जैं श्री ह्या पुक्टांग सैं ‘ईष्ट देव’ ग्राम- सेला

नरेन्द्र न्यौला पंचाचूली
दारमा घाटी के ग्राम सेला, जन प्राचीन काल से ही जैं ‘श्री ह्या पुक्टांग’ सैं को अपना ईष्ट देव/स्यंग सैं मानते हैं। सेलाल जनों का /सेलालों का मानना है कि जैं श्री ह्या पुक्टांग सैं सृष्टि की रचना के समय से ही धरती पर अवतरित हुए और वे आदि देव महादेव का ही अवतारक शिव अंश है।
ग्राम सेला की उत्तरी दिशा में विशाल ‘पांगर’ के वृक्षों के मध्य ‘श्री ह्या पुक्टांग सैं’ का मूल मन्दिर स्थित है। श्रद्धालु श्रद्धासुमन भाव से ह्या पुक्टांग सैं के मूल मन्दिर में नतमस्तक होकर सुख- शान्ति, समृद्धि , सौभाग्य प्राप्त होने का वरदान मांगते हैं। सच्चे मन से मांगे गये वरदान जरूर पूर्ण होते हैं। ग्राम सेला वासियों का मानना है कि ह्या पुक्टांग सैं सृष्टि के पालनहार है और वे दिव्य शक्तियों से परिपूर्ण ‘शिव अंश’ है।
जैं श्री ह्या पुक्टांग सैं की महिमा- जैं ह्या पुक्टांग सैं की महिमा का साक्षात दर्शन ग्राम डंगरिया /धामी के द्वारा ग्राम जनों को होता है। सभी ग्रामवासी मिलकर जब सैंथान /भगवान का स्थल में ‘नौर्ता’ /जागर का आयोजन करते हैं, ढोल, दमै-छिलांग की आवाज पर डंगरिया /धामी के शरीर में ईष्ट देव अवतरित होते हैं। डंगरिया /धामी जी के ज्येष्ठ पुत्र ही धामी होते हैं, उन्हें ईष्ट देव के दिशा-निर्देशानुसार नियम का पालन करना पड़ता है। डंगरिया जी के दिशा निर्देशानुसार में ग्राम के सभी प्रकार के संस्कार सम्पन्न होते हैं। आदि काल से ही ‘ह्या पुक्टांग सैं’ ने गाँव की रक्षा हेतु एक ऐसी व्यवस्था बनाई है कि जब ईष्ट देव ‘जैं ह्या पुक्टांग सैं’ जप-तप और साधना में लीन होते हैं, तब ग्राम को अयाल-बयाल, रोग-ब्याग, प्राकृतिक विपत्ति और अन्य बाहरी समस्याओं से बचाने के लिए ईष्ट देव भैरव के रूप में ‘श्री हुल्ला सैं’ को ग्राम रक्षक के रूप में नियुक्त करते हैं। यूं तो समय-सम पर भक्तजनों को ह्या पुक्टांग सैं की अपार दिव्य शक्तियों की कृपा से हम सब रं जन परिचित हैं परन्तु कुछ साक्षात घटनाएं इस प्रकार हैं-

घटना 1- आज से लगभग चार दशक पूर्व की बात है, जब ‘जैं ह्या पुक्टांग सैं’ के देवालय स्थल पर ग्रामजनों ने नौर्ता /जागर लगा रखा था, उस दिन सुबह से ही गर्जना भरी घनघोर मूसलाधार बारिश हो रही थी। नौर्ता /जागर में आग की धूनी जल रही थी। फिर भी इस धूनी के चारों ओर लोग पेड़-पत्थरों की आड़ में दुबक कर बैठे थे, तभी ग्रामजनों की इस भक्ति से प्रसन्न होकर धामी श्री दरपान सिंह जी के शरीर में साक्षात ह्या पुक्टांग सैं अवतरित हुए और उन्होंने अपने हाथों में अक्षत /ठुमू पछम लेकर मसलते हुए आसमान की ओर उछाल कर बारिश को रुकने का दशारा किया, देखते ही देखते एकाएक बारिश रुक गयी। घनघोर मौसम पूरी तरह साफ हो गया और जागर का कार्यक्रम सुचारु ढंग से चलता रहा।

घटना 2- ‘जैं ह्या पुक्टांग सैं/स्यांग सैं’ के मूल स्थल पर एक दिन पूजा-पाठ नौर्ता /जागर के दौरान कुछ महिलाओं के शरीर पर देवी अवतरित होने लगी, इस साक्षात दैवीय घटनाचक्र को शान्त करने के लिए ईष्ट देव/ स्यांग सैं ने डंगरिया /धामी ‘मुख्य पंडित’ के शरीर में अवतरित होकर अक्षत /ठुमू पछम के कुछ दाने साक्षात देवी घटनाचक्र /कांपती हुई, महिलाओं की ओर उछाल दिये, देखते ही देखते अवतरित देवी ‘कांपने वाली सभी महिलाएं’ शान्त होकर अपने-अपने स्थान पर जागर बैठ गई। इससे स्पष्ट हो जाता है कि र्दष्ट देवता ‘ह्या पुक्टांग सैं’ की अनुमति के बिना उनके जागर में अन्य कोई देवी-देवता किसी भी भी रूप में अवतरित नहीं हो सकते हैं।

घटना 3- एक और नौर्ता /जागर के दौरान की बात है। ‘ह्या पुक्टांग सैं’ /जैं इष्ट देव की जैं जागर स्थल में गाँव और रिश्तेदारों के विशाल जन समूह एकत्र थे। रात्रि के लगभग 8.30 बजे का समय था, जब डंगरिया /धामी जी के शरीर में ईष्ट देव अवतरित हुए। वहाँ उपस्थित लोगों ने देवता से विनती की कि- हे ईष्ट देव! बाघ ने हमारे जानवरों को विचलित कर रखा है और लगातार जानवरों की हत्या कर रहा है। हमारे उपर इसके समाधान हेतु कृपा करें। तभी तुरन्त धामी जी ने तीन बार सीटी बजायी। देखते ही देखते बाघ उछलते हुए, हवा की गति सी तेज रफ्रतार से मन्दिर परिसर के उपर आकर बैठ गया। जीभ बाहर निकाल लपलपाने लगा। सभी ग्रामजन यह देख भयभीत हो गये, सभी ने ईष्ट देव-हे ईष्ट देव रक्षा करें का उच्चारण किया। धामी जी ने एक लाल कपड़े की ध्वजा /दाजा से अक्षत /ठुमु पछुम बांधकर जलती धूनी के अंगारों के बीच से राख उठाकर, मंत्र फंूककर एक गाँठ बनाई और बाघ के गले में बाँध् दिया। साथ ही उसके कानों में मंत्र सिद्ध कर धूनी के चारों ओर परिक्रमा करवा कर, दूर जंगल की ओर जाने का इशारा किया। और वह बाघ जंगल की ओर चला गया। डंगरिया ने कहा कि अब यह बाघ हमारे गाँव में नहीं दिखाई देगा। इस घटनाक्रम को देखकर लोग अचम्भित रह गये। उन्हेें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जो घटनाक्रम घटा वह सच्चाई है या स्वप्न था। जैं ईष्ट देव की इस माया को देख लोग प्रसन्न, भाव-विभोर हो गये और स्वयं को सेला-ग्रामजन समझकर बहुत धन्य समझने लगे।

ये तीन-चार साक्षात घटनाक्रम के साथ ‘जैं श्री ह्या पुक्टांग सैं’ की अन्य माया-कृपा ग्राम डंगरिया जी /धामी के माध्यम से ग्रामजनों को सन्तान प्राप्त करना हो या किसी जंगली जानवरों के आतंक-भय से ग्राम के जानवरों को बचाना हो, फसली मौसम पर कृपा करवानी हो, या किसी भी प्रकार की परेशानियों को ईष्ट देव/स्यांग सैं ;जैं ह्या पुक्टांग सैं जागर /नौर्ता के उन फलों में साक्षात धामी जी के शरीर में अवतरित होकर हमें आशीर्वाद देता है और समस्याओं का समाधान कर हमारे उपर कृपा करते हैं। हम ‘सैं समा’ के हमेशा रिणी रहेंगे.

