कपकोट से अल्मोड़ा पैदल जाते थे पढ़ाई के लिये


श्रीमती कौशल्या सिंह से बातचीज
कपकोट से अल्मोड़ा पैदल जाते थे पढ़ाई के लिये
–व्यापार के सिलसिले में गरुड़ में बसे शौका
–कपकोट की उन्नति में भाई प्रेमसिंह  धर्मशक्तू हमेशा सक्रिय रहे
–चमोली में सयाना परिवार का बहुत सम्मान रहा है
डाॅ.पंकज उप्रेती
पहाड़ की मातृशक्ति हर क्षेत्रा में अग्रणीय रही है। पर्वतीय अर्थव्यवस्था की रीड़ के रूप में महिलाओं की अग्रणीय भूमिका को सब जानते हैं लेकिन विपरीत स्थिति में भी शिक्षा-चिकित्सा-बैंकिंग-संचार- सुरक्षा बल-व्यापार-खेल में हाथ आजमाने वाली महिलाएं अपनी निपुणता के लिये पहचान रखती हैं। इन दक्ष महिलाओं की बात ही कुछ और है। ऐसी ही सपफल महिलाओं में श्रीमती कौशल्या देवी हैं।
    जोहार के व्यापारी परिवार में हरीश सिंह धर्मशक्तू ने व्यापार के सिलसिले में कपकोट-भराड़ी में डेरा डाला था। इनके पुत्र प्रेम सिंह धर्मशक्तू हुए, जिनका कुछ समय पूर्व निधन हो चुका है। प्रेमसिंह  जी भराड़ी में रहते हुए जोहार के विकास के लिये चिन्ता करते थे और हमेशा भराड़ी से शामा होते हुए यातायात की वकालत करते रहे। हरीश सिंह जी की पुत्रियों में भागीरथी टोलिया पत्नी जगत सिंह टोलिया ;हल्द्वानी, कौशल्या देवी पत्नी एच.एस.सिंह ;बरेली हैं।
    कूर्मांचल नगर बरेली में रहने वाली कौशल्या देवी का अधिकांश समय गढ़वाल और फिर बरेली में बीता लेकिन अतीत  की झलकियाँ उनकी स्मृतियों में बनी हैं।  वह बताती हैं कि व्यापार के सिलसिले में उनके पिता ने गरुड़ में दुकान की। वहीं मेरा जन्म हुआ और पढ़ाई कपकोट में हुई। तब कपकोट हाईस्कूल में उतरौड़ी के हीराबल्लभ पाण्डे जी प्रधानाचार्य और शामा के बलवन्त सिंह जी उप प्रधानाचार्य
थे। इसके बाद इण्टर व स्नातक शिक्षा के लिये अल्मोड़ा का रुख किया। श्रीमती कौशल्या बताती हैं कि पढ़ाई के लिये कपकोट से पैदल यात्रा अल्मोड़ा के लिये करनी होती थी। अल्मोड़ा में किराये के मकान में रहकर पढ़ाई की और फिर लखनउ के सिल्वर जुवली हैल्थ स्कूल से ट्रेनिंग की। लखनउ का हैल्थ स्कूल अब परिवार नियोजन का निदेशालय है। सन् 1960 में जब पौड़ी जिले से चमोली जिला बनाया गया, उसी समय चमोली में पोस्टिंग हुई। चमोली में सयाना परिवार का बहुत सम्मान रहा है। जमन सिंह सयाना जी के पास कमरे की ढूंढ करते हुए पहँुची थी तो उन्होंने बहुत मदद की। इसके बाद जौनपुर, बाराबंकी, फैजाबाद में जाना हुआ। चैाधरी चरण सिंह की सरकार के जमाने में जब हैल्थ वर्करों की पढ़ाई की ओर ध्यान देना छोड़ हमें नौकरी से निकाला जा रहा था, बड़ा आन्दोलन हुआ। सरकार ने आदेश निकाला कि इन कर्मचारियों को वेतन के लिये अन्य स्थानों पर समायोजित किया जाए। फिर मुझे टीबी क्लीनिक में नियुक्ति मिल गई। इसके लिये मेडिकल कालेज लखनउ में ट्रेनिंग करनी पड़ी। पटना और पूना में भी कोर्स करने का बेहतर अनुभव हुआ। तब से लगातार एएनएम, जेएनएम, हैल्थ वर्करों को पढ़ाने के कार्य में लगातार व्यवस्तता रही। फैजाबाद, देवरिया के बाद बरेली में तैनाती मिली। 1997 में सेवानिवृत्ति के बाद भी कौशल्या जी के अनुभवों का लाभ लेने के लिये शिक्षण संस्थानों में उन्हें लगातार बुलाया जाता रहा है।  हैल्थबर्करों को शिक्षण के लिये उनकी सक्रियता आज तक भी है। पैरामेडिकल के क्षेत्र में उनके कई होनहार शागिर्द हैं।
