मुंशी रायबहादुर हरिप्रसाद टम्टा

हरिप्रसाद टम्टा – 26.08.1887 से 23.02.1962)

डॉ दुर्गा प्रसाद
26 अगस्त 1887 को अल्मोड़ा के ताम्र शिल्पियों के परिवार में हरिप्रसाद टम्टा का जन्म हुआ. गोविन्द प्रसाद टम्टा और गोविंदी देवी का यह पुत्र बचपन से ही मेधावी और प्रखर बुद्धि का था. बचपन में ही पिता की मृत्यु हो जाने की वजह से हरिप्रसाद टम्टा को अपने छोटे भाई व बहन के साथ मामा कृष्ण टम्टा के संरक्षण में आना पड़ा.

उस समय अछूतों के लिए शिक्षा हासिल करना बहुत ज्यादा कठिन हुआ करता था. इसके बावजूद हरिप्रसाद ने मिडिल तक की शिक्षा हासिल करने के बाद उर्दू-फारसी में भी महारथ हासिल कर मुंशी की उपाधि प्राप्त की.

अपने मामा की प्रेरणा से वे 1903 से कुमाऊँ की अछूत जातियों के उद्धार में लग गए और 26 फरवरी 1960 में जब 73 साल की उम्र में उनका देहांत हुआ तब तक इस मिशन में डटे रहे. कुमाऊँ के अछूतों में सामाजिक चेतना जाग्रत करने के मकसद से उन्होंने 1905 में टम्टा सुधारक सभा की स्थापना की, जो आगे चलकर 1914 से ‘कुमाऊँ शिल्पकार सभा’ के नाम से जानी गयी. सभा ने शिल्पकार उत्थान के लिए कई आन्दोलन किये. इसी के बैनर तले अवांछित व अपमानजनक शब्दों से कुमाऊँ के अछूतों को संबोधित किये जाने के खिलाफ भी एक व्यापक आन्दोलन की शुरुआत 1920 से की गयी. ‘कुमाऊँ शिल्पकार सभा’ के 6 सालों के आन्दोलन के बाद शासन-प्रशासन ने उत्तराखण्ड के अछूतों को ‘शिल्पकार’ नाम से संबोधित किया जाना स्वीकार किया.

हरिप्रसाद टम्टा ने उत्तराखण्ड के अछूतों के बीच शिक्षा के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए भी उल्लेखनीय कार्य किये. उन्होंने अल्मोड़ा में कई रात्रिकालीन स्कूल खुलवाने के अलावा गरीब छात्रों को वजीफा भी दिया. शिक्षा के लिए उनके कामों को लीडर व अन्य राष्ट्रीय समाचार पत्रों ने भी प्रकाशित किया.

हरिप्रसाद टम्टा ने शिल्पकारों के बीच फैली सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए भी व्यापक जनजागरण किया. उनके प्रयासों से ही शिल्पकारों के बीच मद्यपान, फुलवारी, आतिशबाजी, बरातों में फिजूलखर्ची जैसी कई गलत परम्पराएं बंद हुईं.

1 जून 1934 को ‘समता’ के प्रकाशन की शुरुआत के साथ ही वे पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अछूतों का प्रतिनिधित्व करने में जुट गए. 26 सालों तक समता का संचालन करने के साथ-साथ वे लीडर, हिंदी हरिजन, भारती, कमल, अधिकार जैसे कई राष्ट्रीय अख़बारों में भी शिल्पकारों की समस्याओं को उठाते रहे.

उत्तर प्रदेश के कुमाऊँ में सार्वजनिक परिवहन की शुरुआत करने वाले प्रमुख उद्यमियों में भी हरिप्रसाद टम्टा का नाम उल्लेखनीय है. उन्होंने 1920 में ‘हिल मोटर ट्रांसपोर्ट कंपनी’ की स्थापना की. इसके साथ ही वहां चालकों के लिए कुमाऊँ का पहला प्रशिक्षण केंद्र भी हल्द्वानी में शुरू किया. कुमाऊँ में मोटर वाहन का चक्का घुमाने वाले शुरुआती व्यक्तियों में हरिप्रसाद टम्टा एक थे.

