
कुभ मेले की अथाह भीड़ तथा राजनैतिक नेताओं की चुनाव सभाओं की भीड़ को देखते हुए इस बार द्वाराहाट क्षेत्र के लोगों ने भी कोरोना काल में ऐतिहासिक स्याल्दे बिखोती कौतिक की अस्मिता को बचाने का निर्णण लिया। कोरोना के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए स्याल्दे बिखोती मेला कमेटी तथा नगर पंचायत द्वाराहाट ने केवल पारम्परिक नगाड़ा टीमों को मेले में आने की स्वीकृती दी। मेले में लगने वाले चर्खे आदि तथा बाहरी व्यापारियों को भी मेला कमेटी ने आने की सहमति नहीं दी। इस बार मेले में बाहरी सांस्कृतिक टीमों के साथ ही स्थानीय स्कूलों के बच्चों के भी कार्यक्रम नहीं हुए। परन्तु 13-14 तथा 15 अप्रैल 2021 को यह मेला बहुत ही सादगी के साथ इस बार सम्पन्न हुआ।
जहाँ स्थानीय मेलों का अस्तित्व खतरे में है। वहीं इस वर्ष स्याल्दे बिखोती मेले के पहले दिन 13 अप्रैल की रात 8 गाँवों के लोग अपने गाँव के नगाड़े-छोलिया नृत्य-झोड़े तथा भगनौल गाते हुए मेले में पहुँचें। मेले के दूसरे दिन 14 अप्रैल को नौज्यूला ध्ड़े के 4 गाँवों के लोग मेले में पहुँचे। 15 अप्रैल को मुख्य मेले के दिन गरख धड़े के 10 गाँवों के लोग तथा आल धड़े के 1 गाँव के लोग अपने.अपने गाँव के नगाड़े सहित मेले में पहुँचे। समूचे मेले में 23 गाँ वों के लोग अपने खर्चे पर मेले में नगाड़ों के साथ पहुँचे। एक गाँव से नगाड़ा ले जाने के लिए नगाड़ा और दमुवा बजाने वाले दो कलाकारए रणसिंग बजाने वाला एक कलाकार, ;छोलिया नृत्य वाले दो कलाकार ;निसाण/ध्वजा ले जाने के लिए दो व्यक्तियों सहित 7 कलाकारों की व्यवस्था करने में लगभग दस हजार से 15 हजार रुपए तक का खर्च आता है। जिसे ग्रामीण स्वयं वहन करते हैं। चर्चा होती है कि गाँव से नगाड़ा ले जाने के लिए मेला कमेटी यानी सरकार से पैसा मिलता है इसलिए लोग अपने गाँव का नगाड़ा लाते हैं। इस सन्दर्भ में नगर पंचायत द्वाराहाट के अध्यक्ष मुकुल साह से हुई वार्ता के अनुसार मेले के लिए लगभग एक लाख रुपए शासन से मिलता है जिसका 60 प्रतिशत नगाड़े लाने वाले गाँवों को दिया जाता है। उनके अनुसार मेले में जितने गाँवों के लोग नगाड़े के साथ पहुाँचते हैं उन्हें यह धनराशि बराबर-बराबर बांटी जाती है। यह धनराशि लगभग दो या ढाई हजार के लगभग होती है। यह धनराशि भी सरकार के बजट आने पर ही मिल पाती है। इस प्रकार गाँवों के लोग सरकार के भरोसे पर नहीं अपने संसाधनों से मेले में नगाड़ा ले जाते हैं। गाँव के लोगों का मानना है कि यह धनराशि खर्चे के बतौर मिलने के बजाय सम्मान के तौर पर मिलती तो गाँव वालों का और अधिक उत्साह बढ़ता।