    कौशल्या जी की यादों में आज भी उनके हिस्से का पहाड़ जिन्दा है। वह कहती हैं कि व्यापार के सिलसिले में गरुड़ में शौका व्यापारी बसे और मेहनती बच्चों ने कठिन दौर में भी शिक्षा से जुड़कर अपने रास्ते तलाशे।

चेतनाशून्यता की स्थिति है

काशीसिंह ऐरी से बातचीत
कार्यालय प्रतिनिधि
उत्तराखण्ड क्रान्तिदल के शीर्ष नेता काशीसिंह ऐरी का कहना है, ‘राष्ट्रीय पार्टियों ने पहाड़ की जनता को मून सा दिया है, यह चिन्ता है। इन पार्टियों का ने आम जनता की आँखों में धूल झौंकी है जिसे समझना होगा। आज चेतनाशून्यता की स्थिति है। युवाओं को बरगलाया जा रहा है और प्रलोभन में फंसाया जा रहा है।’
श्री ऐरी आगे कहते हैं कि आज उत्तराखण्ड की स्थिति को सबको समझना चाहिये। पहले विकास की योजनाएं बनती थी लेकिन पहाड़ नहीं चढ़ पाती थी। इसीलिए उत्तराखण्ड राज्य की परिकल्पना की गई थी ताकि छोटे राज्य में विकास हो, युवाओं का रोजगार मिले, यहाँ की समस्याओं की सुनवाई हो। लेकिन राज्य बनने के बाद से सब उल्टा होने लगा है। उल्टे-पुल्टे कार्यों पर लगाम नहीं है। यदि किसी को टोका जाता है तो वह किसी न किसी सम्बन्ध्-सम्पर्क से अपना बचाव कर लेता है। सम्वेदन शीलता नहीं रह गई है कि जनता क्या कहेगी। यह जानते हैं उनकी मनमानी पर कोई कुछ नहीं कहने वाला है। चाहे जो कुछ कर लो, जनता इन्हें वोट दे देगी। उपर से नीचे तक भ्रष्टाचारियों की चैन बनी हुई है। तमाम योजनाओं में घपले उजागर भी हुए है लेकिन सबकुछ दबा दिया जाता है। इनकी ओर से जनता को सुविधा मिले या न मिले, विकास हो या न हो, वोट मिल जायेगा। इन्होंने जनता को मून लिया है। चेतनाशून्यता की यह स्थिति खतरनाक है। उत्तराखण्ड किधर जा रहा है, राज्य कितने कर्ज में डूब गया है, विकास योजनाएं किस तरह से धरातल में नहीं उतर रही हैं, करोड़ों के भ्रष्टाचार के मामले उजागर होकर भी लीपापोती में हैं, इन्हें कोई पफर्क नहीं पड़ता। ये सब मौज में हैं और जनता को भ्रमित कर राज कर रहे हैं।
उत्तराखण्ड राज्य बनाने के पीछे रोजगार की बात, विकास की बात के अलावा भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना चाहते थे। सपना था हमारा राज्य बनेगा तो शिकायतों की सुनवाई होगी और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा परन्तु यहाँ तो कोई सुनने वाला ही नहीं है। मंत्री ही भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। सन्निर्माण श्रमिक बोर्ड में ही करोड़ों का घपला है, जाँच की लीपापोती होती रहती है। घपला करने वाले ही जाँच करने वाले हो जाएंगे तो क्या उम्मीद की जा सकती है। इस बेहाल राज्य को सुधार के लिये सबने जगना होगा।

उत्तराखण्ड के परिदृश्य में खत्तों की खेती

हिमाँशु कफल्टिया