जिस घटना ने हरि प्रसाद टम्टा को शिल्पकार अस्मिता का योद्धा बनाया

यही नहीं हरिप्रसाद टम्टा ने 1907 और 1935 के युद्ध के बाद अकालग्रस्त भारत में पूरे कुमाऊँ में सस्ते राशन की दुकानें खुलवायीं. युद्ध के बाद जब इन्फ्लुएंजा का प्रकोप बढ़ा तो हरिप्रसाद टम्टा ने हजारों स्वयंसेवकों की सेना तैयार कर गांव-गांव दवाएं बंटवाई. इस तरह के कई अन्य सामाजिक कामों में भागीदारी करते हुए उन्होंने कभी भी धन व्यय की चिंता नहीं की.

सार्वजनिक जीवन में हरिप्रसाद टम्टा की लोकप्रियता ने उन्हें 3 बार म्युनिसिपलिटी के मेंबर-अध्यक्ष और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड अल्मोड़ा का वाइस चेयरमैन बनाया.

लेखक:
डॉ दुर्गा प्रसाद
सामाजिक चिन्तक एवं शिक्षाविद
जिलाउपाध्यक्ष भाजपा अनु.मो.पिथौरागढ़ उत्तराखंड

कित्ती फौजदार: प्रथम रं लुंग्बा प्रतिनिधित्वकर्ता (प्रतिनिधि)