जय श्री हुरबी पहलवान जी (जै रं बाहुबली)

जै हुरबी रं बाहुबली का गाँव बोंगलींग/बौंग्लींग
नरेन्द्र न्यौला पंचाचूली
प्राचीन काल में रंग लुंग्बा के दारमा घाटी, ग्राम- बोंगलींग/बौंग्लींग में बाहुबली मानव ‘हुरबी’ पहलवान रहता था। वे कुश्ती पहलवानी करते-करते इतने पहलवान हो गये कि वह रं लुग्बा का बाहुबली मानव कहलाने लगे। हुरबी पहलवान को रं लुंग्बा के कोई भी पहलवान पहलवानी/कुश्ती में पराजित नहीं कर पाते थे। इस प्रकार उन्होंने अपने समय में पहलवानी में इतिहास रचा, जिसके कारण आज भी हम उन्हें याद करते हुए और जय दारमा ‘भीम’ के नाम से भी सम्बोधित करते हैं। यह उस सदी की बात है जब रं लुंग्बा के पुरुष अपने कमर में हल की रस्सी बाँधकर खेत की जुताई किया करते थे।
प्राचीन समय से ही रं लुंग्बा जनों ने नेपाल हुमला-झुमला प्रान्त के झुमलियों के द्वारा जबरदस्ती कर वसूली व अमानवीय आतंकित लूटपाट का दंश समय-अन्तराल समय-समय पर झेला था। ये लोग रं लुंग्बा जन बहुत ही सीधे-साधे विचार के रहे हैं।
पहली घटना- एक बार लगभग 50-60 झुमलियों के समूह ने जबरदस्ती कर वसूली व आतंरिक लूटपाट करने के वास्ते नेपाल देश के हुमला-जुमला प्रान्त से बंगबा चैंदाँस घाटी के रिमझिम, हिमखोला ग्राम के पहाड़ की चढ़ाई कर पहाड़ की दूसरी ओर दारमा क्षेत्र का लंगदारमा, दैर्री /हेरी, फकल, नामक क्षेत्र में पहुँच कर नदी पार कर तल्ला दारमा, ग्राम बौंगलींग में प्रवेश किया। ग्राम जनों ने झुमलियों के द्वारा की जाने वाली जबदस्ती कर वसूली का विरोध् किया, झुमली लोग डराकर आतंकित लूटपाट पर उतारु हो हो गये, उसी पल दोनों गुटों में बहस हो गयी पर कुछ बुद्धिजीवी ग्रामजनों ने जबदरस्ती आतंकित लूटपाट से बचने के लिए एक कूटनीति चाल चली। हम आपको दोगुना टैक्स/कर देंगे, पर जब आप लोग हमारे हुरबी जी को कुश्ती में हरा पाओगे।
झुमलियों ने हुरबी पहलवान जी को सामान्य व्यक्ति समझकर इस कुश्ती चुनौती को स्वीकार कर लिया और कुश्ती का मुकाबला ग्राम के चैथरा थंग में शुरु करवाया गया। बाहुबली हुरबी पहलवान ने एक-एक करके अधिकतर झुमलियों को अकेले ही हरा दिया और हारे हुए झुमलियों में से 10-15 झुमलियों को अकेले ही को कुश्ती में क्ररता से इतना घायल कर दिया कि एक-ढेड़ घण्टे के समय अन्तराल में उनकी मृत्यु हो गयी।
बाहुबली हुरबी पहलवान जी के इस भयंकर क्रूर रूप को देखकर बचे झुमली लोगांे ने वहाँ से बचकर भागना ही ठीक समझते हुए, बंग्बा ;चैंदाँस की ओर भाग निकले और अन्त में गुस्से से जय श्री हुरबी पहलवान जी ने वहाँ मरे झुमलियों के सिर काट कर उनकी खोपड़ियों को गाँव से दूर जंगलों के मध्य उनका एकान्त नियमित अभ्यास स्थल पर स्थित पर ओखली में डालकर मुसले से कुटे, इस घटना के बाद से ग्राम जन हुरबी पहलवान जी को ग्राम रक्षक देव रूप में पूजते हैं। यह ओखली विशाल ठोस पत्थर पर बनी हुई है, ऐसी मान्यता है। यह खूनमखून लाल रक्त-रंगनुमा ओखली निशान चिन्ह आज भी उस स्थान पर बाहुबली हुरबी पहलवान जी के साक्ष्य के रूप में विद्यमान है। यह लाल रक्त नुमा ओखली बाहुबली हुरबी के नियमित अभ्यास के दौरान मुक्का-मुट्ठी मार-मार कर बना हुआ है। यह बात नागलिंग जैं श्री कल्या लौहार जी के समय काल का ही माना जाता है। इस जबरदस्ती कर वसूली आतंकित लूटपाट घटनाक्रम के बाद शताब्दियों तक पुनरावृत्ति करने की इन झुमलियों ने दुबारा कोशिश नहीं की।
दूसरी घटना- एक दिन ग्राम बौंग्लींग, बस्ती के समीप उपर बड़ा सा चट्टानी पत्थर पर जय जय श्री हुरबी पहलवान जी ने गुस्से से जोर से घूंसा जड़ दिया और उस पत्थर पर दरार पड़ गयी। ग्रामवासियों को वह पत्थर के टूटकर मकानों पर गिरने का डर बना रहता था।
उस पत्थर को टूटकर गिरने से रोकने के लिए ग्राम जनों ने जय श्री कल्या लोहार जी से टाँका लगाने का अनुरोध् किया और संकट मोहक जै श्री कल्या लोहार जी ने ग्राम जनों को बचाने के वास्ते उस पत्थर में टाँका लगा दिया। यह पत्थर आज भी वैसा ही मौजूद है। बाहुबली जैं श्री हुरबी पहलवान और जैं श्री कल्या लोहार जी को संकट मोचक के रूप में पूज्यनीय माना जाता है।