खत्ते, गोठ अथवा झाले उत्तराखण्ड के परिदृश्य में समय-समय पर चर्चाओं में आते रहते हैं। कभी वन भूमि पर अवैध् कब्जे के तौर पर तो कभी वन उपज की तस्करी या फिर खुद को राजस्व ग्राम घोषित करने हेतु आन्दोलन। ये खत्ते समाचार पत्रों का हिस्सा बने ही रहते हैं। खत्ते जिन्हें गोठ अथवा झाले के नाम से भी जाना जाता है वह वन ग्राम हैं जो वन भूमि पर बसे हैं एवं सरकार की नजरों में अवैध् कब्जे हैं। बिन्दुखत्ता, गैण्डीखत्ता, छीनीगोठ गढ़ीगोठ, भैंसाझाला कुछ उदारहण हैं। इन गाँवों में वन गुज्जरों के अलावा कई अन्य लोग जो मुख्यतः पहाड़ के लोग हैं निवास करते हैं।
खत्तों का अपना एक इतिहास रहा है। राज्य की तराई-भाबर काफी उपजाउ भूमि है परन्तु यहाँ गर्मी और उमस भरा मौसम, खतरनाक जंगली जानवर, मच्छर जनित मलेरिया एवं अन्य बीमारियों के कारण यह क्षेत्रा कभी भी पहाड़ी लोगोें द्वारा रहने योग्य नहीं माना गया। कत्यूरों, चन्दों व गढ़वाल के पवारों के शासन काल में भी यहाँ बसावटें म ही थी। थारू एवं बुक्सा जनजाति ही यहाँ के स्थाई निवासी थे तथा पहाड़ से लोग केवल शीत ट्टतु में ही कड़ाके की ठण्ड से बचने एवं जानवरों के लिए चारागाह ढूंढने आते थे।
जिन स्थानों पर पहाड़ के लोग शीत ट्टतु में अपने जानवरों समेत डेरा डालते थे उसे खत्ता/गोठ अथवा झाला के नाम से जाना गया।
अंग्रेजी हुकूमत ने तराई-भाबर की उपजाउ जमीन के महत्व को समझा व यह माना कि यह क्षेत्रा राजस्व वृद्धि जो कि उनका एकमात्र ध्येय था, हेतु उपयोगी सिद्ध हो सकता है। एक ओर अंग्रेजी शासन द्वारा इस क्षेत्रा में कृषि विकास हेतु नहरों, मार्गों एवं बांधें का निर्माण किया वहीं उनके द्वारा पहाड़ के लोगों को इन क्षेत्रा में स्थाई तौर पर बसाने के लिए भी प्रोत्साहित किया लेकिन उनकी ये कोशिशें कम ही रंग लाई तथा पहाड़ के लोगों का अस्थाई तौर पर आना-जाना बना रहा।
स्वतंत्रता के पश्चात पं. गोविन्द बल्लभ पन्त के नेतृत्व में एक बार फिर पहाड़ के लोगों को यहाँ स्थाई तौर पर बसाने हेतु आमंत्रित किया गया। अब परिस्थितियाँ भी बदलने लगी, जहाँ एक ओर क्षेत्रा का तेजी से विकास हो रहा था वहीं भारत-पाकिस्तान के विभाजन के पश्चात बड़ी संख्या में सिक्ख समुदाय के लोगों द्वारा विपरीत परिस्थितियांे के मध्य मेहनत कर इस उपजाउफ जमीन को तरासा। पन्तनगर में कृषि विश्वविद्यालय, तराई बीज कार्पोरेशन की स्थापना और अवस्थापना जैसे विकास के लिये उठाये गये कदमों ने इस क्षेत्रा को भारत की हरित क्रान्ति का जनक बना दिया।
बदली हुई परिस्थितियों में धीरे-धीरे पहाड़ के लोगों ने खत्तोे में स्थाई तौर पर निवास करना शुरु किया। पहले कुछ परिवार बसे और शनैः-शनै- खत्तों की बसावटें बढ़ती चली गई। जहाँ पहले पहाड़ एक आकर्षण था वहीं अब विकास की बदली हवा ने मैदान को आकर्षण बना दिया। खत्ते सस्ती जमीन और अपने लोगोें की जगह माने गये और अधिक से अधिक लोग यहाँ बसते चले गये।
खत्ते सरकारों/राज्यों के लिए राजस्व का स्रोत भी बने रहे। चन्द शसकों के समय चरवाहों से राजस्व लिया जाता था। रुहेलों व अंग्रेजों द्वारा भी लगान लिया गया। आजादी के पश्चात भी राजस्व जिसे चराई कहा जाता था, की वसूली जारी रही।
