गुरुजनों ने जीवन संवार दिया

नारायण सिंह मर्तोलिया से बातचीज

पि.हि.प्रतिनिधि
आज जब हम शिक्षा और शिक्षकों की बात करते हैं तो बाजार का कुरूप चित्र दीमांग में बनने लगता है। वैसा बाजार जिसमें किसी को कोई सुनवाई नहीं होती। पैसे के बल पर लेन-देन। किसी को किसी के भविष्य की चिन्ता नहीं। लेकिन असल गुरुजनों का मान-सम्मान हमेशा रहेगा। गुरु की भूमिका अपने शिष्यों को आगे बढ़ाने में पहले होती है। इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा हुआ है। यहाँ पर नारायण सिंह मर्तोलिया जी से उनकी शिक्षा और बचपन की यादों के साथ गुरुजनों की भूमिका पर बातचीज के आधर पर प्रस्तुति है-
मुनस्यारी के मिनाल ग्राम के उमेद सिंह के परिवार से यह कहानी शुरु होती है। उनके दो पुत्र  नारायण सिंह, धरम सिंह हुए। ग्रामीण परिवेश का सीध सरल परिवार अपनी दिनचर्या में रहता। वह ग्राम जिसमें मर्तोलियाओं के कई परिवार रहते थे अब अधिकांश हल्द्वानी आकर बस चुके हैं। जब नारायण सिंह हाईस्कूल में पढ़ रहे थे, उनके पिता का निधन हो गया। ऐसे में परिवार की जिम्मेदारी सहित अपनी पढ़ाई का दबाव इनपर था।  ग्राम्य जीवन के घोर श्रम में नारायणसिंह मर्तोलिया ने इण्टरमीडिएट किया। इस बीच पालीटेक्निक के लिये बाहर चले गये लेकिन मौसम और स्वास्थ्य के साथ न देने से वह मुनस्यारी अपने गाँव लौट आए। घर की स्थिति-परिस्थिति देखते हुए 1967-68 में अध्यापन का कार्य किया। उसके बाद भारतीय पोस्टल विभाग में आ गये।
नारायण सिंह जी अपने जीवन में अपने गुरुजनों का हमेशा स्मरण बनाये रखते हैं और कहते हैं कर्मठ, ईमानदार और परिस्थितियों को जानने वाले वैसे गुरुजनों का मिलना दुर्लभ है। अतीत को याद करते हुए मर्तोलिया जी बताते हैं कि खेतीबाड़ी, पशुपालन का काम ग्राम्य जीवन का पहला हिस्सा होता है। इसके अलावा निजी संघर्ष लगे रहते हैं। वह बताते हैं- ‘‘जब मैं लखनउ से अस्वस्थ्य होकर मुनस्यारी आ चुका था और एक दिन बाजार में टहल रहा था। कवीन्द्र शेखर उप्रेती ने मुझे बुलाया और कहा- 6, 7, 8 में पढ़ाने के लिये कोई नहीं है। तुम जिला विद्यालय निरीक्षक पिथौरागढ़ को मिलो। मैं पत्र बनवाता हूं कि जब तक स्थायी व्यवस्था नहीं हो जाती है तब तक पढ़ाई के लिये इन्हें अस्थायी रूप से रख दिया जाए। विद्यालय के हैड क्लर्क रमेश उप्रेती जी ने पत्र बनाया। उस पत्र को लेकर मैं पैदल तेजम गया और अगले दिन पिथौरागढ़। सरकारी कार्यालयों की प्रणाली से मैं परिचित नहीं था अतः दो दिन तक चक्कर लगाता रहा। इसके बाद किसी तरह मेरी अस्थायी नियुक्ति का पत्र बन गया।’’ मर्तोलिया जी कहते हैं कि गुरुजनों को अपने शिष्यों का पूरा ध्यान रहता था और वह पग-पग पर मार्गदर्शन करते थे। वह विजय सिंह पांगती जी को भी अपना गुरु मानते हैं, जिनके कहने पर वह डाक विभाग से जुडे़।
मर्तोलिया जी सामने शिक्षा और डाक में से एक विभाग चुनने का अवसर था। विजय सिंह जी ने इन्हें समझाया कि शिक्षा में फिलहाल तो लग चुके हो लेकिन अस्थायी व्यवस्था में न जाने कब तक रहना पड़े। डाक विभाग में जाओ। इसके बाद नारायण सिंह आगरा में पोस्ट क्लर्क बन गये। 1974 में परीक्षा पास करते हुए प्रमोशन की प्रक्रिया में मुनस्यारी आए। अपने गाँव के नारायण को पोस्टआफिस में साहब बनकर आता देख ग्रामीण खुश थे। राजकाज में इधर-उधर तो जाना ही होता है। इसके बाद मर्तोलिया जी पिथौरागढ़, कर्णप्रयाग, बेरीनाग, जलौन कानपुर, इटावा होते हुए शहजहांपुर हैड पोस्टमास्टर बने और कुछ दिन हल्द्वानी भी रहे। इनकी कार्यदक्षता और प्रशासनिक क्षमता को देखते हुए आसाम भेज दिया गया। 1990-92 तक असम में अध्ीक्षक रहने के बाद यूपी के सहारनपुर, बरेली, बदांयू रहे। लखनउ, हरिद्वार सहित देहरादून में सेवा की। 31 मई 2009 को सहा. पोस्ट मास्टर जनरल उत्तराखण्ड के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद हल्द्वानी के दुर्गेश कालोनी में रह रहे हैं। इनके सुपुत्र जीतेन्द्र मर्तोलिया भी पोस्टल डिपार्टमेंट में हैं और अपनी कला-संस्कृति के लिये समर्पित हैं। पुत्र विनोद मर्तोलिया और जगदीश मर्तोलिया भी पारिवारिक पृष्ठभूमि के साथ अपने कर्मक्षेत्र में हैं। सामाजिक सरोकारों से जुड़े इस परिवार को शुभकामनाएं।