कथा- राजा श्री चर्यक्या ह्या-प्रथम

नरेन्द्र सिंह दताल
उत्तराखण्ड के न्यौला पंचाचूली हिमशिखर के ठीक सामने बसा ग्राम दाँतू ;दंग्तों के टिटम बं-चर्यक्या दं/टाॅप नामक स्थान पर ‘दारमा’ के प्रथम शासक राजा श्री चर्यक्या ह्या का किला था, यह ‘टिटम दं बं- चर्यक्या दं’ स्थित किला ग्राम दाँतू के उच्च पर्वत माला का ऐसा उच्चनुमा समतल भू-भाग पर निर्मित था, मानो यह किला स्वयं में प्रहरी हो। किसी भी आक्रमणकारी दुश्मनों का चारों तरफ से आसानी से किला तक पहुँच पाना असम्भव था। इस कारण यह उच्च पर्वतमाला चर्यक्या दं बं चारों दिशा के स्थलीय मार्गों से सुरक्षित था। ग्राम दाँतू से चर्यक्या दं किला तक पहुँचने का एकमात्र उपयोग सबसे नजदीक खतरनाक चट्टानी चढ़ाई वाला मार्ग है। ये स्वतन्त्र रं शासक थे, इस किले की दीवारों के अवशेष के साक्ष्य आज से दो दशक पूर्व तक स्पष्ट देखने को मिलते थे। इस रं शासक के किले से तीनों दिशाओं में स्थित अधिकतर ग्रामों जैसे- दाँतू, दुग्तू, सौंन, बौंन, फिलम, गौ, होला, ढाकर, दिदंग जो आज भी चर्यक्या टाॅप से दिखाई देते हैंै। इस उच्च टिटम बं थं- चर्यक्या दं स्थल के चयन का भौगोलिक कारण यह भी हो सकता है- यह स्थान पूरे दारमा ग्राम का ऐसा उच्च सुरक्षित स्थल है जहाँ पूरे शीतकाल का अत्यधिक शीत माह दिसम्बर-जनवरी के कुछ दिनों को छोड़कर अन्य शीत माह के चार-पाँच दिन से अधिक दिनों तक बर्फ नहीं जम पाता है क्योंकि इस स्थल पर ‘सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक’ पर्याप्त मात्र में सूर्य का प्रभाव बना रहता है।
‘राजा श्री चर्यक्या ह्या-प्रथम’ की दो रानियाँ थी, एक पटरानी, दूसरी दासीरानी। दोनों रानियों से एक-एक पुत्र प्राप्त हुए। दोनों ही बाल राजकुमार चर्यक्या ह्या की भाँति नयन-पक्ष, तेजस्वी-आकर्षक, सुन्दर दिखते थे। कुमाउँ के उत्तर-पूर्व हिमालय हिम क्षेत्रों ;सीमान्त परिक्षेत्र व पश्चिम तिब्बत प्रान्तों के शासकों में से ‘राजा चर्यक्या ह्या-प्रथम’ उस काल के ढाल तलवार युद्ध कुशलता से परिपूर्ण शौर्यवान, प्रतिष्ठित शासक थे। राजा श्री चर्यक्या ह्या-प्रथम के अन्तर्गत आने वाले 18 से 20 ग्रामों के सभी ग्रामवासी सम्पन्न व खुशहाल थे, इसी कारण राजा श्री चर्यक्या ह्या-प्रथम के राज्य का नाम उत्तर पूर्व हिम क्षेत्र कुमाउँ पश्चिम तिब्बत हिम सीमान्त प्रदेश तक था। उस काल में इस राजा श्री ने कभी भी दूसरे छोटे ग्रामों व अन्य प्रान्तों को युद्ध नीति से जीतने की कोशिश नहीं की, और न ही दूसरों पर अपना जबरदस्ती अधिकार जमाया। माना जाता है कि एक बार राजा श्री चर्यक्या ह्या-प्रथम के पटरानी के पुत्र गम्भीर रूप से बीमार थे। काफी इलाज करवाने पर भी बाल राजकुमार स्वस्थ नहीं हुए। राजा को पश्चिम तिब्बत प्रान्तीय राजा लामा जी की ‘आध्यात्मिक शक्ति ज्ञान नाड़ी जड़ी विद्या’ के बारे में पता चला और राजा श्री ने पश्चिम तिब्बत प्रान्तीय ‘राजा लामा’ जी को बाल राजकुमार के इलाज हेतु सन्देशवाहक को भेजा। राजा लामा जी रं लुंग्बा, दारमा घाटी भ्रमण दर्शन व उपचार करवाने हेतु ग्राम दाँतू पहुँचे। यहाँ से खूबसूरत दिखाई देने वाला जै न्यौंला सै। पंचाचूली पर्वत श्रृंखला ;पाँच पाण्डव हिम शिखर की नैसर्गिक खूबसूरती को निहारते रहे, साथ ही लामा जी ने ग्राम दाँतू मैदानी खेत के मध्य स्थित ‘प्राचीन नामचिंम बावे जल स्रोत’ से पानी पिया। यहीं आराम करने के लिए रुके। राज श्री चर्यक्या ह्या-प्रथम के बार-बार उच्च स्थान पर स्थित राज भवन आने के अनुरोध् पर भी वे राज भवन न जाकर ‘नामचिम बावे थं’ से जैं न्यौंला पंचाचूली हिमशिखर की खूबसूरत विहंगम दृश्य को निहारते और आध्यात्मिक का आनन्द लेते हुए यहीं टैन्ट लगवाकर रुके। यहीं से ही अस्वस्थ्य बाल राज कुमार को ‘दूर नाड़ी विद्या ज्ञान’ के माध्यम से उपचार करने की हामी भरी और राजा श्री को चिन्ता न करने की बात कही, साथ ही उपचार शुरु किया। राज लामा जी ने ‘छम बें ;बकरी के उन से बिना हुआ धागा’ का एक सिरा अस्वस्थ बाल राजकुमार के कलाई में बाँध्ने का सन्देश भेजा। राजा श्री चर्यक्या ने सोचा कि इतने दूर से ऐसा कैसे इलाज हो सकता है। इस शंका से राज लामा जी इस ‘आध्यात्मिक शक्ति विद्या-दूर जड़ी ज्ञान’ को परखने के लिए सर्वप्रथम उस धागे को कुत्ते की टाँग में बांधकर दूसरा सिरा नीचे नामचिन बांवे थं स्थित राज लामा जी के पास भिजवाया, राज लामा जी ने उस धगे के दूसरे सिरे को पकड़ देख-परखकर बता दिया कि यह धागा कुत्ते के पैर पर बँध है, इस प्रकार राजा श्री चर्यक्या जी की शंका दूर हो गई। फिर दूसरी बार राजा श्री अपने अस्वस्थ्य बाल राजकुमार की कलाई में धागे का एक सिरा बांधकर धागे के दूसरे सिरे को नीचे राज लामा जी के पास भिजवाया। लामा जी ने उस उस धागे को देख परखकर सही बताते हुए कहा कि यह धागा आपके अस्वस्थ्य बाल राजकुमार की कलाई में बंधा है। अस्वस्थ्य बाल राजकुमार का इलाज ‘आध्यात्मिक शक्ति विद्या-दूर नारी जड़ी-बूटी ज्ञान’ के द्वारा शुरु किया। लगातार 9-10 दिनों का दूर नाड़ी जड़ी ज्ञान के माध्यम से विभिन्न जड़ी अर्च, सर्पगन्ध, अतीस, कटकी, हत्ताजड़ी, छिवी ;गन्द्रायणी, गजरी ;मीठा अतीस गोकुल मासी आदि मुख्य जड़ी औषधियों जड़ी-बूटियों का प्रयोग कर उपचार किया। धीरे-धीरे अस्वस्थ बाल राजकुमार पूर्ण रूप से स्वस्थ्य हो गया। अन्ततः दारमा राजा श्री चर्यक्या ह्या-प्रथम इस तिब्बत प्रान्तीय राज लामा के आध्यात्मिक शक्ति विद्या-दूर जड़ीबूटी ज्ञान ;दूर नाड़ी जड़ी ज्ञानद्ध से अअत्यधिक प्रसन्न व उनसे प्रभावित होकर उन्हें बहत सारा उपहार के साथ बहुत सारे चाँदी सोने के सिक्के भेंट स्वरूप दिये और राज लामा जी के ज्ञान को बहुमूल्य सोने से तुलना करते हुए उन्हें ‘जं लामा’ की उपाधि दी गई ‘स्थानीय शब्द ‘‘जं’’ को सोना कहते हैं।’ राजा श्री चर्यक्या ह्या-प्रथम अत्यधिक प्रसन्न होकर ‘जं लामा’ ;राज लामाद्ध जी से यहीं बस जाने/रहने हेतु निवेदन किया पर ‘जं लामा’ जी ने कुछ दिन और यहाँ आध्यात्मिकता को महसूस कर वापस पश्चिम-तिब्बत अपने प्रान्त, अपने देश लौट गये। उसी कालान्तर में तिब्बत के राजा की यौवनावस्था निःसन्तान ही बुढ़ापे की ओर बढ़ रहा था। तब वहाँ के तत्कालीन धर्म लामाओं के मुख्य राज लामा ने सुझाव दिया क्यांे न चारों दिशाओं से योग्य बाल राजकुमार को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया जा सके।
