठाने के लिए काम पर जाने को विवश कर रहा है’, ‘पनीराम के घर नेता आए’, ‘भल्लू की दो किलो मंूगपफली’, आदि की सीरीज के सभी ब्लाग हमारे-आपके सभी के आँखों देखे शब्द-चित्रा हैं। जिनके विषय में ये व्यक्त किये गए हैं उन उन तबकों तक पहँुचने वाली हमारी सरकार की इमदादों की परिणति दिखाती हैं ‘रुलाते रहेंगे बैंक में’। इनमें मैंहदी, भानु और कितने ही ट्टण लेने वालों के हश्र की दास्तानें हैं। कथारस से पूर्ण। इनको पढ़ने से, लेखक की, बद किस्मती, घटना- दुर्घटनाओं, विडम्बनाओं और पचड़ों का लेखक की कहस की क्षमता का पता चलता है। मन मारकर ही उसने छोटे से भी छोटे में अपने कथनों को सीमित किया है।
‘सुन्दरराम का बेटा जम्मू मेमं शहीद हो गया। दीवान सिंह की पत्नी विमला पत्ते काटने भीमल के पेड़ पर चढ़ी, गिर गई। इलाज कराने बड़े अस्पताल के आई.सी.यू. में पाँच दिन रही। खर्च तो खूब किया पर वह मर गई। तेरहवीं भी नहीं हुई थी कि रात में गुलदार गोठ में घुसकर उसकी दोनों बकरियों को खा गया। इन सब घटनाओं के इतिवृत्त कहानियों जैसे हैं पढ़ने में।
उत्तराखण्ड पर कहने के लिए लेखक के पास जितना है उससे कम देश और दुनियाँ पर नहीं है। भीड़, सड़कों के पचड़े, शोर, गन्दगी, मार्ट-माॅल बाजार, खरीददारी, बाजारों के चलन, उनका कार्पोटीकरण, देसी आदतों के लोगों की आदतें, जनपद जनों की पुराने जमाने की दिलेर मेहमानबाजी, वैश्विक घटनाऐं, सब अपनी जगह हैं। उन पर लेखक के अबोझिल विचार हैं। ‘यूं जंगल पर भली विजय’, ‘नमकचोरी’ और ‘चमचमाती ध्रती’ लेख पूर्वोत्तर के अपने देश के राज्यों पर हैं तो ‘महान कहलाये जाखा’ अण्डमान-नीकोबार के मूल निवासियों पर हैं।
‘सोच में विज्ञान न हो तो जान को खतरा’ ब्लाग भले ही एक ही पेटी में भरी हुई अलग-अलग कम्पनियों की दवाओं की तस्दीग लेने के लिए की गई मस्ती से शुरु होता हो उसकी जद में ‘वट्सएप’ और ‘फेसबुक’ जैसे निरंकारी चलक भी है। पागल कुत्तों के काटने से संक्रमित होने वाले ‘वायरस’ की बाते तो हैं ही, शैलानी, होटल-मालिक, दलाल, मापिफया और लपफंगे भ्ीा समाज और संस्कृति के तानों-बानों में घुसे ‘वायरस’ ही हैं। वैज्ञानिक सोच को रेखांकित करने वाले लेखों के क्रम में, ‘बोस हाकिन्स में गहरा नाता’, ‘हाकिन्स का जाना इस युग की दुःखद घटना’, ‘याद रहेंगे गैलीलियो’ख् ‘आइन्स्टीन हमेशा जिन्दा रहेंगे’ जैसे विषय शीर्षकों से लिखे गए ब्लाग हैं। इन सब में काॅस्मोलाॅजी विषय पर संक्षिप्त पर प्रमाणिक टीपें, उसके अध्ययन के विकास की ऐतिहासिक जानकारी और उसकी सूचना देने वाली खोजों की किताबों की भू सूचनाएं हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगे उम्मीदवारों के लिए उपयोगी सामग्री है इनमें।