इस बीच परिदृश्य फिर र बदलने लगा। 1970 के दशक और उसके पश्चात वन एवं पर्यावरण कानूनों में बड़ा परिवर्तन आया। अन्तर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर कड़े वन एवं पर्यावरण संध्यिों व कानून बनाये गये। इस बीच संरक्षित वनों व आरक्षित वनों में भी वृद्धि हुई। तराई-भाबर में कार्बेट राष्ट्रीय पार्क, कार्बेट बाघ रिजर्व, राजाजी, नन्धैर अभ्यारण इत्यादि बनाये गये और अधिकतर खत्ते/गोठ/झाले इनकी सीमाओं में आ गये। आज भी खत्ते/गोठों में रहने वाले परिवारों के पास उस समय की चराई;लगान की रसीदें व खसरे मौजूद हैं जो दिखाते हैं कि दशकों तक राजस्व दिये जाने के बाद इन खत्तों को संरक्षित वन अथवा आरक्षित क्षेत्रा घोषित किया गया। जिन लोगोें ने सदियों से बड़ी मशक्कत के पश्चात इन क्षेत्रों को बसाया था, अचानक से उनके निवास स्थान अवैध् कब्जे की श्रेणी में आ गये और यहीं से शुरु हुआ खत्ते में रहने वालों का संघर्ष।
आज इन खत्तांे/गोठों में कई परिवार निवास करते हैं। उन्होंने दशकों की मेहनत से पक्के मकान बना लिये हैं तथा कई पीढ़ियों से यहाँ खेती करते आ रहे हैं। सरकार द्वारा भी कुछ सुविधयें जैसे बिजली, स्वास्थ्य मुहैया कराई गई हैं। कुछ खत्ते जैसे बिन्दुखत्ता तो शहर का रूप ले चुके हैं और यहाँ के लोग खुद को राजस्व ग्राम अथवा नगरीय क्षेत्रा घोषित करने के लिए आन्दोलनरत हैं।
खत्ते सरकारों के लिए एक चुनौती भी बन रहे हैं। जहाँ एक ओर ये वन भूमि पर अवैध् कब्जे हैं वहीं यहाँ वन उपज की अवैध् तस्करी, वन्यजीव अपराध्, अवैध् लकड़ी कटान जैसी चुनौतियाँ बनी रहती हैं। पिछले दशकों में तो कुछ खत्ते नक्सली गतिविधियों के लिए भी समाचारों में रहे।
खत्तों का एक मानवीय पहलू भी है। यहाँ के निवासी आज स्वयं को ठगा महसूस करते हैं। दशकों तक सरकार द्वारा प्रोत्साहित किये जाने के पश्चात इनके पूर्वज यहाँ बसे थे। दशकों तक इनके द्वारा चराई;राजस्व भी दिया गया। पीढ़ियों की मेहनत लग गई घर बनाने व खेती योग्य जमीन तैयार करने में, परन्तु इनकी पहचान आज भी अवैध् है। अवैध् कब्जों में आने के कारण इन क्षेत्रों में न तो अवस्थापना विकास हो पाता है और न ही सरकारी योजनाओं का सही से क्रियान्वयन। फलस्वरूप मनरेगा, विधायक या सांसद निधि का व्यय इन क्षेत्रों में नहीं हो पाता और यह क्षेत्र पिछड़े रह जाते हैं। गरीबी व पिछड़ेपन ने भी इन खत्तों को अपनी जकड़ में बनाये रखा है तथा यहाँ के निवासी अपना घरबार व आजीविका खोने के डर से भयभीत रहते हैं। अवैध् कब्जों की श्रेणी में आने वाले ये निवास स्थान अपने भविष्य एवं आने वाली पीढ़ियों के लिए चिन्तारत हैं।
हमें खत्तों के मानवीय पहलुओं को समझना होगा। यहाँ के मुद्दे अलग हैं। पर्यावरण एवं वनों के स्तर पर एक राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय सोच आवश्यक है परन्तु खत्तों/गोठों/झालों को स्थानीय नजरिये से देखना होगा। इनके निवासी हमारे अपने लोग हैं। पिछड़े व गरीब इन गाँवों के बारे में बुद्धिजीवी वर्ग, प्रशासन को गहन चिन्तन की आवश्यकता है ताकि इस विषय को समय रहते सुुलझा लिया जाये।
लेखक- उपजिलाधिकारी पूर्णागिरी, टनकपुर जनपद चम्पावत। टनकपुर भाबर भी खत्तों से घिरा क्षेत्र है। हिमाँशु कफल्टिया हिमाँशु कफल्टिया
