पिघलता हिमालय’ का जन्म 1978 को हुआ। स्व.आनन्द बल्लभ उप्रेती व स्व.दुर्गा सिंह मर्तोलिया इसके संस्थापक हैं। स्व.आनन्द बल्लभ उप्रेती संस्थापक के साथ ही इसके प्रथम सम्पादक रहे जिन्होंने पत्रकारिता के मिशन के साथ इसे सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन का रूप दिया।
मुनस्यारी। चीन सीमा पर जिले की पहली प्रस्तावित बहुप्रतिक्षित जल विद्युत परियोजना को लेकर सीमावासी मुखर हो गए है. इसी के चलते निगम की 120 मेघावाट की रुपसियाबगड़ – सरकारी भेल जल विद्युत परियोजना को वित्तीय स्कीकृति दिए जाने की मांग तेज हो गई है. जिपं सदस्य जगत मर्तोलिया ने आज प्रदेश के मुख्यमंत्री को इस आशय का पत्र भेजकर इस मांग को हवा दे दी है. कहा कि इस वित्तीय वर्ष में सीएम नहीं माने तो चीन सीमा क्षेत्र के लोग आंदोलन करेंगे. उत्तराखंड जल विद्युत निगम ने इस चीन सीमा पर बनने वाले बहुप्रतिक्षित परियोजना का डीपीआर तैयार कर शासन को भेज दिया है. पिथौरागढ़ जिला चीन सीमा से लगा हुआ है. जिले के व्यास, चौदास, रालम व जोहार क्षेत्र चीन सीमा से लगा हुआ है. चीन सीमा के जोहार क्षेत्र से लगे इस क्षेत्र में प्रस्तावित यह परियोजना चीन सीमा पर भारत की पहली विद्युत परियोजना होगी. जिपं सदस्य जगत मर्तोलिया ने कहा कि इस परियोजना के बनने के बाद चीन सीमा से लगे लास्पा, रिलकोट, मर्तोली, ल्वां,पांछू, गनघर, मापा, मिलम, बिलजू, बुर्फू, टोला, खिलांच,रालम सहित सेना व अर्द्ध सैनिक बलो की अंतिम चौकियों को भी बिजली मिलने का रास्ता सांफ हो जाएगा. इससे बेरोजगारी कम होगी तथा चीन सीमा क्षेत्र से पलायन भी कम होगा. मर्तोलिया ने कहा कि चीन सीमा क्षेत्र की सुरक्षा के लिए भी इस परियोजना का निर्माण किया जाना बेहद जरूरी है. कहा कि राज्य सरकार को इस परियोजना के संचालन से राजस्व मिलेगा. जिपं सदस्य मर्तोलिया ने कहा हम क्षेत्रवासी इस वित्तीय वर्ष सरकार के फैसले का इंतजार करेंगे, उसके बाद चीन सीमा क्षेत्र के लोग आंदोलन कर सरकारो पर दबाव बनायेंगे.
केशव भट्ट बागेश्वर जिले के खर्कटम्टा गांव में कभी तांबे से बनने वाले बर्तनों की टन्न..टन्न की गूंज दूर घाटियों में सुनाई पड़ती थी, लेकिन वक्त की मार के चलते ये धुने अब कम ही सुनाई देती हैं. हांलाकि, आजादी से पहले की ताम्र शिल्प की इस अद्भुत कला को अब मजबूरी में इस गांव में तीन परिवार आज तक भी संजोए हुए हैं. लेकिन ताम्र शिल्प की उपेक्षा से ये कलाकार बहुत आहत हैं. रही बची कसर कोरोना काल के लॉकडाउन ने पूरी कर दी है. देवलधार स्टेट के नाम से मशहूर जगह के पास ही है खर्कटम्टा गांव. मित्र जगदीश उपाध्याय ने एक बार बताया कि यहां कुछेक परिवार तांबे के बर्तन बनाने का काम करते हैं. जगदीश ने वहां के शिल्प कारीगर सुंदर लाल का नंबर दिया तो मैंने उनसे बात की. सुंदरजी से बातचीत में पता चला कि अब तो काम काफी कम है, गांव में अब तीन ही परिवार इस काम को करते हैं, उप्पर से लॉकडाउन ने रही बची कसर पूरी कर दी है. फोन में बातें करते हुए वो उदास से महसूस हो रहे थे. मौसम ठीक होने पर मैंने गांव में आने की बात कही. चारेक दिन बाद उन्हें फोन कर आने के बावत् पूछा तो उन्होंने बताया कि अभी उनका सांथी मजदूरी में गया है दो दिन बाद आएगा तो हमारा आना ठीक रहेगा. दो दिन बाद सुबह उनका फोन आया, ‘साबजी आज आ जाओ.. सांथी आ गया है..’ उस दिन मैंने असमर्थता जताई तो मायूस हो वो बोले कि उनका सांथी सागर आज का अपना काम छोड़कर आया है, तो मैंने उन्हें दोपहर तक गांव पहुंचने का वादा किया. दोएक घंटे में काम निपटाने के बाद खर्कटम्टा गांव का रूख किया. पौड़ीधार से आगे पाटली पहुंचने के बाद सुंदरजी से फोन पर गांव के रास्ते बावत् पूछा और पाटली से खर्कटम्टा गांव की मीठी पैदल चढ़ाई नापनी शुरू कर दी. इस गांव के ग्रामप्रधान मनोज कुमार भी हमारे सांथ हो लिए. खेतों के किनारे के रास्ते में देखा तो धान की फसल खराब हो चुकी थी. एक तो कोविड काल और उप्पर से किसानों की मेहनत में प्रकृति की ये मार. गांव की गलियों को पार किया तो पेड़ों के झुरमुट में आंगन में चारेक कुर्सियां लगी कुछेक लोगों को इंतजार करते पाया तो अनुमान लगाया कि यही सुंदरजी होंगे. तब तक पसीने से तरबतर हो प्रधानजी भी पहुंच चुके थे. पेड़ों की छांव में चारेक कुर्सियां लगाई गई थी. सुंदरजी और अन्यों से अभिवादन के बाद कुर्सियों में बैठे तो सुंदरजी आंगन के किनारे में बैठने लगे तो उन्हें भी कुर्सी में बैठने की गुजारिश की तो सकुचाते हुए वो कुर्सी में समा गए. तभी एक बालक ट्रै में कोल्ड डिंक के सांथ ही कुछेक गिलास ले आया तो सुंदरजी ने हमसे इसे लेने का आग्रह किया. अनमना सा हो मैंने उन्हें पानी पीने की ईच्छा जताई तो कुछेक पल उन्होंने हैरान हो नजरों ही नजरों में आपस में बात की और पानी का लोटा ले आए. थोड़ा सा पानी गिलास में डाला तो मैं इंतजार करते रहा कि कब ये गिलास को पूरा भरें. थोड़ा पानी डालने का उनका आशय समझ मैंने लोटा पकड़ा और गिलास भरकर दो बार पानी पी उन्हें आश्वस्त कराया कि मैं भी हाड़—मांस का बना उन्हीं की तरह ही इस धरती का इंसान हूं. मैं बैठा तो उनके सांथ था लेकिन मन कहीं पीछे चला गया था. बचपन में सिर के बालों की छटनी के बाद पीछे की ओर कुछेक बालों के गुच्छे को छोड़ दिया जाता था, जिसे चुटिया नाम दिया गया. हर बार वो बढ़ते चले जाते तो उस गुच्छे में गांठ लगाने की कोशिश की जाती थी, जो कभी सफल नहीं हो पाती थी. सांथियों के सांथ ही मास्टरजी के लिए यह एक अमोघ अस्त्र होती थी जिसे खींचकर जिंदा मां—बाप के सांथ ही धरती से गायब हो चुके आमा—बूबू के भी साक्षात दर्शन स्कूल में ही हो जाते थे. इस पर दु:खी हो मैं खुद ही चुपचाप उस शैतानी झुरमुट को दराती से काट कर छोटा कर लिया करता था. बाद में चप्पल के सांथ दोएक मुक्के की धमक भी पीठ में पड़ती थी, लेकिन मैं अपनी आदत से बाज नहीं आता था. बचपन में हरएक वो काम करने में मजा आता था जिसके लिए सख्त मनाही होती थी. ये सिलसिला वर्षों तक चलते रहा. एक बार बगावत कर डाली और बमुश्किल इससे मैं मुक्त हुवा तो असीम शांति मिली. मन के भटकाव से वापस लौटा और मैंने सुंदरजी को समझाया कि, हम पर्वतारोही हैं और पर्वतारोहियों का कोई धर्म—जात—पात नहीं होता, हमारा धर्म तो सिर्फ इंसानियत का ही होता है. मेरी बातों से वो थोड़ा सहज हुए. सुंदरजी से बातों का दौर चला तो वो अपनी पुरानी यादों में खोते चले गए. परिवार के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि, ‘बेटियों की शांदी हो गई, कुछेक साल पहले एकलौता बेटा भी दुनियां छोड़ उन्हें अकेला कर गया..’ मैंने तांबे के उनके पुश्तैनी ईतिहास के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि, ‘तांबे से बर्तन बनाने का काम तो उनकी पुश्तों में आजादी से पहले से ही होता आ रहा है. पहले तांबे का काम हर घर में होता था. कई बार हम कुछेक सांथी कारीगर गांव—गांव जाकर तांबे के पुराने बर्तनों की भी मरम्मत को चले जाते थे. गांव—घरों में टूटे गागर, तौले हम ठीक कर देते तो उन्हें भी राहत मिलती और नई डिमांड भी मिल जाती थी. हमारी आजीविका भी चलती रहती थी. बाद में धीरे—धीरे युवा पीढ़ी बाहर नौकरी में लगे तो यह काम कम होते चला गया. अब गांव में सिर्फ सागर, नंदन प्रसाद और मुझे मिलाकर तीन परिवार ही इस काम को कर अपनी आजीविका जुटाने में लगे हैं. लॉकडाउन के बाद से अब ये काम भी ठप्प पड़ गया है. अब सभी लोग मजदूरी कर परिवार का भरण—पोषण करने में जुटे पड़े हैं. सरकारें आती—जाती रहती हैं, हां! हमारे काम में मदद करने की बात पर आश्वासन जरूर देती रहती हैं, लेकिन किया किसी ने कुछ भी नहीं. हमारे क्षेत्र के नेता तो विधायक, सांसद भी रहे.. वोट के वक्त इन्हें भाई—भतीजावाद याद आ जाने वाला ठैरा.. जीतने के बाद ये फिर कभी दिखने ही वाले नहीं हुए..’ सुंदरजी ने अपने सांथी सागर को कारखाने में आग जलाने को कहा और हमें लेकर अपने कारखाना भट्टी में गए. भट्टी दहकने लगी तो उन्होंने चिमटे से तांबे के अधबने हुड़के को आग की लौ में तपाना शुरू कर दिया. हुड़का लाल हुवा तो उन्होंने उसे अपने औजारों से कलात्मक ढंग से हुड़के की शक्ल में ढालना शुरू कर दिया. ठंडा करने के बाद उसे जब साफ किया तो तांबे की सुनहरे चमक में वो हुड़का दमक उठा. मैं उनके काम को देख सोचने लगा, आग में तपने के बाद तांबे को कुशल कारीगरों के हाथ जब लगते हैं तो वो हर रोज की दिनचर्या में काम आने वाले नाना प्रकार के बर्तनों में ढलते चले जाते हैं. तांबे की प्लेट से किस तरह से नाना प्रकार के बर्तन बनते हैं उन्होंने हमें इस बारे में बताया. उनसे बातों में मालूम हुवा कि, खर्कटम्टा गांव को ताम्र शिल्पियों के गांव के नाम से जाना जाता है. आजादी से पहले खर्कटम्टा समेत जोशीगांव, देवलधार, टम्टयूड़ा, बिलौना आदि गांवों में ताम्र शिल्पी, तांबे से परम्परागत तरीके के उपयोगी बर्तन गागर, तौले, वाटर फिल्टर के सांथ ही पूजा, धार्मिक अनुष्ठान एवं वाद्य यन्त्र, तुरही, रणसिंघी बनाते थे. इस काम में महिलाएं भी उनकी मदद किया करती थी. तब ताम्र शिल्प उनका परम्परागत उद्यम माना जाता था. आजादी के बाद यह उद्यम काफी फैला भी और अपने औजारों को सांथ लेकर शिल्पी भी गांव—गांव जाकर लोगों के तांबे के पुराने बर्तनों की मरम्मत किया करते थे. तांबे व पीतल को जोड़कर बने गंगा जमुनी उत्पाद और पात्रों के विभिन्न हिस्सों को गर्म कर व पीटकर जोड़ने की तकनीक इस शिल्प व शिल्पियों की खासियत होती है. सुंदर लाल के सांथी सागर चन्द्र का कहना था कि अब गिने-चुने कारीगर ही विपरीत परिस्थितियों में भी अपने इस पैतृक व्यवसाय को जीवित रखे हुए हैं. वो बताते हैं कि तांबे से वो