हल्द्वानी के इतिहास के उम्रदार गवाह थे केशवदेव वशिष्ठ

पि.हि.प्रतिनिधि
24 मार्च 2017 को पं.केशवदेव बशिष्ट का सौ वर्ष की अवस्था में निधन हो गया। अपने जमाने के पहलवान, संगीत रसिक, जाने-माने मुनीम स्व.बशिष्ट जी अपने पीछे पुत्र सूर्यदेव नाती-पोतों सहित भरापूरा परिवार छोड़ गये हैं। भाबर के हल्द्वानी बनने से लेकर अंग्रेजों के जमाने के तमाम किस्से जानने वाले बशिष्ट जी को लोग ‘मुनीम जी’ नाम से पहचानते थे। शहर के पुराने परिवारों में से इनका परिवार भी है। ;स्व.आनन्द बल्लभ उप्रेती, सम्पादक पि0हि0 की पुस्तक हल्द्वानी: स्मृतियों के झरोखे से में इनके बारे में कई रोचक जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं।
इनके पिता स्व.भीष्मदेव जी अपने समय के कवियों में से थे। वह दौर जब हल्द्वानी में दिन की रामलीला का मेला देखने को तराई-भाबर उमड़ पड़ता था, पहलवानों के दंगल लगते थे, संगीत प्रेमियों के अड्डे कोठे भी थे, फूलों के गजरे और पान के शौकीन लोग सायं को टहला करते थे। रासलीला की मण्डियां मथुरा से आया करती थीं। हरे-भरे खेत लहलहात थे और खुली नहरों की कलकल देखने को मिलती थी। उस दौर के पूरे नक्शे को याद करते हुए बशिष्ट जी ने समय के साथ अपने को समेट लिया। रामपुर रोड स्थित अपने पैतृक आवास में वह पुत्रों-भाईयों के बीच रहा करते थे। करीब साल भर से अपने पुत्र के तीनपानी स्थित मकान में वह रहने लगे थे। उम्र के इस पड़ाव में भी उन्होंने प्रातःकालीन योगक्रिया नहीं छोड़ी थी और राग-रागनियों को गुनगुनाया करते थे। पहाड़ की होली बैठक के बेहद शौकीन मुनीम जी को दुर्लभ होली रचनाएं याद थीं। होली गीतों को वह ठेठ ध्र्रे से हटकर तीनताल में गाया करते थे। हिमालय संगीत शोध् समिति के संरक्षक के रूप में वह हमेशा सक्रिय रहे और मार्गदर्शन करते थे। कलाकारों को प्रोत्साहन भी किया करते थे। छोटे कद के मुनीम जी को स्वाभिमानी और स्वावलम्बी थे। उन्होंने शहर के बड़े प्रतिष्ठित व्यापारियों के वहाँ मुनीमगिरी की और उम्र के साथ अरुचि हो गई थी लेकिन उनके अनुभव और शैली के कायल व्यापारी उन्हें छोड़ते ही नहीं थे। एक बार में एक सैकड़ा व्यापारियों की मुनीमी करना हर किसी के बूते की बात नहीं। इसके अलावा शहर में होने वाले प्रत्येक आयोजन विशेषकर संगीत कार्यक्रमों में वह दर्शक के रूप में जरूर दिखाई देते थे।
फैलते जा रहे शहर और बदलती जा रही जिन्दगी से हैरान बशिष्ट जी कहा करते थे- ‘जिन्दगी में सारी लपेट चलती रहेगी। अपने साथ शामिल बाजा भी होगा लेकिन सर्तकता अपनी करनी है। कोई भरोसा नहीं कब क्या हो जाए।’ पिघलता हिमालय कार्यालय, शक्ति प्रेस छापाखाना उनका प्रमुख अड्डा था।
बुजुर्गवार पं.केशवदेव बशिष्ट जी अब हमारे बीच नहीं रहे लेकिन उनकी स्मृतियां हमेशा बनी रहेंगी। हल्द्वानी शहर के पुराने परिवारों के रूप में उनकी जड़ें हमेशा सक्रिय रहेंगी। उनके पुत्र, बहू, नाती-पोते सभी मिलकर स्व.बशिष्ट जी की यादों को उनके बताये रास्तों को अपनायेंगे। जब-जब हल्द्वानी का इहिहास पढ़ा जायेगा, इनका स्मरण होना ही है। युवाओं को प्रोत्साहित करने वाले बुजुर्ग स्व.बशिष्ट जी को पिघलता हिमालय परिवार की श्रद्धांजलि