मनोवृत्ति, भावना और संवेगों की परतों को पहचानने की दृष्टि से लेखक ने एक विशिष्ट किस्म का ब्लाग लिखा है ‘गुस्सा’। इसमें अनुभव, विचार, अध्ययन और तजुर्बे से प्रत्यक्ष हुए यथार्थ का अच्छा विमर्ष है। झूठ और लालच, झूठ और दगाबाजी, गुस्सा और हिंसा, खुशी और गुस्सा, हिंसा और नपफरत आदि- आदि संवेगों के मनोविज्ञान की गहराई में जाने की यह कोशिश वस्तुनिष्ठ विषयों की तुलना में विषयीगत विश्लेषण की है। लेखक का प्रतिपादन है, ‘नपफरतों का न्यूनतम रूप मन मुटाव और उच्चतम रूप आतंक तक पहँुच जाता है। महबूब के चेहरे पर प्रेम के गुस्से के भाव, बच्चों के माँ-बाप का लाड़ से भरा वो चेहरा और बुराई के खिलापफ उमड़ा गुस्से का सैलाब सभी मानव जीवन के लिए सुखद है।’ ढाई सौ रुपये दाम की यह किताब पढ़ने लायक है।
चन्द्रावती कालोनी,
छोटी मुखानी, हल्द्वानी

उत्तराखण्ड की उच्चशिक्षा में प्रयोग

पिघलता हिमलाय प्रतिनिधि
मान्यता है कि यदि समाज को बदलना है तो शिक्षा में बदलाव करना होगा। राज करने के लिये भी शिक्षा का ढर्रा राजा के अपने अनुकूल होना जरूरी होता है। लगता है इन्हीं सिद्धान्तों को लेकर उत्तराखण्ड की सरकार चल रही है। शिक्षा व्यवस्था की पूरी मशीनरी को प्राइमरी से लेकर उच्चशिक्षा तक हिला दिया गया है। ऐसे में कुछ बातें राज की हैं और कुछ नाराजी की भी। शिक्षा मंत्री अरविन्द पाण्डेय हों या उच्चशिक्षा स्वतंत्र प्रभार मंत्राी डाॅ.धनसिंह रावत, अपने निर्णयों व तेवरों के चलते बेहद चर्चा में हैं।
उच्चशिक्षा हमेशा चर्चा में रही है लेकिन प्रदेश में इस बार जब से भाजपा की त्रिवेन्द्र रावत सरकार आई तब से इसमें ज्यादा ही हलचल है। इस हलचल का मुख्य कारण युवा तेज-तर्रार उच्चशिक्षा मंत्राी डाॅ.धनसिंह हैं। प्रदेश में क्रिया-प्रतिक्रिया भी सबसे ज्यादा इसी विभाग में है। चार महीने तक स्थानान्तरण  का प्रचार करने के बाद सितम्बर माह के मध्य 154 प्रवक्ताओं के बम्पर तबादले आदेश कर दिये गये। तबादले किन स्थानों में किये जा रहे हैं इसे लेकर भी अन्त तक अनिश्चितता बनी रही। स्थानान्तरण सूची जारी होने से पहले तक महाविद्यालयों के वह प्रवक्ता स्थानान्तरण सूची में अपना नाम तलाशने के लिये बेचैन दिखाई दिये जो लम्बे समय से सुगम या एक जगह ठहराव में बने हुए थे। जुलाई से लेकर सितम्बर माह के प्रथम सप्ताह तक स्थानान्तरण सूची आने, बदलने, देहरादून में होने, मंत्री जी के पास होने, निदेशालय में होने, हस्ताक्षर के लिये फाइल जाने, नाम जुड़ने, नाम घटने जैसी बातों के साथ चर्चा होती रही। कालेजों में प्रवेश प्रक्रिया आरम्भ हो गई और कहा जाने लगा अब कुछ नहीं होने वाला है लेकिन पिफर से हल्ला मचने लगा। इसके बाद छात्रा संघ चुनाव की तैयारी हुई और मान लिया गया कि स्थानान्तरण लटक गये हैं। कुछ मन से और कुछ बेमन से काम में जुट गये। इस बीच कुछ प्रवक्ताओं ने इधर उधर व सीध्े मंत्री से तक सम्पर्क साध् लिया। बताते हैं कि मंत्राी ने बहुत ही तरीके से मुलाकात भी की लेकिन स्थानान्तरण में कोई छूट देना अब उनके हाथ का भी नहीं रह गया था। क्योंकि जिस स्थानान्तरण को लेकर पहले से ही दुनियाभर का हल्ला मच रहा हो उसपर हर किसी की नज़र है।