तिब्बत राजा श्री ने सहमति देते हुए, प्रतिनिधि मण्डलों को चारों दिशाओं में भेजा। ऐसा ही एक दल पश्चिम तिब्बत प्रान्तीय राज लामा/जं लामा के सुझाव से रं लुंग्बा दारमा घाटी की ओर आया, वे दल खुफिया रूप से दारमा घाटी के ‘ढावें’ नामक स्थान व पश्चिम तिब्बत प्रान्त के यांग्ती घाटी के ग्राम यानंग के बिल्कुल सीमा पर व्यापारिक शिविर स्थापित करके रहने लगे, ;यह सीमा प्राचीन भोट देश का लगभग मध्य भूभाग क्षेत्र होता थाद्ध और उन्होंने यहाँ के दारमा शासक की जमीनी स्तर की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करते हुए उनकी नजर राज लामा/जं लामा जी के कहे मुताबिक यहाँ के सुन्दर बाल राजकुमार पर पड़ी। उन्होंने इस सुन्दर राजकुमार को चुराने का निर्णय किया। एक दिन योजना के मुताबिक बाल राजकुमार को राज भवन स्वार्थी लोगों के साथ मिलकर चुपचाप चुराने की कोशिश की, पर वे सफल न हो पाए। क्योंकि दोनों ही बाल राजकुमार राजा श्री चर्यक्या ह्या-प्रथम की भाँति अति सुन्दर तेजस्वी आकर्षक थें पिफर उस प्रतिनिधि मण्डल सदस्यों के साथ मिलकर चुपचाप उठाकर उनकी आँखों में पट्टी बांधकर अपने शिविर ;दारमा घाटी-यांग्ती घाटी के सीमा ले गये और बालकों को बहला फुसलाकर आगे की ओर चलते गये। दोनों बालकों को दारमा-यांग्ती सीमा से आगे ‘चिल्ती’ घाटी के चिलंग नामक स्थान उनके पढ़ाव पर एक खेल खेलते देखा। दोनों बालक राजकुमार समतल बहती नदी के किनारे का पानी को प्रवाहित करने के लिए गूल /कुला बनाते हुए, एक स्थान पर तालाब बनाये और तालाब के ठीक नीचे एक छोटा सा पुल बनाया, उपर बने तालाब के पानी को अकस्मात छोड़कर कौतुलह से देखने लगे कि पानी पुल को बहा सकता है या नहीं। इस खेल में गूल;कूलाद्ध, तालाब और पुल के क्रियाकलाप को प्रतिनिधि मण्डल ने देखा कि एक बाल राजकुमार आदेश दे रहा है व दूसरा बाल राजकुमार आदेशों का पालन कर रहा था। इस घटनाक्रम त्रमें उन प्रतिनिधि मण्डल प्रमुख को विश्वास हो गया कि आदेश देने वाला बालक ही शासक बंश का असली राजकुमार होगा। अतः उन्होंने दूसरे बाल राजकुमार को वापस ग्राम दाँतू के निकट ;जहाँ आज महान दानवीरांगना लला जसुली देवी की मूर्ति स्थापित है, वहाँ से थोड़ा आगे छोड़कर चले गये और दारमा राजबंशी बाल राजकुमार को लेकर पश्चिम तिब्बत प्रान्त की ओर चले गये। चारों ओर दिशाओं से लाए गए बाल राजकुमारों में से ‘च्र्यक्या ह्या-द्वितीय’ बाल राजकुमार को सबसे तेजस्वी आकर्षक और उसकी खेल निपुणता को देखते हुए कुछ महीनों के बाद उस बालक को तिब्बत देश का पश्चिम तिब्बत प्रान्त के राजा का उत्तराधिकारी घोषित किया गया। बाल राजकुमार चर्यक्या ह्या द्वितीय की देखरेख दारमा दाँतू उपचार हेतु आए ‘राज लामा/जं लामा’ की छत्रा छाया में खूब सेवा होने लगी और धीरे-धीरे बाल राजकुमार दारमा के दाँतू में व्यतीत समय भूलता चला गया। इस बाल राजकुमार को रं लोक परम्परा ;लोक गाथाओं मेें न्युंगु मिनु चर्यक्या ह्या द्वितीय ;हमारा छोटा चर्यक्या ह्या द्वितीय नाम सम्बोधित ;न्युंगु तिब्बत चु चर्यक्या ह्या द्वितीय से भी स्मरण करते हैं। ‘राजा श्री चर्यक्या ह्या-प्रथम’ के दोनों राजकुमारों का चिल्ती घाटी के ग्राम चिलंग नामक स्थान पर खेलने के लिये उस समय बनाया गया पानी के गूल ;कुलाद्ध, तालाब व पुल इत्यादि के निशान आज भी विद्यमान हैं। ;ऐसा प्रागैतिहासिककाल व अंग्रेज समय काल में पश्चिम तिब्बत प्रान्त में व्यापार के लिए जाने वाले हमारे बुजुर्गों ने हमें बताया, उस प्रमाण के बारे में. महिनों-साल बीतने के बाद एक दिन जब बाल राजकुमार चर्यक्या ह्या द्वितीय ने भोज्य पदार्थ के अतिरिक्त अन्य खाद्य भोजन की इच्छा पूछी गई तो च्र्यक्या ह्या-द्वितीय ने कहा ‘जंग गु गंदू/सिल्दू, चरपा व मुल गु गुठे’ ;सोने का गोल डल्ला, चाँदी की रोटी खाने की इच्छा जताई। तात्पर्य है, बें ;फाफर/ओगल के आटा से तैयार पीला सोना रंगनुमा कच्चा गोल डल्ला/चरपा और पलती ;कुट्टू के आटा में तैयार सफेद-सिल्वर रंगनुमा रोटी खाद्य पदार्थ। तिब्बतियों को यह खाद्य पदार्थ का नाम अजीबोागरीब लगा क्योंकि तिब्बत में खेती बहुत ही कम मात्रा में होती है। तिब्बती लोग दूध्, दही, मक्खन और मांस का प्रयोग खेती-खाद्य से अधिक मात्रा में करते हैं। वे इस रहस्यमयी खाद्य पदार्थों की खोज में प्रतिनिधि मण्डल सदस्य, व्यापारी के रूप में दारमा पहँचे। उन्हें ‘जं गु गंदु-मूल गु गुठे’ के बोर में ठीक से ज्ञात हुआ और वे व्यापार में इसे विनिमय कर दारमा-घाटी से बें ;फाफर और पलती ;कट््टु तिब्बत ले गये।
तिब्बत देश जाकर बाल राजकुमार को खोज न कर पाने का कारण-
इस कालान्तर में दोनों अन्तर्राष्ट्रीय प्रान्तों के मध्य परस्पर व्यापार करना कठिन हो गया था।
दोनों परिक्षेत्र के व्यापारियों का व्यापारिक ;आदान-प्रदान मिलन- दारमा रं लुंग्बा और तिब्बत के व्यापारी, दारमा और पश्चिम प्रान्त के सीमान्त यांग्ती और चिल्ती दोनों घाटी के उन अस्थायी ग्रामीण भूभाग तक ही व्यापार विनिमय के लिए जाते थे। जो अस्थायी ग्रामीण भूभाग दारमा रं लुंग्बा के भूभाग से सटे होते थे।
सीमान्त क्षेत्र में खानाबदोश रहन-सहन सा जीवन व्यतीत करने वाले कुछ हुणी समूहों का पश्चिम-तिब्बत प्रान्त अन्तर्राष्ट्रीय सीमा में बहुत अधिक प्रभाव था। वे दूसरे बाहरी व्यापारियों के साथ अहंकारपूर्ण, अमानवीय व्यवहार कर जबरदस्त अतिरिक्त कर वसूली करते थे। नहीं मानने पर आतंकित लूटपाट भी करते थे। इस डर के कारण दारमा व्यापारी उस समय सीमान्त भूभाग के उन स्थाई क्षेत्रों तक में ही व्यापार हेतु जाते थे/व्यापार करते थे जहाँ वे सुरक्षित महसूस करते थे/और अपना क्षेत्र हो।
उस काल में दारमा रं भोट भोट व्यापारी पूर्ण रूप से पश्चिम तिब्बत प्रान्त के सीमान्त में स्थित स्थायी ग्रामों तक व्यापार के लिए नहीं जाते थे। यह व्यापार केवल दोनों के ही अधिकारिक अस्थाई भू क्षेत्र में ही होता था।

