डाॅ.पंकज उप्रेती
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ जितने गहरे कलाकार थे उतने ही वैज्ञानिक। संगीत विज्ञान पर उनका ऐसा प्रभाव देखा जा सकता है। कवीन्द्र रवीन्द्र ने संगीत की जिस विधा को जन्म दिया उसे- ‘रवीन्द्र संगीत’ कहा जाता है। रवीन्द्र बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के थे और उन्होंने धर्म- कला-विज्ञान-ज्ञान की शाखाओं के मर्म को समझते हुए प्रकृति की रीति के साथ चलने का संदेश दिया। ऐसे में गुरुदेव का पहाड़ प्रेम होना स्वाभाविक है। जिस संगीत को लेकर वह शुरु होते हैं उसकी लहर यात्र और खोज के बाद उत्पन्न होती है। इस सच्चाई को मैं तक महसूस करता हँू जब पहाड़ की दुर्गम यात्रओं को अंजाम देता हँू और अंजान पथों पर पग धरता हँू। संगीत मात्र सरगम का खेल नहीं बल्कि वह एक विचार भी है। प्रकृति के बीच विचरने से दर्शन, कला, विज्ञान की कौंध् होने लगती है और एक शैली बन जाती है। टैगोर की शैली भी अपनी शैली बनी जिसे उनके गीत, कविता, नाट्य, संगीत में देखा जा सकता है। ‘रवीन्द्र संगीत’ के रूप में जिस विशिष्ट संगीत की धारा उन्होंने चलाई उसका अपना ही शास्त्र है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर बंगाल के ख्याति प्राप्त विष्णुपुर घराने से प्रभावित थे। कहते हैं इस घराने की स्थापना तानसेन के वशंज बहादुर खाँ ने की थी। रवीन्द्र के पहले संगीत शिक्षक विष्णु चक्रवर्ती थे। बंगाल संगीत विध का गढ़ रहा है, रवीन्द्रनाथ के पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ संगीत कला के संरक्षक थे। यदि रवीन्द्रनाथ की वंशावली को देखें तो पता चल जाता है कि सभी विख्यात कलाकार और पारखी थे। महर्षि देवेन्द्रनाथ, गिरीन्द्रनाथ, द्विजेन्द्रनाथ, सत्येन्द्र, हेमेन्द्र, ज्योतिरीन्द्रनाथ, स्वर्णकुमारी, गुणेन्द्रनाथ, अश्वनीन्द्र, गुरुदेव रवीन्द्र, दीपेन्द्र, इन्दिरादेवी, लेडी प्रतिभा चैध्री, क्षितीन्द्रनाथ………। इस लम्बी सूची में मंचीय कलाकार, कलावन्त, रचनाकार, स्वरलिपिकार, गायक-वादक सभी हैं। तत्कालीन विख्यात संगीतकारों का जमावड़ा इनके घर में होता था। विष्णु चक्रवर्ती, सुरेन्द्रनाथ वन्दोपाध्याय, राम प्रसाद, श्यामसुन्दर मिश्र, जगतचन्द्र गोस्वामी, राधिका प्रसाद जैसे श्रेष्ठ कलाकारों का इनके वहाँ आना-जाना था। ऐसे में रवीन्द्र भी इसमें गोता लगा रहे थे लेकिन उनके मुँह से निकलने वाले सजह स्वरों ने एक नई धरा को चलाया। उन्होंने जो रचनाएं तैयार की उनमें काव्य और संगीत को सन्तुलित रखा गया है। वह प्राकृतिक आवाज के साथ हाव-भाव का ध्यान रखते हुए होने वाली प्रस्तुति को संगीत की श्रेणी में मानते थे। ऐसे में स्वाभाविक रूप से रवीन्द्र संगीत ने अपना स्थान लोगों के बीच बना लिया।