इस मेले में नगाड़ा ले जाने के लिए कुछ गाँव होली की बचत को खर्च करते हैं तो कुछ गाँव अपने गाँव के पफंड से स्याल्दे मेले के लिए खर्च करते हैं। किसी गाँव में मेले में नगाड़ा ले जाने के गाँव के लोग चादर में अपनी श्रद्धा से पैसा जमा करवाते हैं, बांकी जितनी धनराशि और खर्च होती है उसे गाँव के कुछ उत्साही लोग आपस में मिलकर जमा करते हैं। किसी गाँव में नगाड़ा ले जाने के लिए लोग प्रत्येक परिवार से चंदा जमा करते हैं। कुछ गाँव में कुछ सक्षम लोग ही आपस में मिलकर धनराशि जमा करते हैं। किसी गाँव में अभी भी पुराने थोकदार और पधानों के घर से नगाड़ा उठाया जाता है तो किसी गाँव में वर्तमान पंचायती व्यवस्था में निर्वाचित ग्राम पधान नगाड़ा ले जाने की व्यवस्था करते हैं।
अलग-अलग कारणों से गाँवों के लोगों ने अपने पारम्परिक काम छोड़ दिए हैं। इस कारण अब गाँवों में नगाड़ा व रणसिंग बजाने वाले तथा छोलिया नृत्य करने वाले पारम्परिक प्रशिक्षित कलाकार नहीं मिल पाते हैं। दूरस्थ गाँवों से अधिक मानदेय देने पर भी कलाकार नहीं मिल पाते हैं। समय के साथ पारम्परिक व्यवसाय, रीति रिवाज तथा संस्कृति में बदलाव आ रहा है। नगाड़ा बजाने वाले प्रशिक्षित कलाकार न मिलने पर गाँव के पढ़े-लिखे युवा अपने गले में नगाड़ा व दमुवा लेकर अपने गाँव का नगाड़ा स्वयं ले जा रहे हैं। अपनी संस्कृति को बचाने के लिए ये सकारात्मक पक्ष है। नशे की बढ़ती प्रवृत्ति व दूसरे कारणों से युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति से दूरी बना रही है। इस नकारात्मक पक्ष पर भी विचार किया जाना जरूरी है। एक गाँव के पधान के अनुसार अब गाँव का जनप्रतिनिधि चयनित ग्राम पधान गाँव का मुखिया है। तमान सरकारी लेन देन उसके माध्यम से होता है। केवल मेले तक ही उनकी पधान चारी रह गई है। उनके अनुसार गाँव के लोग मेले के लिए पैसा भी जमा करते हैं। नगाड़ा बजाने के लिए प्रशिक्षित कलाकार दूसरे गाँव के होते हैं। ये प्रशिक्षित कलाकार मेले की समाप्ति तक अपने काम को पूरी ईमानदारी से करते हैं। परन्तु मेले की समाप्ति पर नगारा आदि गाँव वापस गाँव लाने के लिए लोग तैयार नहीं रहते हैं। पूरी जिम्मेदारी प पधान के हिस्से होती है। ऐसे में स्याल्दे बिखोती में उनके गाँव से पिछले कई वर्षो से नगाड़ा नहीं जा रहा है। परन्तु कई गाँवों में अब चयनित ग्राम पधान के नेतृत्व में नगाड़ा जा रहा है। जहां कई गांवों का नगाड़ा मेले में नहीं जा रहा है। वहीं कई ग्राम पंचायतों में अलग.अलग तोकों से युवा अपने गांव का नगाड़ा ले जा रहे हैं। इस साल स्याल्दे मेले में विद्यापुर गाँव का नगाड़ा 40 साल व गवाड़ गाँव का नगाड़ा 15 साल बाद युवाओं की पहल पर मेले में शामिल हुआ। कहते हैं कि घर में किसी की मृत्यु के बाद एक साल तक बाजा नहीं बजता। बताते हैं कि यहाँ एक गाँव में पधान जी के पिताजी की मृत्यु हो गई। स्याल्दे के दिन ही उनका पीपलपानी थी। पधन जी सुबह जल्दी पीपलपानी के बाद अपने गाँव का नगाड़ा लेकर मेले में गए। ये कहीं न कहीं अपने गाँव की पहचान बनाने व अपनी संस्कृति को जीवित रखने का प्रयास ही तो है।