इतिहास-कथा

नरेन्द्र न्यौला पंचाचूली
दारमा घाटी में आज से लगग 18वीं शताब्दी के मध्य से 19वीं शताब्दी के मध्य तक ग्राम-गो में एक प्रखर बुद्धिमान, आर्थिक सम्पन्न तथा दूरदर्शी व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति रहते थे, जिनका नाम कित्ती सिंह ग्वाल (कित्ती फौजदार) था, वे उस काल के सबसे प्रतिभावान, प्रभावशाली व्यक्ति थे और लीक से हटकर सोच रखते थे। शायद उन्होंने ही रं लोगों को उस समय तिब्बत देश से लेकर नेपाल देश और पश्चिम कुमाउँ तक व्यापार करना सिखाया हो।
उस समय भी दारमा, चैंदास तथा व्यास घाटी रं लुंग्बा प्राीचन भोंट देश का भोंट प्रान्त ‘रं लुंग्बा’ हुआ करता था। इस कारण केन्द्रीय तिब्बत राज शासक- प्रशासक इस प्राचीन भोंट प्रान्त को ‘रं लुंग्बा’ के तिब्बत सीमान्त (रं लुंग्बा) क्षेत्र को जबरदस्ती अपना मानते हुए, दारमा व्यापारियों से जबरदस्ती कर वसूलते थे। साथ ही तिब्बत का प्रशासक कित्ती फौजदार को उसके प्रभावशाली छवि, आर्थिक सम्पन्नता के कारण इस रं क्षेत्र (रं लुंग्बा दारमा) का क्षेत्राीय तरजम (एस.डी.एम.), छयासों (कर अधिकारी) साथ ही ज्युस्यों (व्यापारी मुखिया) भी उन्हीं को मानते थे। जबकि दारमा वासी फौजदार जी को दारमा घाटी क्षेत्र का व्यवस्था प्रतिनिधित्वकर्ता (प्रतिनिधि) समझते थे और उनका आदर सम्मान कर उनकी बातों को मानते थे। श्री कित्ती फौजदार जी के प्रभावशाली छवि के परिणामस्वरूप 18वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी के मध्य तक की ज्ञानिमा-सिल्दी व्यापार मण्डी का व्यापार दर (कमिशन दर) तब तक तय नहीं होता था जब तक ग्वाल व्यापारी लोग वहाँ नहीं पहँुच जाते थे।उस बात का फायदा उठाकर ग्वाल व्यापारी देरी से व्यापार मण्डी स्थल पर कई दिनों पहले पहुंचते थे और अन्य ग्राम व्याापारियों को व्यापार मण्डी स्थल पहँुचने के बाद भी कई दिनों तक इन्तजार करना पड़ता था। इस कारण अन्य व्यापारी परेशान होते थे। बाद में ब्रिटिश राज के मसय इस गटतोक (कमीशन रेट) की बात दारमा व्यापारियों ने मिलकर कुमाउँ कमीश्नर प्रशासन के संज्ञान में लाया गया, तत्पश्चात ग्वालों का व्यापार दर तय करने का एकछत्र राज (अधिकार) समाप्त हुआ।
श्री कित्ती फौजदार अपने रं प्रतिनिधित्वकर्ता काल में अपने क्षेत्र के लिए उन्नति/ प्रगति का अवसर ढूंढते रहते थे, वे रं लुंग्बा से बाहर अन्य क्षेत्रों तक व्यापार का अवसर देखना चाहते थे। यह व्यापारिक सोच चाह के मुताबिक जल्दी सम्भव हीं था, क्योंकि उस समय इस रं क्षेत्रों का किसी भी प्रकार का अपना स्थायी शासनिक-प्रशासनिक ढांचा नहीं था। रं धरोहित बुजुर्गों के कहने के अनुसार आज से 250-300 साल पूर्व तक रं लुंग्बा जन जाड़ों के मौसम में (जब अत्यधिक ठण्ड पड़ी थी) दारमा घाटी वासी ‘सोबला-कंच्योति, व्यास घाटी वासी लामारी-मालिपा-लोलंको नामक स्थापन पर तीन-चार महीने जानवरों को पालने के वास्ते आते थे। फिर वापस अपने मूल ग्राम की ओर चले जाते थे। इन निम्न स्थानों से नीचे के क्षेत्र अस्कोट राज परिवार अपना जबरदस्ती भू-क्षेत्र अधिकार मानता था। तब दारमा, चैंदास और व्यास का रं लुंग्बा प्राचीन भोट देश का भोट प्रान्त ‘संयुक्त रं लुंग्बा’ कहलाता था। उस समय इस प्राचीन भोट प्रान्त- ‘रं लुंग्बा’ क्षेत्रा से बाहर ब्रिटिश राज कालीन भारतीय क्षेत्रों तक जाने के लिए सर्वप्रथम अस्कोट रजवार ‘राजशाही’ के अनुमति की आवश्यकता पड़ती थी। इस कारण को देखते हुए एक दिन कित्ती फौजदार जी ने अपनी योजना बनाई। श्री कित्ती फौजदार ने विशेष जयन्ती के अवसर का चयन कर एक दिन अपने अच्छे-अच्छे ढोल-नगाड़े ‘दमो-छेलंग’ बाजकों के साथ अस्कोट रजवार के समारोह स्थल- जनता दरबार पर अनुरोध् प्रार्थना पत्रा और उपहार लेकर पहँुचे। महोदय हमारे रं जनों को आपके सीमान्त राज क्षेत्रों में जाड़ों के मौसम में 4-5 महीने धूप सेकने, जानवरों को चराने तथा व्यापार करने की अनुमति दी जाए। शायक रजवार ने कहा- राजकाज के नियमानुसार बिना किसी स्पद्धा/द्वन्द प्रतियोगिता जीते बिना ऐसी अनुमति देने का कोई प्रावधान नहीं साथ ही कहा- कित्ती, कुश्ती, दमो बाजा और क्षलिया नाच निम्न से किसी एक प्रतियोगिता का चयन कर तैयार रहना। फौजदार ने उस समय की परिस्थिति को देखते हुए डोल- नगाड़े (दमों) बजाने की प्रतियोगिता स्वीकार की ली। प्रतियोगिता अगले