पंचाचूली— श्री न्यौला पंचाचूली देव

नरेन्द्र सिंह दताल
वैसे तो हमारे देवभूमि में कई अद्भुत, आकर्षक, चमत्कारिक और रमणीय पर्यटक स्थल विद्यमान हैं लेकिन सुदूरवर्ती अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर धारचूला की दारमा घाटी के ग्राम दाँतू और ग्राम दुग्तू सौन के भूभाग में ऐसी पंच हिम पर्वत श्रृंखला है, जिसे न्यौला नदी का मुकुट कहते हैं। इसे न्यौल पंचाचूली के नाम से सम्बोधित करते हैं। ‘जै ह्या गबला देव’ की तपोस्थली न्यौला पंचाचूली हिम पर्वत शिखर उतनी ही प्राचीन है, जितनी प्राचीन हमारी संस्कृति-सभ्यता-समाज का उद्गम इस सृष्टि में हुआ। यह हिम शिखर ऐसा प्रतीत होता है मानो किसी चित्रकार ने कैनवास पर एक खूबसूरत पेन्टिंग बना दी हो।
वायु पुराण, मानस खण्ड में कुमाउ की सरयू व कौशिकी /कोसी नदी के साथ त्रिशूल ग्लेशियर ;हिमशिखर व न्यौला पंचाचूली पवित्र हिम शिखर का वर्णन किया गया है। ;महाभारत के पाण्डव वन विचरण प्रसंग में न्यौला पंचाचूली स्थल का भी वर्णन अध्याय 110 में है।-कुमाउ का इतिहास लेखक बद्रीदत्त पाण्डे।
प्रागैतिहासिक काल में ही पंच हिम शिखर को लिखित रूप से पंचाचूली नाम से जाना जाता है। पर इस पंचाचूली हिम शिखर को रं लुंग्बा के जन ;स्थानीय लोग न्यौला पंचाचूली नाम से सम्बोधित उस प्राचीनतम काल से ही करते रहे हैं जब से हमारी संस्कृति-सभ्यता-समाज ने इस रं लुंग्बा भू-भाग में शरण ली। स्थानीय जन न्यौला पंचाचूली हिम पर्वत श्रृंखला को ‘जैं न्यौला सैं’ ;जै श्री न्यौला भगवान के रूप में पूजते हैं। इस हिम श्रृंखला की तलहटी से बहुत बड़ा ‘दंग्तो न्योल्पा बुग्याल’ परिक्षेत्र है, जहाँ ग्राम जन खेत जुताई के बाद सभी जानवरों को तीन-चार माह के लिए स्वतंत्र छोड़ देते हैं। ये जानवर बुग्याली चारों में ही मस्त रहते हैं।
पंच हिमग्लेशियर के हिमकुण्ड से न्यौला नदी ;न्यौला यंग्ती का उद्गम होता है। यह नदी दुग्तू-सौन और दाँतू ग्राम को अलग करती हुई, तेजी से आगे बहती है। श्यामल रंगनुमा न्यौला नदी छलछलाती, कलकल-खलखल गर्जना करती करती हुई दो किलोमीटर आगे आदि कैलास पर्वत से आने वाली दूसरी धैली गंगा से मिलन करती है। उनके मिलन में ऐसी आतुरता दिखाई देती है मानो दो बहनें/सखियों का मिलन सदियों के बाद हो रहा है। जो बाद में भारत-नेपाल देश को अलग करने वाली काली नदी से तवाघाट में मिलन करती है। आगे निकलते हुए मिलम ग्लेशियर जोहार घाटी से निकलने वाली गोरी गंगा से जौलजीवी नामक स्थान में संगम करते हुए और आगे निकलती है। यह नदी पंचेश्वर नामक स्थान से आगे निकलते हुए, मैदानी क्षेत्र टनकपुर में अन्य सहायक नदियों से मिलकर शारदा नदी नाम से जानी जाती है। इसी शारदा नदी से जिला पीलीभीत ;उ.प्र. में एशिया का सबसे बड़ा क्षेत्रफल में फैला कच्चा बांध् बनाया गया है। ;यह बांध् केवल मिट्टी से ही बनाया गया है जो जनमानस, जीव-जन्तु, खेत-खलिहानों को अमृत स्वरूप/समान जल प्रदान करती है।
न्यौला पंचाचूली हिम ग्लेशियर उत्तराखण्ड के सुन्दरतम पर्वतमालाओं में सुन्दर व महत्वपूर्ण ट्रेकिंग डेस्टिनेशन है, जो हमें पौराणिक गाथाओं से परिचित कराता है।
इस न्यौला पंचाचूली हिम पर्वत माला पर प्रकाश तरंगें और ध्वनि तरंगों का अद्भुत समागम होता है। जिसे हम सूर्योदय और सूर्यास्त के समय साक्षात महसूस कर सकते हैं, जिसके प्रकाश प्रतिबिम्ब से मन/हृदय-दिमाग निर्मल हो जाता है। न्यौला पंचाचूली से निकलने वाली तेज हवा कुछ ऐसा एहसास कराती है कि मानो प्रकृति प्रेमियों का आह्वान कर रही है। प्रकृति प्रेमी जब पहली बार इस न्यौला पंचाचूली प्रकृति के अद्भुत अकल्पनीय हिम दृश्यों का दर्शन करते हैं तो उन्हें ऐसा लगता है मानो रं लुग्बा के रक्षक देव, देवों के देश, जै श्री ह्या गबला देव का तेजस्वी तेज का साक्षात दर्शन कर रहे हैं।
पौराणिक कथा- इस पंचा न्यौला हिम पर्वत श्रृंखला को न्यौला पंचाचूली क्यों कहा जाता है?
ऐसी मान्यता है कि महाभारत युद्ध के उपरान्त जब पाँच पाण्डव व द्रोपदी स्वार्गारोहण के लिये हिमालय में विचरण कर रहे थे तब इस हिमशिखर की आलौकिक सुन्दरता को देखकर यहाँ विश्राम करने की सोची और उन्होंने विश्राम करने की अनुमति लेकर यहाँ के भूस्वामी का स्मरण किया, तब पाण्डवों को भूस्वामी के रूप में जै श्री ह्या गबला देव जी ने दर्शन दिए। ;जै श्री ह्या गबला कदेव को रं जन कैलासपति का अवतार मानते हैं। पाण्डवों ने यहाँ विश्राम की अनुमति मांगी और यहीं पर पाँच पाण्डवों ने अन्तिम बार अनाज खाद्य भोज्य पदार्थो। को पकाने के लिए चूल्हा /आग चूल्हा लगाया था, इसी कारण तब से इस पंचा न्यौला हिम शिखकर को न्यौला पंचाचूली कहा जाता है। इसके बाद आगे पांचों पाण्डवों ने केवल कन्दमूल जड़ी और अन्य जड़ियों का ही प्रयोग कर आदि हिम ओम पर्वत, आदि कैलाश पर्वत, कैलास मानसरोवर होते हुए अन्त में युधिष्ठिर ने ही स्वर्ग का मार्ग तय किया। रं लुंग्बा जनों की यह मान्यता है कि पाँचों पर्वत शिखर- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव पाँचों पाण्डवों का प्रतीक है। इसी पंच हिम ग्लेशियर के पंच /पाँच सुन्दर हिम जल की सहस्त्रधारा की भी आवाज सुनाई देती है। रं लुंग्बा के लोकगीतों में इस हिमशिखर को ‘दारमा चु न्यौंला पंचाचूली’ के शब्द नाम से सुना जा सकता है और कुमाउ के दानपुर कत्यूरी क्षेत्र में प्रचलित लोक गीत ‘न्यौला-न्यौला न्यौला, मेरी शोभनी-मेरी शोभनी दिन के दिन जोबन जाण लागो’ इस गीत का सम्बन्ध् दारमा न्यौला हिम पर्वत से अवश्य रहा होगा। न्यौला पंचाचूली हिमशिखर की उचाई समुद्र तल से 6312 मीटर ;22651 फीट से 6904 मीटर तक है।
न्यौला पंचाचूली- दाँये से बांये चोटी एक- 6355 मीटर, चोटी दो- 6904 मीटर, चोटी तीन- 6312 मीटर, चोटी चार- 6334 मीटर, चोटी पाँच- 6434 मीटर है। न्यौला पंचाचूली के पूर्व में सोना हिमनद ग्लेशियर और मैओला हिमनद ग्लेशियर स्थित है तथा पश्चिम उत्तर में बाल्टी हिमनद ग्लेशियर एवं उसका पठार स्थित है। न्यौला पंचाचूली के पिछले भाग से रालम घाटी से प्रथम बार 1972 में पर्वतारोहण किया। यह सफल अन्वेषण हमारे हिमबीर आईटीबीपी के जवानों ने पूरा किया, जिसका नेतृत्व हुकुम सिंह जी द्वारा किया गया, पर न्यौला पंचाचूली के आगे के भाग दारमा घाटी, ग्राम दाँतू से कोई भी पर्वतारोही शिखर तक पर्वतारोहण नहीं कर सका।
मुख्य विशेषताएं-
सुन्दर फुलवारी बुग्याल- न्यौल पंचाचूली हिम शिखर की गोद में दूर से दूर तक फैली हरियाली बुग्यालों के हरे-भरे घास के मैदान, तरह-तरह के सभी सातों रंगों में खिले रंग-बिरंगे पफूलों की प्राकृतिक फुलवारी, जैसे मुख्यतः क्वालचें ;ब्रह्म कमल, छिबीचैं ;गन्द्रायण के फूल, फसीचें ;कस्तुरी फूल, स्येप्लु फूल, क्ओतिलो फूल आदि और अन्य फूल मानो फूलों की नैसर्गिक झांकियाँ सी देखने को मिलती हैं।
प्रतिरोधक जड़ीबूटी- न्यौला पंचाचूली के 1 से 2 किलोमीटर में देवपुष्प ;क्वालचें ‘ब्रह्मकमल’, प्रतिरोधकता युक्त संजीवनी जड़ीबूटी जैसे अर्च ;जंगली हल्दी, दुम ;पहाड़ी लहसुन, क्वचो ;स्यक्वा, छीबी ;गन्द्रायणी, अतीस, हत्ताजड़ी, कीड़ाजड़ी, अखाचे, सर्पगन्ध कटकी, गोकुल मासी, गंजरी ;मीठा अतीस पाये जाते हैं। अन्य जड़ी-बूटियों के साथ प्राकृतिक शाक-सब्जियाँ जैसे पनेवल, मेवल, हेटोवल/फोटोयल, थावें ;पहाड़ी जीरा और अन्य बहुत सारी जीवन रक्षक/जीवनदायनी जड़ीबूटियाँ भी पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं।
भोजवृक्ष ;स्यासिंग- इन वृक्षों के सुन्दर बागवान न्यौंला पंचचूली के समीप पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। आदि काल में रिषि मुनि इन्हीं भोजवृक्ष के छाल-भोजपत्र का प्रयोग ग्रन्थों के लेखन कार्य में किया करते थे।
पशु-पक्षी- देव मृग ;कस्तूरी मृग, हिम तेदुंआ, हिम भालू, जंगली हिरणों का झुण्ड, फो, वर और अन्य जानवरों का समूह गुगती प्या, छोटा पतली प्या ;पक्षी, मोनाल पक्षी पाये जाते हैं।
पशु चारागाह ;पौष्टिकता से भरपूर- न्यौंला पंचाचूली परिक्षेत्र के चारों ओर पौष्टिकता से भरपूर मात्रा में हरे भरे बुग्याल चारागाह हैं। इतनी भरपूर मात्रा में पौष्टिकता-स्वादिष्टता यहाँ की हरी भरी घास में है। यदि हम पशुओं को इन बुग्याल चारावाह परिसीमन में छोड़ देते हैं तो ये पशु बुग्याल की स्वादिष्ट व पौष्टिकता छोड़ नहीं पाते हैं और ये पशु अपने घर वापस आना पसन्द नहीं करते हैं। जानवर वहीं चरते-चरते खुले आसमान के नीचे ही दिन-रात रहना पसन्द करते हैं। इन बुग्यालों की पौष्टिकता के कारण यहाँ दूर हिमांचल प्रदेश से भी गद्दी भेड़ बकरियांे और घोड़ों को लेकर, यहाँ पहुँचते हैं।
पूरे उत्तर भारत में सबसे अधिक कस्तूरी मृह, हिम तेंदुआ, हिम भालू, जंगली बकरी इसी न्यौला पंचाचूली हिम ग्लेशियर परिक्षेत्रों में बहुतायत से मिलते हैं।
महा दानवीरांगना, समाजसेविका लला जसुली देवी दताल, ‘ धरोहित स्युलो सिंड. और प्राचीन नमचिंम बावे’- लला जसुली देवी दताल, प्रांगण के पास में लला जसुली देवी काल से भी पूर्व समय की लगभग 250 साल पुरानी धरोहित उच्च हिमायललय आडूनुमा फलदायी वृक्ष ;धरोहित स्यूलो सिंड है। साथ ही इस धरोहरवृक्ष के सीध्े ठीक नीचे मैदानी खेत के मध्य ग्राम दाँतू का प्राचीनतम नमचिंम बावे ;प्राचीन नमचिंम स्थित मीठा जलस्रोत है जो शुरुआती दताल ग्रामजनों का सर्वप्रथम प्याउ केन्द्र हुआ करता था।

महादेव अवतार ‘जैं श्री गबला देव’