आल समूह से इस बार केवल एक गाँव का नगाड़ा शामिल हुआ। बताया गया कि मेला कमेटी से सीधे सम्वाद नहीं होने के कारण कई गाँवों के लोग मेले में शामिल नहीं हुए। एक गाँव के प्रधन के अुनसार समूचे मेले की शोभा विभिन्न गााँवों से आए नगाड़ों के कारण होती है। परन्तु गाँववालों तक मेला कमेटी का सीध्े सम्वाद तक नहीं होता है। लोगों का कहना है कि मेला कमेटी में केवल बाजार के नजदीक के लोगों को शामिल किया गया है। मेले से पहले मेला कमेटी में नगाड़े ले जाने वाले गाँवों के पधान या सभापति को आमंत्रित कर जहाँ मेले में उनकी सक्रिय भागीदारी होगी वहीं सम्वादहीनता भी नहीं होगी।
उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद हमारी सरकारें अपना राजस्व बढ़ाने के लिए स्थान.स्थान पर शराब की दुकानें खोल रही हैं। ये तो सभी जानते हैं। इस बार स्याल्दे मेले में द्वाराहाट में शराब की दुकानें खुली रही। सरकार के राजस्व बढ़ाने के इस अभियान में गांव खोखले होते जा रहे हैं। ऊपर जिन प्रशिक्षित कलाकारों की बात कहीं गई हैं। उनमें से कुछ तो सुबह से ही अपना मनोरंजन पहले ही कर लेते हैं। गाँव परम्परा के अनुसार द्वाराहाट के गाँवों में चैत्र एक गते यानी फूल संक्रांति के दिन से झोड़े प्रारम्भ हो जाते हैं। पूरे चैत्र माह में गांवों में रात को झोड़े होते हैं। गांव के लोक कलाकार विगत एक साल में हुए सामाजिक विसंगतिए प्रेम प्रसंग आदि समसामयिक मुद्दों पर झोड़े तैयार करते हैं। गाँवों से निकलकर मुख्य मेले के दिन ये झोड़े सार्वजनिक हो जाते हैं। ये झोड़े एक गाँव से दूसरे गाँव तथा दूसरे क्षेत्रों तक पहुँचते हैं। प्रेम प्रसंग का कोई झोड़ा एक गाँव से दूसरे गाँव में गाया जाने लगा और उस गाँव में उस प्रेमी और प्रेमिका का कोई रिश्तेदार होता है तब कई बार गाँव में झगड़ा होने की सम्भावना भी बन जाती है। गाँवों में बढ़ती पानी की समस्या, शराब के प्रचलन, जंगलों में आग लगने व कोरोना की वजह से नौकरी जाने पर आधरित ये झोड़ा इस वर्ष मेले में छाया रहा-
गौनूं में हैगे पाणि की पटा,
शराब धकाधए
धुर जंगला आग लागिगो
एसैपूं की चकाचकए
कोरोना त्वीलै नौकरी खाई
नेता ज्यू टकाटक।
द्वाराहाट में राजनैतिक व्यंग्य बतौर झोड़ा भी इस बार गाया गया ‘काईखोई हैरौ खालि बदनाम, नैपाला हैरौ भौए अघिला साला पंदरा पैटा हिटणी ल्यायै भौ’। शराब तथा बन्दर और जंगली जानवरों के आतंक से सम्बन्धित झोड़ों के साथ कई पुराने झोड़े भी सुनने को मिले। गाँव के नगाड़ों के साथ ही गाँव की महिलाएं भी घरों से निकलती है। इस बार बाहर की दुकानें नहीं थी और मीना बाजार भी नहीं लगा। इस कारण इस बार मुख्य मार्ग में कई स्थानों पर गाँव की महिलाओं ने अलग-अलग समूहों में झोड़े गाए। मुख्य मेला स्थल पर भी महिलाओं ने बड़े समूह में झोड़े गाए।