लोक का अपना शास्त्र होता है, सो गुरुदेव के संगीत में भी उनके लोक का प्रभाव है किन्तु मात्र बांग्ला होना ही उनकी शैली नहीं है। इस बात को वह महसूस करते थे शायद इसी लिये उन्होंने उत्तराखण्ड के जनपद नैनीताल के रामगढ़ को चुना होगा। रामगढ़ ही वह स्थान है जहाँ कवियत्री महादेवी वर्मा ने भी अपनी साहित्य साधना की। वह दौर जब संसाधनों का कमी थी, कवीन्द्र रविन्द्र ने बंगाल से यात्रा कर इसे ही क्यों चुना होगा? एकदम निर्जन में जिस स्थान को इस कलावन्त ने चुना उसके खण्डहर आज भी पुकार रहे हैं। वह तो भला हो हिमालयन एजुकेशनल रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट सोसाइटी ने इस पुकार को सुना और पिछले कुछ सालों से निरन्तर यहाँ आयोजन करते हुए सबका ध्यान इस ओर आकर्षित किया।
लोक संगीत ही शास्त्रीय संगीत की जननी है और लोक की मान्यता समूह में होती है। लोक हमेशा नकल की बजाय स्वाभाविकता का पालन करता है। गुरुदेव का भी यह मानना था, तभी तो उन्होंने शास्त्राीय संगीत की जड़ों को जानने के बावजूद अपनी स्वाभाविकता को नहीं छोड़ा। यह एक बड़ा सत्य है कि जो भी स्वाभाविक कलाकार-चित्राकार- लेखक- विज्ञानी-ज्ञानी होगा वह अपनी छाप अपने अंदाज से छोड़ता है। शास्त्रीय संगीत कलाकारों के तमाम उदाहरण देख लीजिये- भीमसेन जोशी, जसराज, कुमार गन्ध्र्व, बिस्मिला खान, हरिप्रसाद चैरसिया, पन्नालाल घोष इत्यादि। पिफल्मी गायकों के उदाहरण भी देख लें- लता, रपफी, मुकेश इत्यादि। कहने का आशय यह है कि असल कलाकार अपने आप में एक होता है और शेष उसकी नकल करने लगते हैं। संगीत में नायकी-गायकी के बारे में बताया जाता है, जिसका मतलब है- जब शिष्य अपने गुरु/उस्ताद से सीखता है तब वह नकल करता है अर्थात नायकी और जब वह मझ कर अपनी प्रस्तुति देता है तब वह गायकी करता है। सीखने के क्रम में नकल स्वाभाविक है किन्तु अपनी प्राकृतिक स्वाभाविकता को नष्ट नहीं करना चाहिये। इस बारे में गुरुदेव का मानना था कि शास्त्रीय किलिष्टता के चक्कर में संगीत रचना और उसमें निहित भाव को गम्भीर हानि पहँुचती है। भाव के साथ ही संगीत खिलता है। भावपूर्ण संगीत ही कर्णप्रिय और रंजक होता है।
रवीन्द्र संगीत पर उत्तर भारत में प्रचलित ध््रुपद-धमार, ख्याल, टप्पा, ठुमरी, पाश्चात्य ओरल गीत, बंगाल की लोक ध्ुनों का प्रभाव रहा है। गुरुदेव ध््रुपद गायकी से प्रभावित थे ऐसे में रवीन्द्र संगीत का मूलाधर भी ध््रुपद है। ऐसे में गुरुदेव ने लगभग दो हजार गीत लिखे जिनमें हिन्दी गीतों के आधार पर रचित गीतों की संख्या 215 बताई जाती है। बंगला भाषा में ये गीत ‘भाँगा-गान’ के नाम से प्रसिद्ध हुए जिन्हें पूजा गीत या ब्रह्म संगीत के रूप में गाया जाता है। श्रदेय प्रभुलाल गर्ग ने रवीन्द्र संगीत पर गहन अध्ययन करते हुए बताया है कि रवीन्द्र संगीत की अधिकांश रचनाएं तोड़ी, भैरवी, आसावरी, पूर्वी, ईमन, मल्लार और केदार में की गईं हैं। मालकौंस और बागेश्वरी का प्रयोग भी किया गया है लेकिन अधिक नहीं। भैरवी राग में लगभग 150, मल्हार में 40 और पूर्वी में 30 रचनाएं की गई हैं। तालों में सरलता का ध्यान रखा गया है ताकि गीत का काव्यपक्ष किसी भी कारण से मन्द न पड़े। गुरुदेव के 215 गीत हिन्दुस्तानी संगीत में