विगत दिवस शासन स्तर से उच्चशिक्षा मंत्री डाॅ.धनसिंह रावत की संस्तुति के बाद अपर मुख्य सचिव डाॅ.रणवीर सिंह के हस्ताक्षर से राज्य के 154 प्राध्यापकों के अलग-अलग स्थानान्तरण आदेश जारी कर दिए गए। स्थानान्तरण सूची में सर्वाध्कि एमबीपीजी कालेज हल्द्वानी, डिग्री कालेज कोटद्वार, रिषिकेश, डाकपत्थर, रानीखेत, काशीपुर, पिथौरागढ़, रामनगर, नई टिहरी कालेज से सर्वाधिक तबादले हुए हैं। इन्हें तैनाती के लिये रिक्त पड़े सुदूरवर्ती डिग्री कालेजों में तैनाती दी गई है।
स्थानान्तरणों को लेकर भी तमाम चर्चाएं होना स्वाभाविक है क्योंकि इसकी सूची बनने तक जितनी नाटकीय क्रम रहा है वह किसी से छुपा नहीं है। दूर दराज भेज दिये गये प्रवक्ताओं के बीच कानापफूसी और कोर्ट की बात पहले से ही हो रही थी। कुछ नामों पर आश्चर्य हो रहा है कि उन्हें किस प्रकार सुगम के करीब या दूर पहाड़ भेज दिया गया। पिफलहाल जो भी, ध्नसिंह ने जो कह दिया था वह किया। स्थानान्तरण सूची भी छात्रासंघ चुनाव निपटते ही जारी हुई। शासन जानता था कि छात्रासंघ चुनाव म कालेज प्रशासन पूरी तरह उलझा हुआ है और उस बीच स्थानान्तरण की सूची जारी होती तो अपफरा-तपफरी मच जाती और कालेजों में चुनाव कार्य सम्पन्न करवाने में दिक्कत होती। होने को तो इस समय विशेष सुधर परीक्षा कार्यक्रम चल रहा है और कई कालेजों से वरिष्ठ प्रवक्ताओं के स्थानान्तरण के कारण व्यवस्था बनाये रखने के लिये जूझना पड़ रहा है। सत्रा के बीच में हुए स्थानान्तरण को कई अर्थों में देखा जा रहा है।
सवाल है कि शिक्षा व्यवस्था में ऐसा परिवर्तन कर क्या हो जायेगा? उत्तराखण्ड में जगह-जगह डिग्री कालेज खोल दिये गये हैं और बिना सुविधओं के उनका संचालन हो रहा है। ऐसे में यह मान्यता बन जाती है कि डिग्री कालेज ऐसे ही हुआ करते होंगे। जिनमें इण्टर पास कर जाना होता है और साल में एक बार छात्रा संघ चुनाव होते हैं। इन हालातों में महाविद्यालय पठन-पाठन से ज्यादा अन्य चीजों के अड्डे बन सकते हैं। इसलिये जरूरी हो जाता है कि उच्चशिक्षा में प्रयोग की करने वाली सरकार केवल स्थानान्तरण को ही अपना लक्ष्य न रखे बल्कि इसमें सुधर के लिये ठोस पहल हो। महाविद्यालय प्रशासन के पास प्रवेश से लेकर अन्य बातों का दबाव बना रहता है, उसे दूर करने के लिये कदम उठाये जाएं। छात्रा संघ चुनाव के दौरान कालेजों में हुई घटनाओं को पुलिस व प्रशासन तक को रोकने में जूझना पड़ा था तो कैसे कल्पना करें कि महाविद्यालय प्रशासन अपने आप से दबाव व दादागिरी की परम्परा से निपट लेगा। यह भी होना चाहिये कि सड़क चलता कोई भी नेता अथवा कोई रौब दिखाता हुआ कालेजों में प्रवेश न करे। यदि सरकार इस प्रकार की व्यवस्था करवा सकी तो यह ऐतिहासिक कदम होगा। स्थानान्तरण तो एक सामान्य प्रक्रिया भी हो सकती है और नौकरी करने वाले इध्र नहीं तो उध्र कर लेंगे परन्तु महाविद्यालयों में विद्यार्थी न होने के बावजूद आ ध्मकने और ध्मकी भरे लहजे में घूमने वालों को कैसे रोका जाए? कहने को तो कालेज का अनुशासक मण्डल भी होता है लेकिन उसके पास परिचपत्रा दिखाओ कहने तक की ताकत होती है। दबंगई पर उतर आये अराजक कुछ नहीं सुनते हैं। ऐसे में इस दिशा में ही कदम उठाने जरूरी हैं।

पिघलता हिमालय की सम्पादक कमला उप्रेती का निधन

ईजा, तुमसे जिन्दा है ये यह…….

