पर्यावरण और पेड़ पौधे- मजनू

जैसा नाम वैसा काम
–प्रयाग
वनस्पतियों का नाम हमारे भारतीयों विद्वानों वैज्ञानिकों सहित अन्य विश्व कर प्रसिद्ध वनस्पतिक बैज्ञानिको ने पेड़ पौधों की जीवन शैली रूप रेखा जीवन चक्र के अनुसार रखे हैं। इनके सुंदर भाग वृक्ष जड़, छाल, लतायें, कोपले, फल ,फूल, तना, अन्य अनगिनत शाखाएं होती है जो हमे हवा पानी देती है जीवन देती हैं। इन्ही में एक पेड़ है मजनू जिसको संसार मे अलग अलग नामो से जाना जाता है ।
मुंस्यारी क्षेत्र में इस वनस्पति को मंछयन के नाम से जानते हैं जिसका तातपर्य /मतलब भी हिंदी के प्रचलित शब्द मजनू का क्षेत्रीय नाम है इसकी साथी पेड़ को लैला नाम से जाना जाता मजनू पेड़ का वानस्पतिक नाम salix bebylomica है । यह वनस्पति वर्तमान में भूजल की कमी को पूरा करने में सक्षम है । अधिकतर जलश्रोतों में इसकी लटकी हुये लताये शाखाएं देखे जाते हैं ।
जलश्रोतों को पुनर्जीवित करना हो तो अन्य जल उतपन्न करने वाले वनस्पतियों के साथ मजनू के पौधों का भी लगाये सकारात्मक परिणाम आयेंगे मजनू के फूल और कोपले भी काफी असाध्य रोगों के उपचार में दवाओं अन्य औषधीय हर्बल उत्पादों के साथ मिश्रण कर उपचार में प्रयोग होता है मजनूं के फूल बीज मधुमखियों, पक्षियों के पसंदीदा भोजनो मे से एक है अधकितर पशु पक्षियों द्वारा ही हमारे विलुप्त हो रहे वनस्पतियों का संरक्षण किया जा रहा है
हम इंसान स्वार्थी है में खुद भी
लेकिन में अब प्रयास कर रहा हूं की जितना भौतिक लाभ मुझे मिले इन वनस्पतियों से मिलता है उसमें का 80% भाग तन मन धन इनके बचाव और सुरक्षा में खर्च करूंगा मेरे ओर टीम का प्रयास सम्पूर्ण वर्ष में वृक्षारोपण के साथ इनकी सुरक्षा देखभाल उपयोग ,स्वरोजगार, आत्मनिर्भर, ओर दोहन न करने पर भी रहेगा
हम जो धरातल के लोग हैं उन किसानों ,चरवाहों से लगातार वन उपज के दोहन ,सुरक्षा पर चर्चा करते हैं उनके बन परिसर में बिताये अनुभव का लाभ लेते हैं और वन्यजीव वनस्पतियों की जानकारी हेतु एक मार्गदर्शक के रूप में आंशिक पारिश्रमिक देकर भृमनशील जगहों पर लेके जाते हैं तब इन सयानो से हम कुछ सिख पाते हैं
पुनः टीम के साथ हिमालय के ग्रामीणों से विलुप्त हो रहे वन ,वनस्पतियों,वन्यजीव, पशु,पक्षियो को बचाया जाय
अगर अपना स्वार्थ है तो पशु, पक्षी मधुमक्खी भी हमे इन्हें बचाने, इनकी बीज उतपत्ति में योगदान देते हैं
कुछ पेड़ आर्थिक लाभ सजावट के लिये लगाएं
कुछ पेड़ जंगली जानवरों के भोजन निवाला हेतु लगाएं
कुछ पेड़ पक्षियो के खाने बसासत घोषलो हेतु लगाएं
हिमालय को हरा भरा करने में अपना योगदान दे
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टीम
जौहारी फ़सक मुंस्यारी हाउस
पिघलता हिमालय
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हिमालय जैव विविधता का जनक