पिघलता हिमालय 17 अप्रैल 2017 अंक से।

होली हमारा लोकसंगीत है, इसकी ठसक-मसक बनी रहे: चन्द्रशेखर पाण्डे

बातचीज

पि.हि. प्रतिनिधि
पहाड़ की होली में अल्मोड़ा का उल्लेख पहले किया जाता है। नागर होली के लिये अल्मोड़ा की महफिलों को बहुत मानते हैं। होली बैठकों के रंग-ढंग अल्मोड़ा के अलावा अन्य स्थानों पर भी होते हैं लेकिन अल्मोड़ा सांस्कृतिक नगरी की मान्यता के साथ-साथ रसिक जनों की खासी सहभागिता इसे आगे बनाये हुए है। यहाँ कई नामी कलाकार हुए जिन्होंने बैठकी होली की महफिलें सजाई और इसके संरक्षण के लिये भी कई प्रतिष्ठित लोग हुए। होली गायकी के चले आ रहे ढांच पर गायन के अलावा बात-बहस भी अल्मोड़ा में होती रही है क्योंकि यह बुद्धिजीवियों का शहर जो है। होली को लोकसंगीत मानने और इसकी चाल को बनाये रखते हुए महफिल सजाने में माहिर 76 वर्षीय चन्द्रशेखर पाण्डे कहते हैं- ‘होली हमारा लोक संगीत है, इसकी ठसक-मसक बनी रहे।’
होली से पहले पाण्डे जी के परिवार की ही बात कर लेते हैं। पहले कभी पवेत, चम्पावत के रहने वाले पाण्डे परिवार झाकरसैम आये थे। इनकी मान्यता तांत्रिक के रूप में रही है। इन्हीं परिवारों में से रामदत्त पाण्डे का परिवार अल्मोड़ा में रहा। रामदत्त जी के असमय निधन से इनके पुत्र मनोरथ ने अल्मोड़ा के जोगालाल साह के वहाँ हलवाई का कार्य किया। बाद में मनोरथ पाण्डे जी ने अपना कारोबार किया और वह मिष्ठान के कार्य में खासी पहचान रखते थे। रामदत्त जी के दो पुत्र बच्चीराम और मनोरथ और एक पुत्री देवकी देवी हुई। मनोरथ पाण्डे जी के पुत्रों में चन्द्रशेखर पाण्डे, पूरन चन्द्र पाण्डे, गोपालदत्त, विनोद पाण्डे और कमल पाण्डे हैं। परिवार की शाखा काफी विस्तृत हो चुकी है लेकिन आज भी मनोरथ पाण्डे की पहचान से इन्हें हर कोई पचहान लेता है। परिवार के सदस्यों में अपनी कला संस्कृति के प्रति बेहद लगाव है। इसी परिवार के वरिष्ठ सदस्य चन्द्रशेखर वस्त्र व्यापारी होने के साथ सामाजिक गतिविधियों में रमे हुए हैं और होली के लिये इनकी दीवानगी देखने लायक है। वर्षभर होली सुनने वालों में से यह भी एक कलाकार हैं।
श्री पाण्डे जी अपने अतीत को याद करते हुए कहते हैं- ‘मुझे याद नहीं है होली से कब जुड़ गया। पिता जी सन्त प्रवृत्ति के और संगीत के शौकीन थे। घर मेें साधू-सन्तों का आना होता, इसी से मेरा रुझान भी इस ओर हुआ। 9-10 साल से मैंने अल्मोड़ा की होली बैठकों और रामलीला में जाना आरम्भ कर दिया था।’ वह कहते हैं- ‘होली सीखने से नहीं श्रवण से आती है। बार-बार महफिलों में सुनने का परिणाम ही है कि वह कुछ गा पाते हैं। शिवलाल वर्मा उर्फ अच्छन, चन्द्र सिंह नयाल, भवान सिंह नयाल, प्रेम लाल साह इसके बाद जवाहर लाल साह, ताराप्रसाद पाण्डेय ने मुझे प्रभावित किया। उन महफिलों की यादें मेरे मस्तिष्क में भली भांति अंकित हैं।’
लोक कलाकार संघ के सदस्य के रूप में भी चन्द्रशेखर पाण्डे सक्रिय रहे हैं और आज भी अपने पुराने साथियों का स्मरण करते हैं। वह बताते हैं कि लोक कलाकार संघ की गतिविधियों में उन्हें कई विधाएं सीखने का अवसर मिला। आज भी प्रतिदिन होली की बन्दिशें नियमित रूप से सुनने वाले चन्द्रशेखर पाण्डे का मानना है कि संगीत प्रकृति प्रदत्त होता है। पहाड़ की होली परम्परागत रूप से उपजी है, समय के साथ इसमें प्रयोग अच्छी बात है लेकिन इन प्रयोगों में इसकी सरलता-सुगमता का ध्यान रखना चाहिये। यह एकल गायकी नहीं बल्कि सामूहिक गायकी है। हमारे विद्वानों ने होली की ऐसी अद्भुद रचनाएं रचीं हो जो तय राग के अनुसार आज तक सटीक हैं। उन सुन्दर रचनाओं को वर्षों से गाया जा रहा है। इस बीच कुछ नये बोलों को लेकर गाने की करामात हुई लेकिन नई कविताएं बनाकर जबरन गाने से होली गीत नहीं हो सकता है। ऐसे गीत जुगुनू की तरह होते हैं और चलन से बाहर हो जाते हैं। नये होली रचनाकारों में चारुचन्द्र जी की मान्यता है क्योंकि उन्होंने जो भी गीत रचे वह हमारे होली थाट के लिये सटीक हैं। चारु चन्द्र जी संगीत के भी जानकार थे इसलिये उन्होंने बेहतरीन रचनाएं रचीं। पहाड़ की होली गायन का एक खांचा बना हुआ है उसमें गाने का अपना आनन्द है।
बातचीज के दौरान पाण्डे जी कुछ रचनाओें को गुनगुनाते हैं और पुराने गवैयों को याद कर भावुक हो जाते हैं। वह कहते हैं- ‘संगीत सरस्वती का वरदान है। ये प्रकृति प्रदत्त है। ये जहाँ भी है, सुख-शान्ति का और ईश्वर से मिलाने वाला है।’