दारमा घाटी’
नरेन्द्र सिंह दताल
उत्तराखण्ड हिमालयी भू-भाग हिन्दू धर्म के देवी-देवताओं का निवास स्थान है। इस कारण उत्तराखण्ड को देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है। इसका प्रमाण आदिकाल से ही मिलता है।
उत्तराखण्ड के अन्तर्राष्ट्रीय सीमान्त क्षेत्र लुग्बा रं क्षेत्र में पौराणिक कैलास पति महादेव जी का अवतार माने जाने वाले वरदानी देव/न्यायप्रिय, न्याय का देवता ग्राम दांतू में प्रतिष्ठित हैं, जिसे हम रं जन ‘जय श्री ह्या गबला देव’ के नाम से सम्बोधित करते हैं। इसे दांतू/दंग्तों जय श्री ह्या गबला देव भी कहते हैं। यह ग्राम दांतू, तहसील धारचूला, जिला पिथौरागढ़ के ‘दारमा घाटी’ में स्थित है। जैं श्री ह्या गबा देव जी की वेषभूषा ‘रंगा-सिले’ सफेद रंग का धरण कर ढाल-तलवार शस्त्र लेकर सफेद घोड़े की सवारी करते हैं। वर्तमान समय तक में जय श्री ह्या गबला देव रं लुंग्बा के लगभग अधिकृत ग्राम में विराजमान है। यह श्री ह्या गबला देव को लोग ‘जन देवता’ भी कहते हैं।
जै श्री ह्या गबला देव को अधिकतर रं ग्रामजन परमपिता ईष्टदेव मानते हैं। कष्ट, दुःख, विवादित न्यायिक समस्याओं से पीड़ित लोग अपने कष्ट, दुःखों का निवारण हेतु श्री ह्या गबला देव ईष्ट देव की शरण में आते हैं।
ऐसी मान्यता है कि प्राचीन समय में श्री ह्या गबला देव जन न्याय करवाने के लिये ग्राम दांतू के ‘हैली/सैली पंग् दंग् थंग् मैदान’ में सभी पक्ष-विपक्ष व ग्राम प्रमुखों की उपस्थिति में सभी समस्याओं का निवारण करते थे। ग्राम दांतू/दंग्तों को प्रागैतिहासिक काल से ही ऐतिहासिक ‘ग्राम’ माना जाता है क्योंकि यह भूमि सर्वप्रथम ह्या गबला देव की जन्मभूमि, कर्मभूमि, न्यायभूमि रही है। ग्राम दांतू वह भूमि है, जहां रं लुंग्बा के 36 कोटि देवी-देवताओं का पौराणिक काल से ही जय श्री ह्या गबला देव के प्रांगण में एकत्रित होकर सभी बिन्दुओं से सम्बन्धित विषय पर मंत्रणा व विचार गोष्ठी का आयोजन किया जाता था/है। इसी कारण ग्राम दांतू को श्री ह्या गबला देव का उच्च न्यायालय माना जाता है। जय श्री ह्या गबला देव के प्रांगण में देवी देवताएं अन्त में उत्सव मनाते हुए अपने अपने कर्मस्थली की ओर चले जाते थे।
ग्राम दांतू दारमा में हर वर्ष जय श्री ह्या गबला देव ‘दारमा महोत्सव’ के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है। यह ‘गबला दारमा महोत्सव’ दारमा घाटी के सभी ग्रामों के गणमान्य बुद्धिजीवियों के विचार-विमर्श के द्वारा, सर्वप्रथम 1977 से हर साल अगस्त माह में मनाते आ रहे हैं। ग्राम दांतूम में आयोजित ‘प्रथम दारमा गबला महोत्सव मेला’ का मुख्य नेतृत्वकर्ता स्व. डूंगर सिंह ढकरियाल, स्व. नैन सिंह बोनाल, स्व. शेर सिंह दुग्ताल, स्व. ददिमल सिंह दताल, स्व. लक्ष्मण सिंह दताल, स्व. रूप सिंह दताल, ‘छैवा राठ’, सुन्दर सिंह बोनाल, देव सिंह दुग्ताल, धर्म सिंह बनग्याल, धर्मसिंह बोनाल और रूप सिंह दताल ;नेता जी थे और सभी दारमा रं ग्राम वासियों ने संयुक्त रूप से नेतृत्व व हर प्रकार से सहयोग कर बहुत सुन्दर मेला का आयोजन कराया गया था, जो आज भी हम सब रं वासी याद करते हैं। यह ‘गबला महोत्सव’ दामरा मेला 15 अगस्त से 30 अगस्त के मध्य शुभ दिन प्राकृतिक पुष्पीय व फसलीय पुष्पीय प्रकृति के बीच मनाया जाता है। अगस्त माह में प्राकृतिक व फसलीय सुन्दर पुष्पीय सुन्दरता देखने को मिलती है। इस गबला महोत्सव में तल्ला-मध्य-मल्ला दारमा ग्रामों के ग्रामवासियों के अतिरिक्त व्यांस, चैंदास घाटी के लोग और तहसील धारचूला के अन्य लोग शामिल होते हैं।
जय श्री ह्या गबला महोत्सव ;दारमा गबला महोत्सवद्ध में सर्वप्रथम सभी रं ग्राम प्रतिनिधि और रं मं जन सामूहिक गबला पूजन कर महोत्सव का शुभारम्भ करते हैं। यह ‘दारमा महोत्सव’ का कार्यक्रम तीन दिनों तक चलता है। इस मेले में सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यक्रम, खेलकूद क्रियाकलाप और अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इस आयोजन को संचालित करवाने में हिमवीर आईटीबीपी ढाकर-दारमा घाटी बटालियन भी सहयोग कर श्री ह्या गबला देव का पूजन कर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।
ह्या सम्बोधन-
जैं/जय श्री ह्या गबला देव न्याप्रिय उदार, न्यायवादी, परोपकारी, प्रजा सेवक के रूप में कार्य करने की मानवीय प्रवृत्ति के कारण हम सभी रं जन उनके नाम के आगे ह्या ;बड़े भाई शब्द को जोड़कर जय श्री ह्या गबला देव के नाम से सम्बोधित करते हैं।
‘‘जै श्री ह्या गबला देव हम सब पर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखना’’ दारमा घाटी’ नरेन्द्र सिंह दताल
उत्तराखण्ड हिमालयी भू-भाग हिन्दू धर्म के देवी-देवताओं का निवास स्थान है। इस कारण उत्तराखण्ड को देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है। इसका प्रमाण आदिकाल से ही मिलता है।
उत्तराखण्ड के अन्तर्राष्ट्रीय सीमान्त क्षेत्रा लुग्बा रं क्षेत्र में पौराणिक कैलास पति महादेव जी का अवतार माने जाने वाले वरदानी देव/न्यायप्रिय, न्याय का देवता ग्राम दांतू में प्रतिष्ठित हैं, जिसे हम रं जन ‘जय श्री ह्या गबला देव’ के नाम से सम्बोधित करते हैं। इसे दांतू/दंग्तों जय श्री ह्या गबला देव भी कहते हैं। यह ग्राम दांतू, तहसील धारचूला, जिला पिथौरागढ़ के ‘दारमा घाटी’ में स्थित है। जैं श्री ह्या गबा देव जी की वेषभूषा ‘रंगा-सिले’ सफेद रंग का धरण कर ढाल-तलवार शस्त्रा लेकर सफेद घोड़े की सवारी करते हैं। वर्तमान समय तक में जय श्री ह्या गबला देव रं लुंग्बा के लगभग अधिकृत ग्राम में विराजमान है। यह श्री ह्या गबला देव को लोग ‘जन देवता’ भी कहते हैं।
जै श्री ह्या गबला देव को अधिकतर रं ग्रामजन परमपिता ईष्टदेव मानते हैं। कष्ट, दुःख, विवादित न्यायिक समस्याओं से पीड़ित लोग अपने कष्ट, दुःखों का निवारण हेतु श्री ह्या गबला देव ईष्ट देव की शरण में आते हैं।
ऐसी मान्यता है कि प्राचीन समय में श्री ह्या गबला देव जन न्याय करवाने के लिये ग्राम दांतू के ‘हैली/सैली पंग् दंग् थंग् मैदान’ में सभी पक्ष-विपक्ष व ग्राम प्रमुखों की उपस्थिति में सभी समस्याओं का निवारण करते थे। ग्राम दांतू/दंग्तों को प्रागैतिहासिक काल से ही ऐतिहासिक ‘ग्राम’ माना जाता है क्योंकि यह भूमि सर्वप्रथम ह्या गबला देव की जन्मभूमि, कर्मभूमि, न्यायभूमि रही है। ग्राम दांतू वह भूमि है, जहां रं लुंग्बा के 36 कोटि देवी-देवताओं का पौराणिक काल से ही जय श्री ह्या गबला देव के प्रांगण में एकत्रित होकर सभी बिन्दुओं से सम्बन्धित विषय पर मंत्रणा व विचार गोष्ठी का आयोजन किया जाता था/है। इसी कारण ग्राम दांतू को श्री ह्या गबला देव का उच्च न्यायालय माना जाता है। जय श्री ह्या गबला देव के प्रांगण में देवी देवताएं अन्त में उत्सव मनाते हुए अपने अपने कर्मस्थली की ओर चले जाते थे।
ग्राम दांतू दारमा में हर वर्ष जय श्री ह्या गबला देव ‘दारमा महोत्सव’ के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है। यह ‘गबला दारमा महोत्सव’ दारमा घाटी के सभी ग्रामों के गणमान्य बुद्धिजीवियों के विचार-विमर्श के द्वारा, सर्वप्रथम 1977 से हर साल अगस्त माह में मनाते आ रहे हैं। ग्राम दांतूम में आयोजित ‘प्रथम दारमा गबला महोत्सव मेला’ का मुख्य नेतृत्वकर्ता स्व. डूंगर सिंह ढकरियाल, स्व. नैन सिंह बोनाल, स्व. शेर सिंह दुग्ताल, स्व. ददिमल सिंह दताल, स्व. लक्ष्मण सिंह दताल, स्व. रूप सिंह दताल, ‘छैवा राठ’, सुन्दर सिंह बोनाल, देव सिंह दुग्ताल, धर्म सिंह बनग्याल, धर्मसिंह बोनाल और रूप सिंह दताल ;नेता जी थे और सभी दारमा रं ग्राम वासियों ने संयुक्त रूप से नेतृत्व व हर प्रकार से सहयोग कर बहुत सुन्दर मेला का आयोजन कराया गया था, जो आज भी हम सब रं वासी याद करते हैं। यह ‘गबला महोत्सव’ दामरा मेला 15 अगस्त से 30 अगस्त के मध्य शुभ दिन प्राकृतिक पुष्पीय व फसलीय पुष्पीय प्रकृति के बीच मनाया जाता है। अगस्त माह में प्राकृतिक व फसलीय सुन्दर पुष्पीय सुन्दरता देखने को मिलती है। इस गबला महोत्सव में तल्ला-मध्य-मल्ला दारमा ग्रामों के ग्रामवासियों के अतिरिक्त व्यांस, चैंदास घाटी के लोग और तहसील धारचूला के अन्य लोग शामिल होते हैं।
जय श्री ह्या गबला महोत्सव ;दारमा गबला महोत्सवद्ध में सर्वप्रथम सभी रं ग्राम प्रतिनिधि और रं मं जन सामूहिक गबला पूजन कर महोत्सव का शुभारम्भ करते हैं। यह ‘दारमा महोत्सव’ का कार्यक्रम तीन दिनों तक चलता है। इस मेले में सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यक्रम, खेलकूद क्रियाकलाप और अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इस आयोजन को संचालित करवाने में हिमवीर आईटीबीपी ढाकर-दारमा घाटी बटालियन भी सहयोग कर श्री ह्या गबला देव का पूजन कर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।
ह्या सम्बोधन-
जैं/जय श्री ह्या गबला देव न्याप्रिय उदार, न्यायवादी, परोपकारी, प्रजा सेवक के रूप में कार्य करने की मानवीय प्रवृत्ति के कारण हम सभी रं जन उनके नाम के आगे ह्या ;बड़े भाई शब्द को जोड़कर जय श्री ह्या गबला देव के नाम से सम्बोधित करते हैं।
‘‘जै श्री ह्या गबला देव हम सब पर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखना’’