प्रोफेसर सुनील कुमार कटियार
हिमालय के जंगल जीवन की आश्चर्यजनक विविधता का पोषण करते हैं जो अनुदैर्ध्य और ऊंचाई वाले ढालों में समृद्धि बनाते हैं. और इस लिए उन्हें 36 वैश्विक जैव विविधता हॉट स्पॉट में से एक के रूप में वर्गीकृत किया गया है। जैवविविधता हॉटस्पॉट का विचार पहली बार 1988 में नॉर्मन मायर्स द्वारा रखा गया था। हिमालय पर्वतमाला दुनिया की पर्वत प्रणालियों में सबसे छोटी और सबसे ऊंची हैं। वे जैविक और भौतिक विशेषताओं दोनों के संदर्भ में एक अत्यधिक जटिल और विविध प्रणाली का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्राकृतिक और मानव.प्रेरित विक्षोभों के प्रति उनकी सुभेद्यता सर्वविदित है। जैवविविधता तत्वों की समृद्धि और विशिष्टता के कारणए इस क्षेत्र को 34 वैश्विक जैवविविधता हॉटस्पॉट में से एक के रूप में मान्यता दी गई है। यह पौधों की उत्पत्ति के 3 उप.केंद्रों (पश्चिम हिमालयए, पूर्वी हिमालय और उत्तरपूर्व क्षेत्र) का प्रतिनिधित्व करता है . जो क्रमशः 125, 82 और 132 प्रजातियों के जंगली रिश्तेदारों का योगदान करते हैं। पूर्वी हिमालय और उत्तरपूर्वी उप.केंद्र मूसा और साइट्रस विविधता में योगदान के लिए जाने जाते हैं। इस क्षेत्र में प्रचलित आदिम कृषि प्रणालियों और स्वदेशी कृषक समुदायों द्वारा सचेत और अचेतन चयनों ने भूमि दौड़ के रूप में आनुवंशिक विविधता के विशाल संवर्धन में योगदान दिया है। प्रतिनिधि प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र (घास के मैदान और जंगल) की विविधता और स्थानिक जैव संसाधनों की समृद्धि ने हिमालय के पारिस्थितिक महत्व को जोड़ा है। विशेष रूप से अल्पाइन घास के मैदान और क्षेत्र के जंगल अनूठी विशेषताओं का प्रदर्शन करते हैं। हिमालय के बुग्याल महत्वपूर्ण वन्य जीव प्रजातियों जैसे कस्तूरीमृग, हिमालयी भूरा भालू, हिमालयी थार और मोनाल का एक प्रमुख आवास भी है।
2000 के दशक की शुरुआत से पर्यटन और मानवीय गतिविधियों में वृद्धि ने इस प्राचीन भूमि की स्थलाकृति को बदलना शुरू कर दिया। वन्य जीव प्रजातियों जैसे कस्तूरीमृग, हिमालयी भूरा भालू, हिमालयी थार और मोनाल का एक प्रमुख आवास भी है। इसके अलावा औषधीय और जंगली खाद्य पौधे क्षेत्र के पारिस्थितिक और आर्थिक मूल्य में काफी वृद्धि करते हैं। हालांकि हिमालयी पारिस्थितिक तंत्र और उनके घटक भूवैज्ञानिक कारणों से और जनसंख्या के बढ़ते दबाव के कारण तनाव केकारण अत्यधिक संवेदनशील हैं। साथ ही इस बात के भी संकेत मिल रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण इन कारकों के दुष्प्रभाव और बढ़सकते हैं। यह ऊपरी और निचले इलाकों में रहने वाले स्वदेशी समुदायों के जीवन को प्रभावित करेगा। इसलिएए सभी प्रतिनिधि प्रणालियों के संरक्षण के लिए सचेत प्रयास करने की तत्काल आवश्यकता है। इस संदर्भ में क्षेत्र में मौजूदा संरक्षण क्षेत्र नेटवर्क जो देश के औसत से अधिक मजबूत प्रतीत होता है, एक स्वागत योग्य पहल है। हालाँकि इस नेटवर्क को सभी प्रतिनिधि पारिस्थितिक तंत्रों को पर्याप्त कवरेज प्रदान करने के लिए मजबूत करने की आवश्यकता है खासकर उत्तरपूर्व में।