डाॅ.पंकज उप्रेती
15 सितम्बर 2018 प्रातः 9 बजे पिघलता हिमालय की सम्पादक श्रीमती कमला उप्रेती निधन हो गया। ईजा सम्पादक के रूप में ही नहीं आन्दोलनकारी व पत्राकार के रूप में जिन्दगीभर सक्रिय रही। बीमारियों से लड़ते-लड़ते अपने मिशन के लिये जूझने वाली ईजा से ही जिन्दा था ‘पिघलता हिमालय’ और इन्हीं की यादों के साथ चलाने का संकल्प लिया है।
पिघलता हिमालय के संस्थापक स्व. दुर्गा सिंह मर्तोलिया और स्व. आनन्द बल्लभ उप्रेती के बाद इस समाचार पत्रा को जिन्दा रखने की चाह में उन्होंने अपनी जिन्दगी की परवाह नहीं की। पति के निध्न के बाद सदमे से घायल हो चुकी श्रीमती उप्रेती बार-बार अस्पताल के चक्कर लगाते रहीं। वैसे तो ईजा मौत के मुंह में कई बार जा चुकी थी लेकिन 22 पफरवरी 2013 पिता आनन्द बल्लभ जी के निध्न के समय से टूट चुकी ईजा को 6 माह के भीतर फालिस/लकुवा पड़ गया और उनके बांये हाथ-पैर में परेशानी हो गई थी। हर दिन दवाईयों के सहारे खड़े होने वाली ईजा ने हिम्मत नहीं हारी और अपने मिशन और अपने कर्तव्यों के साथ घर में बच्चों का मार्गदर्शन करती थीं। वर्तमान की पत्राकारिता पर वह चिन्तित थी और परेशानी में गुजारे हुए अपने पुराने दिनों का स्मरण करती रहती थी। अस्वस्थ्य होने के बाद भी ईजा की इच्छाएं अपनों के बीच घिरी थीं और प्रातः 4 बजे से नियमित रूप से फोन पर जगह-जगह सम्पर्क कर कुशलबात पूछना उनकी आदत में था। अस्वस्थ्य होने के बाद वह अल्मोड़ा, रानीखेत, गंगोलीहाट, मसूरी तमाम जगह मिलने के लिये पहँुची। उत्तरायणी में रानीबाग में कत्यूरियों की जागर हो या जोहार महत्व में ढुस्का, ईजा जरूर जाती। अपने स्वास्थ्य को देखते हुए वह चुपचाप जाकर दर्शक दीर्घा में पीछे से बैठ जाती, यदि किसी ने पहचान लिया तो कहती- ‘मेरी बजह से कार्यक्रम में कोई दिक्कत न हो, इसलिये पीछे बैठ गई है। चिन्ता मत करो। कार्यक्रम जारी रखो।’ हिमालय संगीत शोध् समिति के अध्यक्ष के रूप में उनका संरक्षण था। युवा कलाकारों द्वारा की रही तैयारियों को देखने के लिये वह कक्षाओं में तक जाती और होने वाले सांस्कृतिक आयोजनों में मौजूद रहती थी। वह अपने पीछे पुत्र पंकज, ध्ीरज, पुत्रबध्ू गीता, आरती, पौते आशुतोष, उत्कर्ष, नवीन, पुत्री मीनाक्षी जमाई अशोक जोशी सहित भरापूरा परिवार छोड़ गई हैं।
कमला देवी का जन्म 16 नवम्बर 1951 को माता श्रीमती इन्द्रा व पिता ज्वालाप्रसाद पाण्डे जी के घर रानीखेत में हुआ। पफाल्गुन 5 गले 1971 को इनका विवाह आनन्द बल्लभ उप्रेती के साथ हुआ। शिक्षित होने के बाद भी उन्होंने उस दौर में सरकारी नौकरी नहीं की और उप्रेती जी के साथ उनके छापाखाना ष्शक्ति प्रेसष् में सहयोग किया। वह दौर जब अखबार टेªडिल मशीन में छपा करते थेए उसकी प्रूपफ रीडिंग से लेकर मशीन में कागज उठानेए अखबार मोड़ने तक का कार्य मिशन के रूप में किया। जीवन को संग्राम के रूप में देखने वाली श्रीमती उप्रेती ने अस्वस्थ्य होने के बावजूद हिम्मत नहीं हारी और हमेशा अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किये। जीवन भर संघर्ष में घिरे परिवार की परम्पराओं को दृढ़ता के साथ पूरा करने वाली ईजा अपनी प्रतिब;ता के साथ कभी भी किसी राजनैतिक पार्टी से नहीं जुड़ी। जबकि तमाम पार्टियों के शीर्ष नेताओं द्वारा उन्हें सम्मानपूर्वक पार्टी में आने का अनुरोध् किया जाता रहा। उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलनकारी के रूप में वह सक्रिय रही हैंए जिसके लिये शासन द्वारा इन्हें राज्य आन्दोलकारी का प्रमाण पत्रा दिया गया। इनके संचालन में महिलाओं ने कई बड़े आयोजन किये। जनमुद्दों व तमाम महिला संगठनों के आयोजनों में इनकी भागीदारी रही है। घर.परिवार की जिम्मेदारी के के साथ पत्राकारिता के मिशन को इन्होंने बनाये रखा। पिघलता हिमालय के सम्पादक के रूप में अपनी निष्पक्ष पत्राकारिता को संरक्षण दे रही थीं। ईजा के निधन हमारे लिये सबसे बड़ा आघात है।