मेले में नौज्यूला, गरख और आल समूह के नगाड़ों के साथ तीन चार समूहों में अलग.अलग गीतों के साथ टोलियां रहती हैं। इन टोलियों में भगनौल गायक बीच-बीच में जोड़ मारते हैं। उस जोड़ के साथ मेले में शामिल लोग नाच करते हुए अलग-अलग गीत गाते हैं। व्यक्तिगत तौर पर मेले में इन पंक्तियों के लेखक की भागीदारी लगभग हर वर्ष तीन दिन तक हुड़के के साथ रहती है। बड़ी भीड़ के साथ कभी-कभी तो गीत के बोल तक नहीं सुनाई देते हैं। कई समूह में युवाओं को अश्लील गीत गाते हुए भी सुना गया। इनमें से कई तो घुटुक.घाटुक लगाकर मस्त थे। उन्हें किसी गीत से कुछ लेना-देना नहीं था। मेला व्यवस्थित हो इस पर भी मेला कमेटी तथा गाँवों के लोगों का आपस में विचार विमर्श करना चाहिए। मेले में ओड़ा भेंटते समय भी सारे निषाण एक साथ चलें तो लोग उस धड़े के सारे गाँवों की गिनती कर सकें। इधर कई वर्षो से अलग-अलग गाँवों के युवा अति उत्साह में अपने निसाण पहले लेकर अलग हो जाते हैं। इससे नगाड़ों या निसाणों की गिनती तक नहीं हो पाती। इसके लिए मेला समिति को सभी गाँवों के थोकदार पधानों -सभापतियों की एक बैठक जरूर बुलानी चाहिए।
ज्ञातव्य है कि कालान्तर में देश के अन्य शिवालयों व तीर्थो की तरह द्वाराहाट के स्थानीय तीर्थ श्री विभाण्डेश्वर महादेव में भी लोग विषुवत संक्रान्ति यानी बिखौती के दिन स्नान व पूर्जा अर्जन के लिए आते थे। जन श्रुति के अनुसार एक बार बिखोती में द्वाराहाट में हुए एक झगड़े में द्वाराहाट के लोगों ने किसी बाहरी गाँव के थोकदार को मार कर उसका सिर जमीन में गाड़ दिया। वहाँ पर एक पत्थर गाड़ दिया गया। जिसे ‘ओड़ा’ कहा जाता है। तब से स्याल्दे मेले के दिन द्वाराहाट क्षेत्र के लोग नगाड़े, निसाण, छोलिया नृत्य, गीत भगनौल गाते हुए मेले में आते हैं। मेलार्थी उस पत्थर यानी ओड़े के ऊपर लकड़ी मारकर अपनी वीरता व विजय को याद करते हैं। कहा जाता है कि अंग्रेजी शासन काल में भीड़ को नियंत्रित करने के लिए समूचे क्षेत्र की जनता को आल गरख व नौज्यूला धड़े में बांट दिया गया। तब से तीनों समूहों अपनी बारी के अनुसार ओड़ा भेटने की रस्म अदा करते हैं।
एक किस्सा प्रचलन में है कि दोर्याल ;द्वाराहाट निवासी अपना बैल बेचकर भी स्याल्दे बिखोती मेला जरूर जाता है। परन्तु इलैक्ट्रानिक मीडिया के वर्तमान दौर में बेरोजगारी, महंगाई, शराब के प्रचलन, युवाओं में बढ़ती नशे की प्रवृत्ति व मेलों में होती गुण्डागर्दी के कारण अब मेले व दूसरे सार्वजनिक समारोह आयोजित करना अपने आप में एक चुनौती है। इस बार कुम्भ मेले तथा सल्ट विधानसभा चुनाव में पुलिस की तैनाती के कारण पुलिस की समुचित व्यवस्था नहीं थी। उसके बावजूद गाँवों की आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था ने मेले को शान्तिपूर्ण ढंग से सम्पन्न करवाने में मदद की। एक दौर था जब देश प्रदेश में रह रहे प्रवासी इस मेले में छुट्टी लेकर आते थे। परन्तु महंगाईए बेरोजगारी व अन्य कारणों से चाहते हुए भी लोग मेले में नहीं आ पाते हैं। उसके बावजूद जागरूक युवाओं की पहल पर द्वाराहाट का स्याल्दे बिखोती मेला आज भी अपने स्वरूप व अस्मिता को बचाए हुए है।