हिमालयी जैव संसाधनों के संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए सामुदायिक समर्थन के माध्यम से और सतत उपयोग अवधारणा को बढ़ावा देने के माध्यम सेसंरक्षण दृष्टिकोण में एक प्रमुख बदलाव की आवश्यकता का सुझाव दिया गया है। प्राकृतिक विकासवादी प्रक्रियाओं को जारी रखने के लिए अद्वितीय, अक्सर स्थानिक तत्वों के महत्वपूर्ण भंडार को बनाए रखने के लिए यह महत्वपूर्ण है।
  ( राजकीय महाविद्यालय टनकपुर, चंपावत )

शौका बोली व भाषा

गजेन्द्र सिंह पांगती
जोहार से विस्थापन के बाद शौका संस्कृति जिस तरह विलुप्ति के कगार पर पहुँच गयी है उससे युवा व वृद्ध सभी शौका चिन्तित है। अन्य लोगों की तरह मैं भी मौका मिलते ही शौका संस्कृति के संरक्षण और समवर्धन की आवश्यकता पर अपने विचार प्रकट करता रहता हूँ। लेकिन अभी तक इस विषय में कुछ जागरूकता पैदा होने के अतिरिक्त कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो पायी है। इसका बहुत बड़ा कारण भी है। यह कार्य उतना ही दुरूह है जितना सूखे जड़ वाले पेड़ को पुनर्जीवित करना लेकिन यह असम्भव भी नहीं है। आवश्यकता है तो केवल इस बात की कि प्रयाश सुनियोजित हो और उसमें निरन्तरता हो, प्रयास सार्थक हो इसके लिए यह जानना आवश्यक है कि संस्कृति के वे मूल तत्व और कारक कौन है जिनके छूटने से संस्कृति बिलुप्त हो गयी/हो जाती है।
संस्कृति के मूल तत्व है भाषा, धर्म, परम्पराएं, आस्थाएं, रीतियाँ, कुरीतियाँ, विश्वास, अंधविश्वास, आर्थिक क्रिया कलाप, पहनावा, खानपान आदि आदि। ऐतिहासिक कारणों से शौका भाषा जहाँ कुमाउंनी की सहोदर रही है वहीं शौकाओं का धर्म वैदिक धर्म का सरलीकृत रूप रहा है। तिब्बत व्यापार बन्द हो जाने से शौकाओं का परम्परागत आर्थिक क्रियाकलाप पुनर्जीवित करना असम्भव है। जोहार की ठण्डी आबोहवा में उपयोगी पहनावे का अनुपयोगी हो जाना भी स्वाभाविक है. परम्पराए, आस्थाएं, रीतियाँ, कुरीतियाँ, विश्वास व अंधविश्वास, खान-पान आदि समय के साथ बदलती रहती हैं। संस्कृति के समवर्धन के किये इसके मूल तत्वों को संरक्षित करने के साथ ही कुरीतियों व अन्ध् विश्वासों को दूर करते रहना आवश्यक है। संस्कृति में भाषा व ध्र्म सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। इन दोनों में भाषा का स्थान गुरुतर है। ध्र्म बदलने के बाद भी संस्कृति के संरक्षित रहने के कई उदाहरण मिल जायेंगे लेकिन भाषा छूटने के बाद संस्कृति के बचे रहने का शायद ही कोई उदाहरण मिल पाए। बंगाली मुसलमानों ने धर्म परिवर्तन के बाद भी अपनी भाषा नहीं बदली। यही कारण है कि उनमें बंगाली संस्कृति अब भी जीवित है। यही बात कुछ हद तक पंजाबी मुसल्वानों के लिए भी कहा जा सकता है। इसीलिए कहा जाता है, ‘भाषा छूटी तो संस्कृति छूटी।’ पलायन के साथ ही शौका अपनी भाषा पीछे छोड़ आये है। अब उनकी संस्कृति भी भूतकाल की बात होने के कगार पर है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है।
इसलिए यदि शौका संस्कृति को संरक्षित करना हो तो हमें सबसे पहले उनकी भाषा व बोली को पुनर्जीवित व प्रचलित करना होगा। हमें उन कारकों का विश्लेषण करना होगा जिनकी वजह से शौका भाषा में लिखित साहित्य की रचना नहीं की जा सकी और उनकी बोली प्रचालन से बाहर हो गयी। कुमाउनी का सहोदर होने के कारण शौका भाषा को हिन्दी की उपभाषा कहा जा सकता है। मैं अपनी रचनाओं में इसका कई बार उल्लेख कर चुका हूँ कि यह कैसे बंगाली और नेपाली से मिलती है। कुमाउनी से इसमें जो भिन्नता है उसके मूल में उक्त दोनों भाषाओं का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। मैं तो यहाँ तक कहता रहा हूँ कि यदि बंगाली शब्दों में ओ की जगह अ का उच्चारण किया जाय या शौका बोली में अ की जगह ओ का उच्चारण किया जाय तो इन दो भाषी लोगों को एक दूसरे की भाषा समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी। यह मैं अपने कलकत्ता प्रवास के अनुभव के आधार पर दावे के साथ कह सकता हूँ। दुर्भाग्य से अबसे पूर्व राजस्थानी की ओर मेरा ध्यान नहीं गया था। दुर्भाग्य इसलिए कि जोहार के मूल पुरुष धम सिंह रावत के राजस्थान से होने पर भी मैं इस पर गौर नहीं कर सका। इसका एक कारण सम्भवतय यह भी रहा है कि जब मैं 2 वर्ष के लिए जयपुर में था तो मेरा कार्य क्षेत्र मध्य और पूर्व राजस्थान था जहाँ हिन्दी खड़ीबोली का अधिक प्रभाव है जबकि पश्चिम व दक्षिण राजस्थान में शुद्ध राजस्थानी बोली व भाषा का प्रभाव है। यही कारण है कि महान लेखक व साहित्यकार बिजयदान देथा ने जब अपना रचना साहित्य राजस्थानी में लिखने का निर्णय लिया तो उन्होंने जो पहला कार्य किया वह था जयपुर से जोध्पुर जाना और अपने मूल गाँव में रहना ताकि वे मूल राजस्थानी भाषा की आत्मा में रच-बस सकें। उन्होंने राजस्थानी में अनेकानेक उपन्यास, लेख, समालोचनाएँ, संस्मरण आदि और हजारों कहानियां लिखीं है. मुझे पूर्व में उनकी एक-दो रचनाएं पढने का सौभाग्य मिला था. उनके कथानकों की रोचकता और रचना की सरलता व सुन्दरता से मैं अभिभूत हुए बिना नहीं रह पाया। इसलिए उनकी और रचनाएं पढ़ने की तमन्ना मेरे दिल में थी। कोरोना ने मेरी यह तमन्ना पूरी कर दी। इस महामारी से बचने के लिए मैं अपने पुत्र नवीन के आवास ‘मनाकार’, सल्ला, कसारदेवी, अल्मोड़ा आ गया। नवीन के भी बिजयदान देथा का प्रशंसक होने के कारण