गागर, तौला, फिल्टर, परात, सुरई, फौला, वाद्ययंत्र रणसिंह, तुतरी, ढोल, मंदिर की सामग्री व शो-पीस आदि बनाते हैं जो कि अत्यंत शुद्ध माने जाते हैं. हांलाकि घरेलू ताम्र शिल्पियों की आजीविका पर मशीनी प्लांटों में बन रहे सामान से भी असर पड़ा तो है लेकिन अभी भी लोग हाथ से बनाए तांबे के बर्तनों को ही ज्यादा तव्वजो देते हैं. पुराने दिनों को याद कर सुंदरजी बताते हैं कि, ‘हम तीनों ने बीस साल तक रामनगर में कई बनियों के वहां काम किया. तांबे के बर्तनों की बहुत मांग होती थी. तब नेपाल समेत बड़े महानगरों में भी काफी सामान जाता था. बाद में हम अपने गांव में वापस चले आए. यहां भी हम मिलकर काम करते थे और पचास से साठ हजार रूपयों तक की बिक्री हो जाती थी. अब काम कम हो गया है. नई पीढ़ी का झुकाव मशीनों से बनी चीजों की ओर ज्यादा होने लगा है. जबकि हाथ से बने तांबे के बर्तन काफी मजबूत और शुद्वता लिए होते हैं.’ गौलाआगर में प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक के पद पर तैनात खर्कटम्टा क्षेत्र के निवासी अध्यापक संजय कुमार बताते हैं कि, चन्द्रवंशीय राजाओं के जमाने में उनके पूर्वज भी तांबे के सिक्कों को ढ़ालने का काम किया करते थे. ताम्र व्यवसाय को उसकी पहचान दिलाने के लिए केंद्र सरकार ने एससीएसटी हब योजना बनाई है ताकि ताम्र शिल्पियों को इसका फायदा मिल सके. इस योजना के तहत हस्तनिर्मित तांबे से बने पूजा पात्रों को चारधाम में बेचे जाने की योजना है. अब ये अलग बात है कि इस योजना से स्थानीय शिल्पियों को रोजगार मिलेगा या फिर ये काम भी मशीनों के हवाले कर दिया जाएगा. शिल्प कारीगर सुंदर लाल और उनके सांथियों को उनकी शिल्पकला के लिए पूर्व में उत्तराखंड सरकार के सांथ ही उद्योग विभाग से भी सम्मानित तो किया गया लेकिन उसके बाद उनकी किसी ने भी सुध नहीं ली. उम्र के इस पड़ाव में भी वो आजीविका के लिए तांबे में अपना हुनर निखारने में लगे ही रहते हैं. उन्हें बस मलाल इस बात का है कि उनकी ये कला उनके सांथ ही लुप्त होने जा रही है. जबकि वो कई बार विभाग से कह चुके हैं कि वो मुफत में अपनी जमीन देने को तैंयार हैं बशर्तें सरकार यहां शिल्प ट्रैनिंग सेंटर तो खोल दे.
डाॅ. दलीप सिंह बिष्ट आधुनिक समय में वैज्ञानिक हिमालय की तमाम अनुकूलताओं का अध्ययन कर अधिक से अधिक लाभ लेने की खोज में लगे हुए है, परन्तु जब हिमालय की सुरक्षा का प्रश्न उठता है तो उस पर चिंता अवश्य व्यक्त की जाती है पर इस मुद्दे को गम्भीरता से नही लिया जाता है। यही कारण है कि ऐवरेस्ट जैसी दुनिया की सबसे ऊँची पर्वतश्रृंखला भी मानव गतिविधियों का केन्द्र बनी हुई है। उत्तराखण्ड हिमालय से लेकर हिमाचल, जम्मू-ंकश्मीर तथा पूर्वोतर हिमालय की विभिन्न पर्वत श्रृंखलाओं को फतेह करने की प्रतिस्पर्धा लगातार बढ़ती जा रही है। फलस्वरूप, पर्वतारोहियों, सौन्दर्य प्रेमियों, पर्यटकों द्वारा हिमालय पर्वत श्रृंखला ओं के साथ-साथ धार-खाल, नदी-नाले, गाड-गदेरे विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक कचरे से पटते जा रही है जो कि पर्यावरणीय दृष्टि से खतरनाक प्रवृति की ओर संकेत कर रहा है। वनों के विनाश से हिमालय की अद्भुत संतुलनकारी शक्ति क्षीण होने से जलवायु