खत्ते, गोठ अथवा झाले उत्तराखण्ड के परिदृश्य में समय-समय पर चर्चाओं में आते रहते हैं। कभी वन भूमि पर अवैध् कब्जे के तौर पर तो कभी वन उपज की तस्करी या फिर खुद को राजस्व ग्राम घोषित करने हेतु आन्दोलन। ये खत्ते समाचार पत्रों का हिस्सा बने ही रहते हैं। खत्ते जिन्हें गोठ अथवा झाले के नाम से भी जाना जाता है वह वन ग्राम हैं जो वन भूमि पर बसे हैं एवं सरकार की नजरों में अवैध् कब्जे हैं। बिन्दुखत्ता, गैण्डीखत्ता, छीनीगोठ गढ़ीगोठ, भैंसाझाला कुछ उदारहण हैं। इन गाँवों में वन गुज्जरों के अलावा कई अन्य लोग जो मुख्यतः पहाड़ के लोग हैं निवास करते हैं।
खत्तों का अपना एक इतिहास रहा है। राज्य की तराई-भाबर कापफी उपजाउ भूमि है परन्तु यहाँ गर्मी और उमस भरा मौसम, खतरनाक जंगली जानवर, मच्छर जनित मलेरिया एवं अन्य बीमारियों के कारण यह क्षेत्रा कभी भी पहाड़ी लोगोें द्वारा रहने योग्य नहीं माना गया। कत्यूरों, चन्दों व गढ़वाल के पवारों के शासन काल में भी यहाँ बसावटें म ही थी। थारू एवं बुक्सा जनजाति ही यहाँ के स्थाई निवासी थे तथा पहाड़ से लोग केवल शीत ट्टतु में ही कड़ाके की ठण्ड से बचने एवं जानवरों के लिए चारागाह ढूंढने आते थे।
जिन स्थानों पर पहाड़ के लोग शीत ट्टतु में अपने जानवरों समेत डेरा डालते थे उसे खत्ता/गोठ अथवा झाला के नाम से जाना गया।
अंग्रेजी हुकूमत ने तराई-भाबर की उपजाउ जमीन के महत्व को समझा व यह माना कि यह क्षेत्रा राजस्व वृद्धि जो कि उनका एकमात्र ध्येय था, हेतु उपयोगी सिद्ध हो सकता है। एक ओर अंग्रेजी शासन द्वारा इस क्षेत्रा में कृषि विकास हेतु नहरों, मार्गों एवं बांधें का निर्माण किया वहीं उनके द्वारा पहाड़ के लोगों को इन क्षेत्रा में स्थाई तौर पर बसाने के लिए भी प्रोत्साहित किया लेकिन उनकी ये कोशिशें कम ही रंग लाई तथा पहाड़ के लोगों का अस्थाई तौर पर आना-जाना बना रहा।
स्वतंत्रता के पश्चात पं. गोविन्द बल्लभ पन्त के नेतृत्व में एक बार फिर पहाड़ के लोगों को यहाँ स्थाई तौर पर बसाने हेतु आमंत्रित किया गया। अब परिस्थितियाँ भी बदलने लगी, जहाँ एक ओर क्षेत्र का तेजी से विकास हो रहा था वहीं भारत-पाकिस्तान के विभाजन के पश्चात बड़ी संख्या में सिक्ख समुदाय के लोगों द्वारा विपरीत परिस्थितियांे के मध्य मेहनत कर इस उपजाउफ जमीन को तरासा। पन्तनगर में कृषि विश्वविद्यालय, तराई बीज कार्पोरेशन की स्थापना और अवस्थापना जैसे विकास के लिये उठाये गये कदमों ने इस क्षेत्रा को भारत की हरित क्रान्ति का जनक बना दिया।
बदली हुई परिस्थितियों में धीरे-धीरे पहाड़ के लोगों ने खत्तोे में स्थाई तौर पर निवास करना शुरु किया। पहले कुछ परिवार बसे और शनैः-शनै- खत्तों की बसावटें बढ़ती चली गई। जहाँ पहले पहाड़ एक आकर्षण था वहीं अब विकास की बदली हवा ने मैदान को आकर्षण बना दिया। खत्ते सस्ती जमीन और अपने लोगोें की जगह माने गये और अधिक से अधिक लोग यहाँ बसते चले गये।
खत्ते सरकारों/राज्यों के लिए राजस्व का स्रोत भी बने रहे। चन्द शसकों के समय चरवाहों से राजस्व लिया जाता था। रुहेलों व अंग्रेजों द्वारा भी लगान लिया गया। आजादी के पश्चात भी राजस्व जिसे चराई कहा जाता था, की वसूली जारी रही।