मायावी कोरोना

पि.हि. प्रतिनिधि
मायावी शक्तियों के बारे में बहुत से किस्से कहानियां सुनी होंगी, जो सच के करीब लगती हैं और सच जैसी भी। रामायण में मेघनाथ के मायावी युद्ध के बारे में बहुत चर्चा है कि वह बहुत ही तरीकों से अपना आकार-प्रकार बदल कर युद्ध कौशल में जीत जाता था। मारीच का मायावी रूप मृग बना। देव-दानवों के बीच मायावी युद्ध के अनेकों प्रसंग हैं। ये मायावी कैसा होता होगा, जो पकड़ में नहीं आता था? जब पकड़ में आता था, तब तक बहुत नुकसान उसके द्वारा कर दिया जाता। वर्तमान के कोरोना हमले से इसे समझा जा सकता है। पूरी दुनिया जान चुकी है कि एक वायरस के मायावी रूप ने सबको दुःखी कर दिया है। कोरोना के वर्तमान हमले पर इतना भर मालूम है कि वह मानव जाति की उर्जाशक्ति को क्षीण कर फेफड़ों में असर करता है। सांस का आना-जाना हमारा जीवन है और कोरोना बुखार, सरदर्द, बदनदर्द, खंरास, पेटपीड़ किसी भी रूप में शरीर पर हमला कर नुकसान पहुंचा रहा है। इसके मायावी हमले में चिकित्सा विज्ञानी दिन-रात एक किए हुए हैं और हर सम्भव प्रयास किये जा रहे हैं कि इसे बेअसर किया जाए लेकिन जिस रफ्रतार से इस मायावी ने चारों ओर क्रूरता दिखाई है, उसकी भरपाई करने में समय लग ही जायेगा।
कोरोना की दूसरी लहर में जिस तरह से नुकसान हुआ है उससे समाज हिल उठा है। जाने-अनजाने लोगों को इसका ग्रास बनना पड़ा है, लोगों का सुख-चैन इसने छीना है। इससे लड़ने और बचने के लिये बाजार सूने हो चुके हैं और व्यवस्था बनाने के लिये जुटी मशीनरी भी परेशान हो उठी है। जिस कारण से कई बार सरकार द्वारा लिये जा रहे फैसलों को पलटा जा रहा है। शासन-प्रशासन बार-बार यह देख रहा है कि कब कफ्रर्यू लगाये, कब बाजार बन्द के निर्देश दे, कब कार्यालयों को बन्द कराए या खुलवाए, बैंक-पोस्ट आपिफस का समय कितना रखे, स्कूलों के लिये क्या तय करे, बाहर से आने वालों पर क्या पाबंदी लगाये………….। वाकेई स्थिति संभालना बहुत कठिन है। सोशल मीडिया पर अपने तर्क देकर अफरा-तफर मचाने के बजाए स्थिति की नाजुकता को समझना चाहिये। तर्क और अपनी जिद छोड़ इस समय बचाव के रास्ते अपनाना सबकी प्राथमिकता होनी चाहिये। हालातों को देख लोग स्वयं ही ही सिमट भी चुके हैं। कहने की जरूरत ही नहीं है अब बाजार भी अपने आप से बन्द हैं। हालातों को देख देहरादून, हल्द्वानी समेत बड़े शहरों में अस्थाई अस्पताल और अस्थाई श्मशान घाट बना दिये गये हैं। मरीजों की संख्या को देखते हुए आॅक्सीजन पाइप लाइन तक बिछा दी गई हैं। मुख्यमंत्री ने विधायक निधि से अपने क्षेत्रों में कोविड रोकथाम सम्बन्धी व्यवस्थाओं पर एक करोड़ रुपये खर्च करने की मंजूरी दी है। राज्य और जिला कंट्रोल रूम स्थापित किये गये हैं जो हालातों पर लगातार नज़र रखे हुए हैं। आयुष मंत्राी डाॅ. हरक सिंह के निर्देश के बाद इनमें होम्योपैथिक डाक्टरों को सेवाओं के लिये तैनात किया गया है। ऐसे में कर्मचारियों व डाक्टरों की छुट्टी रद्द कर दी गई हैं। प्रदेश में 108 आपातकालीन सेवा के बेड़े में 132 नई एम्बुलेंस शामिल हो चुकी हैं। इन्हें सभी जनपदों में दिया गया है। तमाम इन्तजामों के बीच कालाबाजारी करने वाले भी सक्रिय हैं। फल-सब्जी के मनमाने रेट बताने वालों से लेकर यात्रा-भाड़ा के भी बेरहम वसूलने वाले बेशर्म हो चुके हैं। इस प्रकार की शिकायतों पर कार्रवाई भी हुई है। बागेश्वर के काण्डा में टैक्सी चालकों को अधिक राशि वसूली पर पफटकार पड़ी और चालान हुआ। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने दवाओं और जरूरी चीजों में खुली लूट को रोकने की मांग की है। उन्होंने कहा कि सरकार को जमाखोरों पर लगाम लगानी चाहिये। आम जनता को अपना घर चलाना, रोजी-रोटी की मुश्किल हो रही है।
हल्द्वानी के सुशीला तिवारी अस्पताल में अतिरिक्त दबाव बना हुआ है। कोरोना या अन्य बीमारी से हुई मौतों के बाद कई बार तीमारदारों द्वारा हंगामा भी कर दिया गया है। दरअसल सारे इन्तजामों के बाद भी बहुत कुछ कमी हमारे सिस्टम में है। सुशीला तिवारी के डाक्टर बेचारे भी अकेले क्या कर सकते हैं। अस्पताल स्टाफ दिन-रात काम करने के बाद तनाव में घिर जाता है जब भीड़ बढ़ती है और कोरोना से संक्रमण काल में बचाओ- बचाओ हाय-हाय हो रही है।
बेकाबू कोरोना की लहर में देहरादून जिला सर्वाधिक प्रभावित है। जिले के सभी सरकारी अस्पतालों सहित हरिद्वार, रुड़की में संक्रमित भर चुके हैं। हाईकोर्ट नैनीताल ने भी हालातों पर निर्देश दिये हैं कि आशा वर्कर व एनजीओ के जरिए संक्रमित क्षेत्रों को चिह्नित करें। होम आइसोलेशन टेस्ट बढ़ाने के लिेय कहा है। गरीबों को जन आरोग्य व अन्त्योदय योजना के तहत हेल्थ कार्ड शीघ्र उपलब्ध् कराने के निर्देश भी हैं। अधिवक्ता दुष्यन्त मैनाली व दून निवासी सच्चिदानन्द डबराल ने क्वारंटीन सेन्टरों व कोविड अस्पतालों की बदहाली, प्रवासियों की मदद और उन्हें स्वास्थ्य सुविध उपलब्ध् कराने को लेकर जनहित याचिकाएं दायर की थीं।
इस समय यात्राएं भी थम चुकी हैं। ऐसे में में रेलवे ने देहरादून-काठगोदाम जनशताब्दी को अनिश्चितकाल के लिये निरस्त कर दिया है। यात्रियों की कम संख्या को देखते हुए यह निर्णय हुआ है।
कोरोना काल की विकराल स्थिति में नेतागण एक-दूसरे पर बरस रहे हैं। भाजपा के मंत्राीगण दवा आक्सीजन भरपूर होने का दावा कर रहे हैं। सरकार की ओर से बेहतर चिकित्सा सुविधा की बात कही जा रही है। नेता प्रतिपक्ष डाॅ. इन्दिरा हृदयेश ने अव्यवस्थाओं की ओर मुख्यमंत्री का ध्यान आकृष्ट किया है। आम आदमी पार्टी का कहना है सरकार महामारी से निपटने में विफल रही है। व्यवस्थाएं बढ़ाई जानी चाहिये।