में अनेक विघटनकारी परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। भूवैज्ञानिकों के अनुसार हिमालय पर्वत श्रृंखला अभी नवीनतम पर्वत श्रृंखला है जिसके कारण वह अपनी जगह पर ठीक से स्थिर नहीं हो पाई है। हिमालय की स्थिर दिखने वाली इन चट्टानों की मोटी-मोटी परतों के भीतर बड़ी-बड़ी दरारें है, जिनके संधिस्थलों में भूगर्भिक हलचल के कारण उथल-पुथल होती रहती है। इसी कारण यहां निरन्तर भूकम्प, भूस्खलन, भूक्षरण एवं बा-सजय जैसी घटनायें होती रहती है और इनको बढ़ाने में बाह्य कारक जैसे; सड़क एवं बांध निर्माण में हो रहे विस्फोटों तथा भारी मशीनों का महत्त्वपूर्ण हाथ हैं। क्योंकि पहले से नाजुक चट्टानों के सन्धिस्थल इन विस्फोटों से और भी जीर्ण-शीर्ण हो जाते है जो भूकम्प आदि के झटकों को सहन नही कर पाने के कारण एक बड़ी त्रासदी का कारण बन जाते हैं। एक ओर जहाँ सभ्यता के साथ-साथ मनुष्य ने विकास के कई महत्त्वपूर्ण आयाम खोज निकाले है, तो वहीं दूसरी ओर प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करके उसने सारे जैव-मण्डल में पर्यावरण असंतुलन की स्थिति पैदा कर दी है। पर्यावरण में परिवर्तन के प्रमुख कारण बड़े पैमाने पर हो रहे औद्योगिकीकरण के लिए वनों का कटान, परिवहन सुविधाओं के विस्तार के लिए सड़कों का निर्माण, संचार एवं अन्य आधुनिक सुविधाओं के साथ-साथ आबादी में बेतहाशा वृद्धि ने स्वच्छ पर्यावरण के संरक्षण में कठिनाइयां पैदा कर दी है। प्राकृतिक रूप से बहने वाली वेगवान नदियों की धारा को मोड़कर मनुष्य ने अपने विकास और उत्थान की अंधी दौड़ में प्राकृतिक नियमों के विरूद्ध जो कार्य किये है। उसी का नतीजा है कि कुछ वर्षों से प्रकृति में ऐसी घटनायें घट रही है जिनका शायद ही किसी को कभी आभास रहा हो। लेकिन जिस प्रकार से प्रकृति धीरे-धीरे अपना विध्वंसक रूप धारण कर रही है उससे स्वंय मनुष्य का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है जिसके लिए वह खुद जिम्मेदार है। हिमालय हमारी धार्मिक आस्था का आधार ही नही है, वरन् लाखों प्रजाति के पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियों और बहुमूल्य जीव-जंतुओं का निवास स्थल भी हैं। हिमालय का आज हम जिस प्रकार दोहन करते जा रहे है उससे हिमालय को भारी नुकसान पहुंच रहा है। गाँधी जी ने कहा था कि ”यह धरती अपने प्रत्येक निवासी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए यथेष्ट साधन उपलब्ध करती है परन्तु व्यक्ति के लालच की पूर्ति नही कर सकती है।” हिमालय से निकलनी वाली नदियां जीवन के लिए अमृततुल्य है जिन पर देश की 65 प्रतिशत से अधिक आबादी का जीवन निर्भर करता है जो उनकी रोजी-रोटी से भी जुड़ा है। देश की जलवायु एवं मौसम को नियंत्रित करने के साथ ही उत्तरी ध्रुव की ओर से आने वाली तेज एवं ठंड़ी हवाओं से भी हिमालय भारतीय उपमहाद्वीप की रक्षा करता हैं। हिमालय अपनी विशिष्ट भौगोलिक संरचना के कारण भारतीय उपमहाद्वीप के लिए युगों-युगों से एक प्रहरी की भूमिका भी निभाता आ रहा है जो हमारे सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न अंग है। विश्व में भोगवादी व्यवस्था एवं मनुष्य की प्रकृति पर विजय पाने की प्रतिस्पर्धा