उसके पुस्तकालय में उनकी कई रचनाएँ उपलब्ध् थीं। उनमें से तीन-चार रचनाएं पढ़ने पर मुझे इस बात का आभास हुआ कि शौका भाषा व बोली राजस्थानी से अत्यधिक प्रभावित है। कई राजस्थानी शब्द, शब्दों का स्पेलिंग व उच्चारण, वाक्यों की संरचना आदि हिन्दी से भिन्न लेकिन हूबहू शौका बोली जैसी है। मुझे पक्का विश्वास है कि जब भी हम शौका बोली को संरक्षित करने का सुनियोजित प्रयाश करेंगे और शौका भाषा में लेखन के लिए उसके ब्याकरण, उच्चारण, स्पेलिंग आदि का मानकीकरण करेंगे तब मूल राजस्थानी भाषा से हमें बहुत मदद मिलेगी।
किसी भी भाषा व संस्कृति को जीवन्त रखने के लिए उसके मुहावरों व लोकोक्तियों का प्रचलन में रहना अति आवश्यक है क्योंकि इनमें उस संस्कृति की आत्मा बसती है। इनमें सम्बन्धित समाज का इतिहास, उसका अनुभव, उसका विस्वास, मान्यताएं, वर्जनाएं आदि का संकलन होता है। इसी प्रकार भाषा के जीवन्त रहने के लिए आवश्यक है उसका सरल व मध्ुर ;कर्णप्रियद्ध होना और उसका व्याकरण की शु(ता की परिध् िमें बोला और लिखा जाना। इसी अभीष्ट के लिए शौका लोग जब अपनी बोली में लिखते थे तो कुमाउनी शब्द और वाक्य रचना का सहारा लेते थे। इसके लिए बाबू राम सिंह के लेखों को पढ़ा जा सकता है। मेरे पिता जी भी मुझे हमेशा इसी तरह की शौका भाषा में पत्रा लिखा करते थे। अपनी बोली के प्रचलन और अपनी भाषा में स्वतंत्रा व उच्च कोटि के लेखन के लिए मूल भाषा का विश्लेषण, ब्याकरण का मानकीकरण, मुहावरों व लोकोक्तियों का संकलन, शब्दों का सरलीकरण आदि के लिए परिचर्चाओं, गोष्ठियों, शोधें आदि को आगे के लिए छोड़ते हुए मैं अभी केवल इस पर चर्चा करना चाहूँगा कि राजस्थानी भाषा में किस तरह हमारी भाषा से साम्यता है और राजस्थानी भाषा कैसे हमारे अभीष्ट में सहायक हो सकती है। जिन साम्यताओं का मैं उल्लेख करूंगा उनको पढ़ने और उन पर मनन करने के लिए यह बात हमेशा याद रखना होगा कि भाषा के सरल और मधुर (;कर्णप्रिय) होने के लिए संयुक्ताक्षरों के प्रयोग में नियंत्रण के साथ-साथ शब्दों के छोटे स्वरूपों का प्रयोग करना वांछनीय है। जैसे सुरेन्द्र दाज्यू और लक्ष्मण बूबू के स्थान पर सुरिदा व लछ्बू लिखना जितना सरल है उतनी ही मिठास है उसको बोलने और सुनने में। इस भूमिका के बाद अब बढ़ते हैं राजस्थानी और शौका संस्कृति और उनकी भाषा के अनेकानेक शब्दों में समानता ओर, साथ ही विचार करते हैं शौका बोली व भाषा को सरल तथा मध्ुुर बनाने के लिए राजस्थानी भाषा की कुछ विशेषताओं को अपनाने की आवश्यकता पर।
दोनों समाजों में समानताएं-
1-परदा प्रथा
2-महिलाओं द्वारा बिनाई वादन
3-हुक्के का प्रचलन
4-सत्तू का सेवन आदि आदि
दोनों भाषाओं में समान रूप से बोले व लिखे जाने वाले शब्द-
राजस्थानी शौका राजस्थानी शौका टिपण्णी
दीठ दीठ अदीठ —– अपनाए जाने योग्य