दिन करवाई गई और दोनों टीम/पक्ष का घण्टा परस्पर बाजा द्वन्द्व चलता रहा, उस वर्तमान परिस्थिति को समझते हुए, काका फौजदार ने अपने कलाकारों ‘दमों बाजकों’ का रं बोली में ‘जन्सु ला छयानी’ अर्थात (ग्वन संस्कार/ मृत्यु संस्कार वाला बाजा बजाने का संकेत दिया) यह कहते ही इन दमों (बाजे)कों ने उल्टा दमों बाजा बजाया। इन दमों बाजा की कला पर रजवार पक्ष प्रतियोगिता टक्कर नहीं दे पाये, (वे इस कला से दमों बना नहीं पाये) और वे हार गये। ‘दमो बाजा’ की कला केवल रं समाज में ही मृत्यु संस्कार में बजाये जाते हैं। इस प्रकार डोल-नगाड़े (दमों) प्रतियोगिता में श्री कित्ती फौजदार कलाकार पक्ष की जीत हुई। अस्कोट रजवार राजशाही को उनकी बात माननी पड़ी। तब से रं जनों को कंच्योति से नीचे रजवार परिसीमन जौलजीवी तल्लाबगड़ तक जाड़ों में बसने की अनुमति मिली, उस समय गोरी नदी की सरहद से लेकर एलागाड़ तक तक क्षेत्रा को मल्ला अस्कोट क्षेत्रा कहते थे।
रं लोग सन् 1950 तक रजवार क्षेत्रों में अस्थायी झोपड़ी बनाकर रहते थे और दारमा वापस जाते समय झोपड़ी जला देते थे। धीरे-धीरे स्थायी घर बनने लगे। उसी के परिणाम स्वरूप आज धारचूला तहसील से जौलजीवी तक अनेक रं गाँव बसे हुए हैं। अस्कोट दमों प्रतियोगिता विजय के बाद गोरखा शासन काल में श्री कित्ती फौजदार, नेपाल देश की राजधानी-काठमाण्डू राजशाही दरबार तक पहँुचे। श्री कित्ती जी, रं लुंग्बा के वे पहले व्यक्ति थे, जो इतने सुदूर से काठमाण्डू पहुंचे और अपनी क्षेत्रा की बात रखी। उनकी ‘प्रखर वक्ता’, अपने क्षेत्र के प्रभावशाली छवि, अस्कोट रजवार से सम्बन्ध्, तिब्बत से व्यापारिक सम्बन्धित के नाते उन्हें अपने पक्ष में लेने के लिए नेपाल राजशाही दरबार ने उनको ‘फौजदार’ की पदवी से सम्मानित किया। साथ ही उनकी कार्य कुशलता, कार्य प्रबन्धन नीति को देखते हुए उनको नेपाल की ओर से दारमा घाटी में शासन चलाने के लिये सन् 1813 में लाल मुहर और काला मुहर प्रदान कर न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों की आधिकारिक जिम्मेदारी सौंपी। उनके अनुरोध् पर रं लोगों को नेपाल के दार्चुला क्षेत्र में जाड़ों में रहने तथा अपने क्षेत्रों में व्यापार करने की अनुमति प्रदान की गयी। सही मायने में श्री कित्ती फौजदार जी ही वह व्यक्ति हैं जिन्होंने रं लोगों को अपने क्षेत्रों से बाहर नये अवसरों को ढूंढने के लिए प्रेरित किया। इसके फलस्वरूप धारचूला तहसील क्षेत्रा के सैकड़ों गाँवों में से मात्रा रं समुदाय के लोग ही दूर-दूर तक व्यापार के लिए जाते रहे। जब भारत-चीन युद्ध के बाद तिब्बत से व्यापार बन्द हुआ तब रं लोगों का व्यापर विकल्प नेपाल के सिलगड़ी, धनगड़ी, बेतड़ी, आछम, बयालमाटा, बजंग आदि और अन्य महत्वपूर्ण व्यापारिक सहयोग रहा। हम मानें या न मानें इसका श्रेय श्री कित्ती फौजदार जी को जाता है। क्योंकि उन्होंने ही लीक से हटकर, निडर होकर नया अवसर ढूंढ़ना और सफल होना सिखाया। इस कारण प्राचीन भोट प्रान्त रं लुंग्बा से बाहर व्यापारिक पटकथा के भूमिगत रचना/भूमिगत आधर तैयार करने वाले सर्वप्रथम व्यक्ति वे ही थे। हमारी ओर से उन्हें नमन, उन्हें हमेशा याद कर रखना ही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
रं प्रतिनिधि श्री कित्ती फौजदार की मृत्यु के बाद उनका राजपाठ कार्यभार उनके उत्तराधिकारी पुत्र श्री मुंडवा सिंह ग्वाल ने सम्भाला। श्री मुंडवा ने अपनी दारमा प्रतिनिधि काल में उतनी ख्याति प्राप्त नहीं की, जितनी ख्याति पिता कित्ती जी की रही। फिर भी वे रं लुंग्बा परिसीमन के लिए लड़े, अस्कोट राज्य रजवार के साथ हुए परिसीमन विवाद को लेकर अंग्रेज शासन-प्रशासन के न्यायालय तक पहँुचे। ग्वाल जी ने अल्मोड़ा जिला न्यायालय में ठोस साक्ष्यों के साथ अपने पक्ष को रखा। न्यायालय ने तथ्यों पर गहन विचार विमर्श कर अन्त में श्री मुंडवा ‘ग्वाल साहब’ को सीमा विवाद पर विजय घोषित किया। इस विजय फैसले पर ग्वाल साइब पक्ष समूह जन जब विजय उल्लास के साथ लौट रहे थे उस समय अस्कोट-जौलजीवी के मध्य ग्राम गर्जिया, गोरी नदी पुल से अस्कोट राज्य षड्यन्त्रकर्ताओं ने विश्वासघात कर ग्वाल साहब को नदी में धकेल कर उनकी हत्या कर दी। इस प्रकार रं लुंग्बा ग्वाल प्रतिनिधित्वकर्ता का शासन काल समाप्त हुआ। लेकिन इतिहास की यह बातें हमेशा के लिये अमर हैं।