इस बीच परिदृश्य फिर र बदलने लगा। 1970 के दशक और उसके पश्चात वन एवं पर्यावरण कानूनों में बड़ा परिवर्तन आया। अन्तर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर कड़े वन एवं पर्यावरण संधियों व कानून बनाये गये। इस बीच संरक्षित वनों व आरक्षित वनों में भी वृद्धि हुई। तराई-भाबर में कार्बेट राष्ट्रीय पार्क, कार्बेट बाघ रिजर्व, राजाजी, नन्धैर अभ्यारण इत्यादि बनाये गये और अधिकतर खत्ते/गोठ/झाले इनकी सीमाओं में आ गये। आज भी खत्ते/गोठों में रहने वाले परिवारों के पास उस समय की चराई;लगान की रसीदें व खसरे मौजूद हैं जो दिखाते हैं कि दशकों तक राजस्व दिये जाने के बाद इन खत्तों को संरक्षित वन अथवा आरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया। जिन लोगोें ने सदियों से बड़ी मशक्कत के पश्चात इन क्षेत्रों को बसाया था, अचानक से उनके निवास स्थान अवैध् कब्जे की श्रेणी में आ गये और यहीं से शुरु हुआ खत्ते में रहने वालों का संघर्ष।
आज इन खत्तांे/गोठों में कई परिवार निवास करते हैं। उन्होंने दशकों की मेहनत से पक्के मकान बना लिये हैं तथा कई पीढ़ियों से यहाँ खेती करते आ रहे हैं। सरकार द्वारा भी कुछ सुविधयें जैसे बिजली, स्वास्थ्य मुहैया कराई गई हैं। कुछ खत्ते जैसे बिन्दुखत्ता तो शहर का रूप ले चुके हैं और यहाँ के लोग खुद को राजस्व ग्राम अथवा नगरीय क्षेत्रा घोषित करने के लिए आन्दोलनरत हैं।
खत्ते सरकारों के लिए एक चुनौती भी बन रहे हैं। जहाँ एक ओर ये वन भूमि पर अवैध् कब्जे हैं वहीं यहाँ वन उपज की अवैध् तस्करी, वन्यजीव अपराध्, अवैध् लकड़ी कटान जैसी चुनौतियाँ बनी रहती हैं। पिछले दशकों में तो कुछ खत्ते नक्सली गतिविधियों के लिए भी समाचारों में रहे।
खत्तों का एक मानवीय पहलू भी है। यहाँ के निवासी आज स्वयं को ठगा महसूस करते हैं। दशकों तक सरकार द्वारा प्रोत्साहित किये जाने के पश्चात इनके पूर्वज यहाँ बसे थे। दशकों तक इनके द्वारा चराई;राजस्व भी दिया गया। पीढ़ियों की मेहनत लग गई घर बनाने व खेती योग्य जमीन तैयार करने में, परन्तु इनकी पहचान आज भी अवैध् है। अवैध् कब्जों में आने के कारण इन क्षेत्रों में न तो अवस्थापना विकास हो पाता है और न ही सरकारी योजनाओं का सही से क्रियान्वयन। फलस्वरूप मनरेगा, विधायक या सांसद निधि का व्यय इन क्षेत्रों में नहीं हो पाता और यह क्षेत्र पिछड़े रह जाते हैं। गरीबी व पिछड़ेपन ने भी इन खत्तों को अपनी जकड़ में बनाये रखा है तथा यहाँ के निवासी अपना घरबार व आजीविका खोने के डर से भयभीत रहते हैं। अवैध् कब्जों की श्रेणी में आने वाले ये निवास स्थान अपने भविष्य एवं आने वाली पीढ़ियों के लिए चिन्तारत हैं।
हमें खत्तों के मानवीय पहलुओं को समझना होगा। यहाँ के मुद्दे अलग हैं। पर्यावरण एवं वनों के स्तर पर एक राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय सोच आवश्यक है परन्तु खत्तों/गोठों/झालों को स्थानीय नजरिये से देखना होगा। इनके निवासी हमारे अपने लोग हैं। पिछड़े व गरीब इन गाँवों के बारे में बुद्धिजीवी वर्ग, प्रशासन को गहन चिन्तन की आवश्यकता है ताकि इस विषय को समय रहते सुुलझा लिया जाये।
लेखक- उपजिलाधिकारी पूर्णागिरी, टनकपुर जनपद चम्पावत।
टनकपुर भाबर भी खत्तों से घिरा क्षेत्र है।