अदेर अबेर —– —– विपरीत अर्थ
मनचीती मनचितै,मनचैन अचीता —– अपनाने योग्य
कुछ वैसे ही शब्द-
अचैन, अच्यौत
बखत बखत, बखद ठौर ठोर जगह के अर्थ में
लच्छन लच्छन दरसन दरसन
भरम भरम दरद दरद
धरमी धरमी कौर कौर कौरगास के अर्थ में
बरस बरस जतन जतन
जत्ती जदी उनमान उनिजस उनमान अपनाने योग्य
जस तस जसे तसे किचकिच किचकिच
गार गारा, गौरो. लीपना लीपना
लोग बाग लोग बाग मुरकि मुरकि झुमका
चैमास चैमास ढील ढील देरी के अर्थ में
नौकर-चाकर नौकर-चाकर
राजस्थानी भाषा की शौका बोली-भाषा में अपनाए जाने योग्य विशेषताएं व शब्द-
राजस्थानी भाषा में संयुक्ताक्षरों का प्रयोग बहुत कम है। इस के कारण इसमें मिठास व सरलता है। शौका बोली में संयुक्ताक्षरों का अत्यधिक प्रयोग होता है। इससे यह लिखने में कठिन तथा बोलने में कर्णकटु लगता है। राजस्थानी भाषा की मिठास का एक और कारण है उसे उसी रूप में लिखना जिस रूप में उसे बोला जाता है। जैसे श और ष का कम से कम प्रयोग और उसके स्थान पर स का प्रयोग। हमें भी यही करना होगा क्योंकि हमारी बोली में भी स का ही अधिक प्रयोग होता है। यही नहीं ड़ के स्थान पर जिस तरह हम र बोलते हैं उसी तरह उसे लिखना भी होगा। ऐसा न किया जाना भी शौका बोली-भाषा के चलन से बाहर होने का एक प्रमुख कारण है। यही वह कारण है जिसकी वजह से हमारे पूर्वज अपनी भाषा में लिखने के लिए अल्मोड़े की कुमाउनी जैसी शैली का प्रयोग करते थे।
राजस्थानी से अपनाए जाने योग्य कुछ शब्द-
ऐसे अनेकानेक शब्द है। उनमें से कुछ शब्द शौका बोली में प्रयुक्त होते रहे हैं। आवश्यकता है तो केवल उनको चलन में रक्खे रहना। नीचे कुछ उदाहरण मात्र दिए गये हैं-
राजस्थानी शौका हिंदी
दरसन दरसन दर्शन
बरस बरस वर्ष
भरम भरम भ्रम
परियाप्त कापफी पर्याप्त
नितनेम रोजक नियम नित्य का नियम
दीठ दीठ दृष्टि
उछाह उछाल उत्साह
बरसा बारिस वर्षा
दरसाना देखौन दर्शाना
दिसावर दिसावर देश
चंदरमा जोन चन्द्रमा
बिणज ब्योपार वाणिज्य
सरूप समान स्वरूप
पिरास्चित परास्चित प्राश्चित
मानुस मनख मनुष्य
बिरमांड बरमांड ब्रह्माण्ड
बिरछ रूख वृक्ष
आदि आदि
पुनश्चः- हामर बोलि पेंल औले या हामर संस्कृति पेंल बचुल? मुर्गी पेंल औले या आन। ते बतौ ते बतौ हनेरे भे। ‘‘ते ठग में ठग द्वार कु ढग’’ क्वेले त बौटो लैने भे। सुरिदा, लछ्बु और डाक्टर हरू आछ्याल ‘‘किछ ला’’ (Whats App) मा आबन बोलि में लेखी बेर बौट लैन में लैगि रन। आमा, बाबा, दादा, भूली सबे औस्या। ऊनि दाकारै हिटा। लेकिन मलि में मेंल जू लेखी रछुं वीक खयाल कया। यदि यस कलात तमर लेख व बोलि मो धे मिठु हे जौल। फिर चाया हामर बोलि कस के सबनक मूख व कलम में औंछ. आब ढील क्याक छ ला? -गजे पांगती

जैं श्री कल्या लोहार जी- विशालकाय दैत्तीय सर्प अजगर संहारक

इतिहास-कथा
नरेन्द्र ‘न्यौला पंचाचूली’