चलती रहें ये बैठकें, रुके तो अपने पुरखों को क्या जबाब देंगे: के.के.साह

बातचीज
चलती रहें ये बैठकें, रुके तो अपने पुरखों को क्या जबाब देंगे: के.के.साह

पि.हि.प्रतिनिधि
नैनीताल में भी होली का रंग जमकर बरसता रहा है। ठाटबाट के साथ होली की महफिलें सजती रही हैं। हालांकि संस्थागत आयोजन के बाद ठोल का एक सुर सुनाई देने वाली स्थिति वर्तमान में हो चुकी है। पिफर भी होली के दीवाने मौजूद हैं। होली की दिवानगी का ऐसा ही परिवार कुमया साह लोगों का है। किसी न किसी रूप में संगीत से जुड़े परिवार के सदस्य इस समृद्ध परम्परा को हमेशा जिन्दा देखना चाहते हैं। परिवार के वरिष्ठ सदस्य 85 वर्षीय कृष्ण कुमार साह कहते हैं- ‘‘चलती रहें ये बैठकें, रुके तो अपने पुरुखों को क्या जबाब देंगे।’
बात नैनीताल के इस परिवार की करें तो- गंगा साह प्रतिष्ठित व्यक्ति हुए हैं। उनके चार पुत्र- दुर्गालाल, श्यामलाल, प्रेम लाल, भवानीदास साल हुए। भवानीदास जी इंस्पेक्टर नाम से ही जाने जाते रहे हैं। प्रेम लाल जी के सुपुत्र सुदर्शनलाल साह उच्च प्रशासनिक पदों को सुशोभित करने के साथ ही नैनीताल का गौरव बढ़ाते रहे हैं। भवानीदास जी पुत्र हुए कृष्णकुमार और हरीश लाल। कृष्णकुमार जी को के.के. साह के नाम से नैनीताल में हर कोई जानता और पहचानता है।
के.के.साह बचपन से ही होली महफिलों के शौकीन रहे हैं। वह बताते हैं कि उनके पिता के मित्र तारादत्त पन्त तारालाॅज वालों के वहाँ होली की बैठकें हुआ करती थी। पौष के प्रथम रविवार से छरड़ी तक होल्यार इसमें जुटते थे। पन्त जी ने पिता से कहा कि एक दिन अपने घर में भी इस प्रकार बैठक करवाया करो, उसके बाद हमारे घर में भी प्रतिवर्ष बैठकें होने लगीं। अन्य सारे आयोजनों के क्रम में होली का जो संकल्प पिता जी ने लिया वह भव्य रूप से सम्पन्न होने लगा। इसका असर मेरे दीमाग में आज तक छाया हुआ है। पहले बहुत से लोग महफिलों में आया करते थे, बिना बुलाये भी अपनेपन से लोग आ जाया करते थे। रातभर की महफिलों का दौर चलता। अब तो नई पीढ़ी में वैसा उत्साह देखने को ही नहीं मिल रहा है। मैं तड़फ कर रह जाता हँू, कोई होली गीत सुना जाता। दो-चार लोग ही अपने आप से इस कार्य में जुटे हैं। मेरी हार्दिक इच्छा है कि इस कार्य में जुटे लोग मिलकर इस परम्परा को सिलसिलेवार जगह-जगह करें।