ठहरना हमारी मजबूरी

पि.हि. प्रतिनिधि
कोरोना की घातक हवा ने दुनिया में जो जहर घोला है, उससे हमारे कई परिचित और बहुत सारे अपरिचित लोगों को असमय इस दुनिया से विदा होना पड़ा है। दुःख की इस घड़ी में पिघलता हिमालय परिवार भी इन सभी परिवारों के साथ है और ईश्वर से प्रार्थना करता है कि इन परिवारों को दुःख सहने की शक्ति प्रदान करे। साथ ही विपदा की इस घड़ी में पूरी दुनिया को बचाए।
ईश्वर से प्रार्थना के लिये हजारों हाथ उठ रहे हैं, सभी खुशहाली और शान्ति चाहते हैं। इसके लिये प्रयास और बचाव किये जा रहे हैं। लगातार डर-भय वाले समाचारों के बाद अब आशाजनक परिणाम भी मिलने लगे हैं। कोरोना की लहर को चीरते हुए बड़ी संख्या में लोगों ने इससे लड़ना सीख लिया है और स्वस्थ्य होकर अपने घरों को लौटे हैं। संकट की इस घड़ी में भयानक समाचार और डरावने विचारों से बचते हुए उर्जावान बने रहने की जरूरत भी है।
इस समय भले ही कारोबार और सामाजिक ताने-बाने में बिखराव दिखाई दे रहा है लेकिन यह दूरी सिर्फ स्वस्थ्य रहने के लिये हैं। हर कोई चाहता है कि खुले में घूमे, अपनों और अपने साथियों से मिले, बच्चे स्कूल जाना चाहते हैं, अपने साथियों से मिलना चाहते हैं, खिलाड़ी स्टेडियम और जिम जाना चाहते हैं, श्रमिक चाहते हैं कि वह अधिक से अधिक श्रम कर अर्जन करें, दुकानदार चाहता है कि वह अपने प्रतिष्ठान को खूब सजाए ताकि ग्राहकों की भरमार हो परन्तु यह सब तब ज्यादा अच्छा लगता है जब मौसम सुहावना हो, लोग निरोगी हों। इस समय कोरोना की मार से वातावरण टूटन भरा है। यही कारण है कि सरकार के ऐलान से पहले ही व्यापारियों, कारोबारियों, श्रमिकों, नौकरी पेशा लोगों ने अपने आप को समेट लिया। अपने बच्चों को सुरक्षित करने के लिये स्कूलों, कोचिंग सेन्टरों ने पहले ही बन्द का ऐलान कर दिया।
यह कोरोना संक्रमण से लड़ने के लिये सभी का योगदान है। चिकित्सकों, पुलिस व सुरक्षा कर्मियों, पर्यावरण मित्रों, समाज सेवियों की निष्ठा से इस लडाई को लड़ना आसान बना हुआ है अन्यथा भीड़ में अराजकता वाली स्थिति हो जाती। हालातों से परेशानी जरूरी है लेकिन उम्मीद इसकी खुराक है। यही कारण है कि एकदम सीजन की दिहाड़ी पर टिके श्रमिक भी अपने को समेट चुके हैं। ग्रीष्म के सीजन में उत्तराखण्ड के पौराणिक ऐतिहासिक मन्दिरों के कपाट खुले और दुकानें भी सजीं लेकिन कोविड-19 की दूसरी हवा ने ठहरने का संकेत दिया। ग्रीष्म सीजन में दो-चार पैसा कमाकर अपने परिवार को पालने वालों के सामने रोटी का संकट है। छुटपुट दुकानें, होटल, ढाबे, मौसमी फल-सब्जी बेचकर गुजारा करने वाले, पर्यटकों को गाइड करने वाले, नाव चाालक, टैक्सी ड्राइवर, पफेरी लगाकर रोजी-रोटी का जुगाड़ करने वालों के सामने संकट है। ठेकेदारों के सामने भी दिक्कत है क्योंकि मजदूरों की अनुपस्थिति में क्या किया जा सकता है। स्कूल, ट्रेनिंग सेन्टर, कोचिंग इत्यादि चलाने वाले आॅनलाइन किसी प्रकार काम कर पा रहे हैं लेकिन भारी नुकसान उन्हें हुआ है। प्राइवेट संस्थानों को ऐसे में बहुत कष्ट उठाने पड़ रहे हैं। अपने स्टापफ को बनाये रखना, उनकी देखभाल कठिन काम है। ऐसे में फैक्ट्रियों बड़े होटलों में कर्मियों की छंटनी की गई है। शहरों में बदहाल कई परिवार किराये-भाड़े की व्यवस्था कर अपने गांव का रुख कर चुके हैं और छुटपुट कामकाज कर रहे हैं ताकि समय बीतने पर वह पिफर से अपने को व्यवस्थित कर सकें।
कोविड संक्रमण की चैन तोड़ने के लिये प्रदेश सरकार ने साप्ताहिक कफ्रर्यू के अलावा बाजार खुलने का समय निर्धारित किया है। टीकाकरण के लिये भी लोग सक्रिय हंै और टीकाकरण टीमें जुटी हुई हैं। जरूरी चीजों को छोड़कर अन्य दुुकानें दोपहर दो बजे तक ही खुलने का फरमान है। उत्तराखण्ड में बाहर से आने वालों को कोविड की निगेटिव रिपोर्ट और पंजीकरण अनिवार्य किया गया है। हाईकोर्ट के निर्देश के बाद प्रदेश के दूरस्थ इलाकों में कोविड टेस्टिंग बढ़ाने के लिए वैन और मोबाइल टीम गठित की गई हैं।
कोरोना की इस दूसरी लहर में तमाम तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं लेकिन जब प्रधनमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं अपने सम्वाद में कहा कि देश को लाॅकडाउन से बचाना है। राज्यों को इससे बचना चाहिये। जब ज्यादा ही दिक्कत हो तो अन्तिम विकल्प के रूप में लाॅकडाउन लगाया जाए। साथ ही यह बताने के बाद कि देश में बैक्सीन की कमी नहीं है। आम जनता में उम्मीेदंे जगी हैं। सरकार सहित सभी चाहते हैं कि आर्थिक गतिविधियों सहित टीकाकरण चले। मई का यह महीना बेहद नाजुक है, इसके लिये सभी को सतर्क रहना है।
नुकसान तो नुकसान है। ठहरने के अलावा हम और आप कर भी क्या सकते हैं? वैश्विक महामारी के इस दौर में प्रतिदिन मौत के डरावने सपने और समाचार सुनने के बजाए नवनिर्वाण पर विचार होना चाहिये। पहाड़ का ग्रीष्म सीजन चैपट है और तालों में सैलानियों को घुमाने वाली नाव किनारे लग चुकी हैं, टैक्सी स्टैण्ड शान्त हैं, होटल-रिसोर्ट खाली हैं, सांस्कृतिक दल मौन हैं, सबका हौंसला बढ़ाने वाले मौन हो चुके हैं। बहुत बड़ी भीड़ सोशल मीडिया में जरूर उलझी है। कार्यालयों की कार्य संस्कृति, स्कूलों का पठन-पाठन सब प्रभावित है। इस समय होने वाले मेले-उत्सवों का रंग फीका पड़ चुका है। घरेलू आयोजनों में भी रश्म अदायगी हो रही है।……….यही सब हो जाने दो फिलहाल। आने वाले बेहतर कल के लिये अभी ठहरना हमारी मजबूरी है।