रूपान्तरित हैं। उनका गीत- प्रथम आदि तव शक्ति आदि ‘परमोज्जवल’ उनके प्रथम कोटि के गीतों में गिना जाता है, इसे ध्ु्रपद से लिया गया है। वर्षाकालीन गीत राग देश व दादरा ताल में निबद्ध है- ‘आई सावन की बेला’। बाउल गीत के आधार पर रची गई उनकी रचना- ‘यदि तोर डाक शुने केउ ना आसे तवे एकला चलो रे’ गांध्ी जी को अतिप्रिय थी। महात्मा गांध्ी ने ही रवीन्द्रनाथ के नाम के साथ- ‘गुरुदेव’ और ‘कविगुरु’ शब्द जोड़े थे और रवीन्द्रनाथ ने उन्हें ‘बापूजी’ नाम दिया था।
शान्तिदेव घोष द्वारा लिखित ‘रवीन्द्र संगीत’ में टैगोर की अनेक रचनाओं से सम्बन्धित राग-तालों का उल्लेख मिलता है। ‘गीत-वितान’ नामक बंगला पुस्तक में टैगोर के गीतों की स्वरलिपि का वृहद संग्रह मिलता है। इसके कई भाग हैं। उनकी रचनाओं से पता चलता है कि वह अवसर के अनुकूल तैयारी करते थे तभी यह भाव प्रधान थीं।शास्त्रीय रागों को गुरुदेव अपने ढंग से प्रस्तुत करते। ऐसे में शास्त्रीय संगीत का प्रभाव होते हुए भी उसकी अपनी धारा थी। उन्होंने वैष्णव पद, ईसाई प्रार्थनाएं, कीर्तन, आॅपेरा, समूहगान को नई ऊँचाई दी। रवीन्द्र संगीत के गीतों को 6 भागों में समझा जा सकता है- 1. पूजा गीत, 2. स्वदेश गीत, 3. प्रेम गीत, 4. प्रकृति गीत, 5. नृत्यनाटक गीत, 6. विविध् गीत। रवीन्द्रनाथ ने 1901 में नैवेद्य, 1906 में खैया, 1909 में गीतांजलि की रचना की। इनके अन्तर्गत आने वाले गीत पूजा गीत श्रेणी में हैं। इनमें ध्वनिमय व्यंजना और आदिशक्ति के लिये व्याकुलता दिखाई/सुनाई देती है। उदाहरण- ‘आजि तजो तारा सब आकाशे, सबे मोर प्राण भरि प्रकाशे।’ उनके लिखे/गाये देश गीत उच्चकोटि के हैं। एक उदाहरण- ‘ओ आमार देशेर माटी तोमार पाये छो आई माथा।’ बंगाल के महान प्रेमकाव्य रचनाकार निध्ु बाबू, मध्ुकान, बिहारी लाल का रवीन्द्र संगीत के गीतों मंे गहरा प्रभाव था। भौतिक प्रेम प्रसंगों को गुरुदेव ने आध्यात्म चेतना में ढालने के साथ ही छायावाद और रहस्यवाद की ओर ध्यान आकर्पित किया। चित्रांगदा, चंडालिका, श्यामा, कालमृगया, मायार खेला, वाल्मीकि प्रतिभा जैसे गीत तथा नृत्यनाटकों में इसका प्रभाव देखा जा सकता है। प्रकृति सम्बन्ध्ी गीतों में गुरुदेव ने जड़ और चेतन दोनों के प्रति वाणी मुखर की है। नृत्य-नाटक के लिये उन्होंने रचना तैयार की तथा कथावस्तु इस प्रकार गठित की कि उसका प्रभाव श्रोता/दर्शक को तत्काल हो। उनके गीतनाट्यांे को कलामंच पर हमेशा प्रसिद्धी मिली है। इसके अलावा उन्होंने विविधगीतों को गुंथा। गुरुदेव भावपूर्ण संगीत के लिये ताल को भी सहज-सुगम करने को कहते। सांगीतिक दृष्टि से देखें तो पता चल जाता है कि भावपूर्ण गायन के लिये उन्होंने ऐसे प्रयोग किये। यही कारण है कि रवीन्द्र संगीत का प्रभाव पिफल्म संगीत पर भी पड़ा। सचिनदेव बर्मन, आर0सी0 बोड़ाल, हेमन्त कुमार, सलिल चाौैधरी, पंकज मलिक, पहाड़ी सान्याल इत्यादि संगीतकारों की रचनाएं इसके उदाहरण हैं।