ने सम्पूर्ण हिमालयी पर्यावरण को तहस-नहस करके रख दिया है, जिसके कारण आज प्राकृतिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा का प्रश्न खड़ा हो गया है। यही नही विभिन्न प्रकार की पादप एवं जीव-जन्तुओं की प्रजातियां जो लगातार इस जैव-ंउचयमण्ड़ल से लुप्त होती जा रही है, उनके अस्तित्व को बचाये रखने के चुनौती भी सबके सामने है। विकास नदियों में बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण, उद्योगों के नाम पर खनन, वन उपज का शोषण एवं दोहन करके वे चीजें चलन में लाना चाहता है जिनकी बुनियादी आवश्यकता तो नही है, परन्तु उनके उपभोग के द्वारा अधिक से अधिक सुख-सुविधायें भोगना चाहता है जिसे विकास की दृष्टिसे प्रगति कहा जाता है। लेकिन पर्यावरण की दृष्टि से अत्याचार, शोषण एवं विनाश का प्रतीक है। जिसका दण्ड प्रकृति कभी जानलेवा गर्मी, सर्दियों में अत्यधिक ठंड, बरसात में अनियंत्रित वर्षा, भूस्खलन, भूक्षरण, बा-सजय, बादल फटना, हिमालयी सुनामी जैसे प्राकृतिक आपदाओं के रूप में देती रहती है और यदि यहीं स्थिति बनी रही तो आगे भी मनुष्य को प्रकृति के कोपभाजन बनने से कोई नहीं बचा सकता है। यहां प्रश्न उठता है कि जबसे हमने हिमालय बचाओं प्रतिज्ञा लेनी शुरू की है तब से हिमालय के संरक्षण में क्या कोई परिवर्तन आया है या नही? पर्यावरण दिवस के नाम पर प्रतिवर्ष बरसात के मौसम में स्कूल, कालेज, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों विधानसभाओं, संसद भवन एवं विभिन्न सरकारी सस्थाओं में लाखों पेड़ लगाये जाते है जिनको लगाते हुए खूब फोटो खीची जाती हैं पर इनमें कितने वृक्ष जीवीत हैं इसका किसी को पता है? यदि वृक्षारोपण के समय लगाये गये पेड़ जीवीत है तो इन संस्थाओं में गिनती के ही वृक्ष क्यों नजर आते है? और यदि हम उन वृक्षों को बचा नही पाये हैं तो ऐसे वृक्षारोपण का क्या लाभ है? वन विभाग भी प्रतिवर्ष वृक्षारोपण कार्यक्रम चलाकर लाखों वृक्षों को लगाता/लगवाता है आखिर हर वर्ष इतनी संख्या में वृक्षारोपण की आवश्यकता क्यों पड़ रही है? क्या यह मात्र खानापूर्ति तो नही है? ऐसे में हिमालय बचाओं की प्रतिज्ञा भी पर्यावरण दिवस की तरह प्रतिवर्ष प्रतिज्ञा लेने तक ही सीमित न रह जाय? क्योंकि हिमालय में प्रतिवर्ष दावाग्नि से ही लाखों पेड़-पौधे, जीव-जन्तु यानि पूरी जैव-विविधता नष्ट होती है जिसको बचाने का हम कोई उपाय नही ढूंढ पाये है? क्योंकि वैज्ञानिक भी धरती के बजाय दूसरे ग्रंहों पर जीवन की चिंता में रत है। इसीलिए सूर्य, चन्द्रमा पर जीवन की खोज करने में तो सफल हो गये है पर धरती पर जीवन को कैसे बचाया जाय इस पर सोचने का समय ही नही है। भविष्य की चिंता में हम वर्तमान को खोते जा रहे है जबकि आज अगर सुरक्षित होगा तो कल अपने आप खुशहाल होगा, परन्तु वास्तव में हम हिमालय के प्रति गम्भीर नही है। अतः यदि हम हिमालय के वनों को केवल आग से ही बचा पाने में सफल हो गये ंतो यही हिमालय बचाने की सबसे बड़ी प्रतिज्ञा होगी। ( असिस्टेंट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, राजनीति विज्ञान, अ. प्र. बहुगुणा राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय अगस्त्यमुनि, रुद्रप्रयाग)