नैनीताल के पुराने दिनों को याद करते हुए साह जी बताते हैं कि वह शारदा संघ जाया करते थे जहाँ प्यारे साह पुराने गायकों में थे। वह बहुत प्यारा धमार गाते थे। नित्यानन्द पन्त, हरीश जोशी, हीराबल्लभ जी, शिवलाल, भवानीदास, मोहनलाल, विहारी लाल, पूरन साह जी महफिल में होते। इसके बाद जवाहर लाल, अच्छन मास्साब, ताराप्रसाद, उफर्बादत्त पाण्डे जी हुए। उर्बादत्त जी बहुत किया, वह अपने आप से लोगों को महफिल का निमंत्रण देते और कई दिनों तक नियमित बैठकें होती। बर्फ के दिनों में भी होली की महफिल चलती रहती थी। इसके बाद दिनेशी जोशी कन्नू, रमेश जोशी, अनूप साह, देवी उस्ताद महफिलों में रहे।
अनगिनत महफिलों के गवाह के.के.साह के पास सैकड़ों रिकार्ड मौजूद हैं। होली की इस दीवानगी ने उन्हें संगीत के महारथियों से मिलाया। नैनीताल आये ओंकारनाथ ठाकुर ने इनके घर में सिंगलपुवे खाये हैं। वह बताते हैं- ‘के.मुंशी गर्वनर थे, उस दौर में ओंकारनाथ नाथ नैनीताल आये थे। मुझे जैसे ही पता चला मैं जगदीश उप्रेती उर्फ जग्गन उस्ताद के साथ ठाकुर साहब को मिलने चला गया और आटोग्राफ मांगे। उन्हें इण्डिया होटल में ठहराया गया था। उन्होंने घूमने की इच्छा जताई, उन्हें डांडी से बिड़ला ले गये। मि.संघ वहाँ प्रधनाचार्य थे, वह भी खुश हो गये। संगीत में पी.जी. कुमार थे, उन्होंने सारे बच्चों को एकत्रित कर दिया। इसके बाद ओंकारनाथ ठाकुर ने बन्देमातरम गाया। बाद में उन्हें हरिकीर्तन मण्डली ले जाया गया।’
के.के. साह जी में संगीत के ऐसी दीवानगी है कि उन्होंने नैनीताल आने वाले किसी उस्ताद को नहीं छोड़ा। मुस्ताक हुसैन जब मैडल लगाये हुए इनके घर आये तो उन्हें देखने भीड़ जमा हो गई। अहमदजान, ध््रुव तारा जोशी, विश्वनाथ जग्गनाथ जोशी भी आये। सन् 1951-52 में नैनीताल में प्रथम म्यूजिक कांप्रफंेस उन्होंने करवाई। के.के.साह जी ने वाद्ययन्त्रों की खोज में भी समय लगाया है। बाजे-तबले के लिये वह खूब दौड़े हैं क्योंकि महफिलों के शौकीन ही जानते हैं कि कितने जतन इसमें करने पड़ते हैं। सुरों की पहचान रखने वाले साह जी ने अपने लिये कलकत्ता से हारमोनियम मंगवाया। पहाड़ की होली को संरक्षण देने में आपका योगदान अनुकरणीय है।