रवीन्द्रनाथ के संगीत में बंगाल के लोक की छाप और पहाड़ का सा दर्द है। वह कहते थे- शास्त्रीय संगीत सीखने के लिये गले के प्राकृतिक गुण-धर्म को नष्ट करना न्यायसंगत नहीं है। आवाज मिठास युक्त और भावपूर्ण होनी चाहिये। बंगाल संगीत विध में समृद्ध रहा है, यहाँ के लोक का संगीत और शास्त्राीय संगीत का अद्भुत प्रचलन सोचने पर मजबूर करता है कि गद्य और पद्य दोनों में लयकारी है। ऐसी लयकारी जो कई सम्भावनाओं को संगीत की दृष्टि से बताता है। यहाँ राध-कृष्ण से सम्बन्धित गीतों को कीर्तन के नाम से जानते हैं और पदावलियों को दुहराते हुए गाते हैं। लोकध्ुनों की छाया भी इनमें है। बंगाल में भटियाली लोकगीत भी समृद्ध है, इसमें दीर्घ स्वरों के साथ ध्ुन गाई जाती है। बाउल संगीत के रूप में काव्य की भावप्रधन प्रस्तुति देखने को मिलती है। चटक प्रस्तुति के लिये चटका गायन भी एक शैली है। इसमें व्यंग्यवाण के साथ छेड़छाड़ भरा मनोरंजन होता है। विरह गीत के रूप में भवइया सुना जा सकता है। ऐसी ही अन्य विधएं बंगाल के लोक में हैं। जब बात पहाड़ यानी कि उत्तराखण्ड की करें तो यहाँ भी इसके लोक के अनगिनत गीत विविध् शैलियों में मिलते हैं। न्योली के रूप में दर्दभरे स्वरों का आलाप, झोड़ा-चांचरी-ढुस्का के रूप में नृत्यगीत, बैर के रूप में सवाल-जबाब का मनोरंजन, हुड़कीबौल के रूप में कृषिगीत, होली के रूप में शास्त्रीय और लोक संगीत का मिश्रण व भावप्रधन गायकी, रामलीला के रूप में गीतनाट्य शैली, सम्वाद के रूप में पांडव नृत्य, झुमौलों, बाजूबन्द, थड्या, पफाग, सगुनगीत, संस्कार गीत……और भी कितने ही प्रकार हैं। लोक बंगाल का हो, उत्तराखण्ड का हो या कहीं अन्य का, उसकी सहजता-सरलता जन्म से होती है, विकार और विकास तो उसका अगला चरण है। जब बात लोक गीतों की हो तो उनमें गेयता, व्यक्तितत्व, भावप्रवणता, रागात्मक अन्विति, आत्मद्रवणता, प्रवाहमयी शैली, भावाभिव्यंजना, प्रकृति चित्राण होता है। इसमें छन्द, लय, विम्ब, प्रतीक, अलंकार, रस का स्वाभाविक रूप से होते हैं। लोक का यह शास्त्रा ही है जो शास्त्रीयता के शास्त्र को भी दिशा देता है। लोक से उपजने वाले गीतों की सार्थकता हमेशा नवजीवन देने वाली, जन-जन में ऊर्जा संचार करने वाली रही है। रवीन्द्रनाथ जैसे विद्वान संगीत के इस पक्ष को बखूबी जानते थे। तभी उन्होंने बंगाल से पहाड़ का रुख किया होगा। प्रकृति के बीच अपनी साधना को जारी रखने का संकल्प रखने वाले रवीन्द्र का शान्तिनिकेतन रामगढ़ भी तो हो सकता है? ‘टैगोर टाप’ नाम से जिस खण्डहर को जाना जाता है, रवीन्द्र की उस धरोहर को फिर से स्थापित करने का सपना देख रही संस्था ‘हर्डस’ यदि अपनी योजना में सफल होती है तो रवीन्द्र का पहाड़ प्रेम निश्चित रूप से झलक उठेगा। यह प्रेम गीत-संगीत के रूप में ज्यादा है। गीत-संगीत ही ज्ञान-विज्ञान का सरल उपाय और ध्यान का सुगम माध्यम है। आज के परिप्रेक्ष्य में गुरुदेव का सपना सच साबित करने की जिद होनी ही चाहिये। क्योंकि यह जिद, ‘जिद’ न होकर लोक का स्वाभाविक रंग है।
पिघलता हिमालय 7 मई2018 के अंक से