
पिथौरागढ़ के शमशाद अहमद पिछले बीस सालों से लखनउ में रहकर उत्तराखण्ड की सांस्कृति विरासत को बढ़ा रहे हैं। अपनी चित्रकारी के द्वारा पहाड़ की समृद्ध् संस्कृति को इस कलाकार ने देश के कौने-कौने तक पहंुचाया है। उनका उद्देश्य उत्तराखण्ड में पर्यटन के साथ पर्यटकों को आकर्षित करना है।
शमशाद की पेन्टिंग में ऐपण, छोलिया, कंडाली, वाद्ययन्त्र, आभूषण, हिमालय, परिधान, तीज-त्यौहारों का आकर्षण है। अपने तैलचित्रों में शमशाद बहुत बारीकी से पहाड़ की संस्कृति के दर्शन कराते हैं। देश की जानी-मानी हस्तियों को वह अपने हाथों आकर्षक पेन्टिंग भेंट करते रहे हैं। उनका सन्देश है कि पलायन करने के बजाय अपने गांव से ही अपने हुनर की शुरुआत की जानी चाहिये। आज बहुत से साधन और सहुलितें हैं। साथ ही इनकी परख करने वाले भी।
बचपन से ही पेन्टिंग में रमने वाले शमशाद का 1983 में गोपेश्वर में जन्म हुआ एक वर्ष आयु से पिथौरागढ़ में रहना हुआ। 12 साल तक ठेठ पर्वतीय संस्कृति में रमने के दौरान इनका मन चित्रकारी और संगीत ओर गया। वह बताते हैं कि 1995 में छोलिया नर्तकों की बड़ी पेन्टिंग उन्होंने बनाई जो कापफी चर्चित रही। स्थानीय अखबारों ने उसे प्रमुखता से प्रकाशित कर दिया। बचपन था और मिल रहे सन्देशों से हौंसला बढ़ने लगा। उस समय स्व.गोपाल बाबू गोस्वामी का एक गाना रेडियो में सुना- ‘‘दिन आने जाने रयां, रितु रिमि फरी रया। हम गोबरी कीड़ा जस गोबरी में रया।’’ यह गीत अन्दर तक प्रभावित कर गया कि हमें गोबरी कीड़ा बन कर नहीं रहना है। अपनी जन्मभूमि के लिये कुछ करना है। 1997 में पर्वतीय कला केन्द्र द्वारा छलिया महोत्सव का आयोजन किया गया, इसकी पेंटिंग का कार्य मुझे मिला। हेमराज बिष्ट जी ने सन् 1998 और 1999 में भी मौका दिया। इससे पिथौरागढ़ ने मुझे नई पहचान दी। तभी से मैं एक लाइन लिखने लगा- ‘‘आपण संस्कृति बढ़ा, आपण पच्छाण बना।’’ दुःख इस बात का नहीं था कि पहाड़ छूट रहा, खुशी इस बात की थी कि ये संस्कृति अब बड़े स्तर से उत्तर प्रदेश में शुरु करूंगा। बस तभी से 1995 से शुरु किया उत्तराखण्डी संस्कृति पर कार्य जारी है। मैं उत्तराखण्डी पुराने दौर की पेन्टिंग से युवा पीढ़ी को सन्देश देता हूं कि कहीं भी रहो इसे बढ़ाओ फैलाओ यही हमारी धरोहर है, पहचान है।
मैं पेन्टिंग में रंगवाली-पिछौड़ी पुराने दौर के ही बनाता हूं जब गांव में शुभ कार्य से पहले हाथ से बनती थी। कुदरती रंगाों जैसे पीलेे हल्दी के पानी में रंगी जाती और बाद में गोल हाथ से लाल व मेहरून टिप्पे गोल निशान चवन्नी या अंगूठे से बनाई जाती थी। उस वक्त पिछौड़ी में लचका गोटा या चमकने वाली किनर का इस्तेमाल नहीं होता था। किनारे में हल्की सी बेल व बीच-बीच में स्वास्तिक के निशान व उं लिखा होता, जिसे शुभ माना जाता, वही मेरी सभी पेन्टिंग में दिखेगा। उस वक्त गले का गलोबन्द शनील व वेलवेट के कपड़े पर हाथ से गुंथा हुआ सुनार बनाता था जो अब आध्ुनिक दौर में स्वरूप ही बदल गया है।
पूरी तरह पहाड़ की संस्कृति में रमे शमशाद ने पेन्टिंग की कहीं विधिवत शिक्षा नहीं ली लेकिन जो हुनर उनमें हैं और जो तहजीव उनमें है वह वाकेई प्रेरित करने वाली है।