कभी पेड़ों में फल लदे रहते थे, अब बद्री-केदार हाईवे में ट्रैफिक लद चुका है

बातचीज

पि.हि.प्रतिनिधि
बदरीनाथ और केदारनाथ हाईवे आज ट्रैफिक के दबाव से लद चुका है। पहले इस स्थान पर पेड़ों में फल लदे रहते थे। किसी प्रकार की हाय-तौबा नहीं थी। कर्णप्रयाग ;चमोली के समाज सेवी राधकृष्ण भट्ट अपने अतीत का स्मरण करते हुए कहते हैं कि उनके पूर्वज पिथौरागढ़ जिले के विषाड़ से आकर यहाँ बसे। उनकी काफी जमीन थी, कुछ सड़क, कुछ थाने, कुछ तहसील, कुछ इण्टर कालेज भवन इत्यादि में चली गई लेकिन व्यवस्था का खेल ऐसा कि भूमि का पैसा नहीं मिल सका है।
करीब 150 साल पूर्व विषाड़ से श्रीराम कृष्ण भट्ट और उनके भाई रामप्रसाद भट्ट व्यापार कर्णप्रयाग आये थे। इससे पहले ये लोग चैखुटिया गेवाड़ रहे। इन्हीं के वंशज सफल कारोबारियों के रूप में जाने जाते हैं। श्री राधकृष्ण बताते हैं कि पूरा बचपन ही कर्णप्रयाग बीत गया ऐसे में विषाड़ यदा-कदा जाते हैं। मन्दिर में हाथ जोड़कर वापस फिर यहीं………। पहले साधन न होने के कारण उनके परदादा गाँव से चले आये। अब वर्षों के बाद यदि परिवार को कोई गाँव जाता है तो विकास के मायने फिर शून्य दिखाई दे रहे हैं। नदियों में स्टोन क्रशर लग चुके हैं। कोई जाना-पहचाना सा नहीं दिखाई दिया तो चाय की दुकान में चाय पीकर गाँव निहार भर लेने का मलाल रहता है। भट्ट जी बताते हैं- उनके पिता कामरेड स्व. श्रीकृष्ण भट्ट को नेहरु जी के समय नजरबन्द किया गया था। उनके साथ गरुड़ के तिवारी जी और विद्यासागर नौटियाल ;जो टिहरी के विधयक रहे थे। ये लोग 1964 की रात्रि को रिहा होकर घर आये। पिता जी ने कभी भी राजनीति के साथ टिकट लेने में दिलचस्पी नहीं ली। वह अपने कारोबार के अलावा सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय रहते थे। कभी कोर्ट कचहरी तो कभी तिहाड़ जेल तक की यात्रा उनके भाग्य में थी। सन् 1971 में स्व.नरेन्द्र सिंह भण्डारी ;जो विधयक भी रहे अपने साथ पिता जी को कांग्रेस में ले गये। श्री भट्ट कहते हैं कि तब राजनीति की अपनी मर्यादा थी। वर्तमान राजनीति में उच्छृंखलता बढ़ती जा रही है। जो विकास की सोच से दूर है।

पिघलता हिमालय 16 नवम्बर 2015 से