दारमा घाटी का ग्राम- नागलिंग दो शब्द नाग और लिंग से मिलकर बना है। जिसका शाब्दिक अर्थ नाग /शिव सर्प एवं लिंग शब्द का शाब्दिक अर्थ भोले बाबा /शिव अंश से है। किवदंति है कि इस नागलिंग ग्राम में विशालकाय दैत्तीय सर्प अजगर रहता था।
यह साँप जिस प्रकार से मनुष्य मानवीय और अमानवीय दोनों प्रवृत्ति के होते हैं। ठीक इसी प्रकार यह विशालकाय अजगर सर्प भी जीव-जन्तु भक्षी/नरभक्षी आतंकित प्रवृत्ति का था, वह अजगर जीव-जन्तु के साथ नर भक्षण भी करता था। भूख की स्थिति में वह रास्ते में दिखाई देने वाले मनुष्य को निगल लेता। इस हाहाकार स्थिति से मुक्ति पाने का किसी के पास कोई ठोस उपाय नहीं था। उसी दौरान दारमा लुंग्बा नागलिंग गाँव में अंफरों /लोहार श्री कल्या लोहार जी भी रहते थे, जिनको रं लुंग्बा का ‘प्रथम रं विश्वकर्मा’ लोहार माना जाता है। उन्होंने अपनी बुद्धि, बहादुरी एवं पेशे की कुशलता के बलबूते पर दैत्याकार सर्प को मारने की रणनीति बनायी। जब दुश्मन शक्तिशाली ताकतबर बलवान होता है, उसे ‘शक्ति बल’ से नहीं ‘बुद्धि बल’ से हराया जा सकता है। इस सिद्धान्त की नीति को अपनाते हुए उन्होंने सर्वप्रथम दैत्य अजगर से मित्रता की, उसका गुणगान कर सच्चे मित्र के रूप में विश्वास जीता (यह युग पशु-पक्षी, सजीवों का आपस में बोलने व भावनाओं को समझने का युग था) और प्रार्थना की- आप विशाल काय हो, आपको उचे नीचे पथरीले राह में पेट भरने के लिए इतना कष्ट करना, मुझसे देखा नहीं जाता इसलिए आपसे विनम्र प्रार्थना करता हूँ कि आप आराम से यथा स्थान अपने क्षेत्र के आसपास में ही रहना, आज से आपके भोजन की व्यवस्था आपका सच्चा दोस्त मै। करुँगा। सभी ग्राम मिलकर बारी-बारी से जो भी उपलब्ध् खाद्य पदार्थ जैसे भेड़ बकरी और अन्य खाद्य पदार्थ दारमा लुंग्बा में होगा, यथाशीघ्र आपको उपलब्ध् कराता रहूँगा, बस आपसे एक छोटी सी विनती यह है कि आप भोजन ग्रहण करते समय अपनी आँखें बन्द रखना क्योंकि आपकी आँखें खुली रहने से भोजन उपलब्ध् कराने वाला दारमा लुंग्बा जन भयभीत रहते हैं। इस तरह विशालकाय अजगर सर्प को बिना मेहनत करे बैठे-बैठे भोजन मिलने लगा। इसी दौरान कल्या लोहार जी ने भी अपनी स्थायी आजीविका के लिए अपना अफरो को नागलिंग ग्राम से लगभग एक किमी दूर आगे ‘ताबुला’ नामक स्थान पर स्थापित किया और भविष्य की योजना को अंजाम देने हेतु दारमा जनों से मिलकर तैयारी शुरु कर दी। अपने अफरो/आफरों के आसपास नदी-नालों से अधिकतर गोलनुमा अण्डाकार और कुछ नुकिलानुमा पत्थरों को एकत्रित किया और करवाया। साथ ही एक शुभ अवसर त्यौहार का दिन चुना जहाँ निकट ग्रामों के प्रत्येक घर से विशेष पकवान बनवाये गये। इन पकवानों के साथ योजनानुसार बारुद रूपी उन पत्थरों को आफरों में अधिकतर गर्म यानी लाल सुर्ख करना शुरु किया, दैत्य अजगर से विनती की कि हमारे जंगली जीव-जन्तु, हम सबके रक्षक, महाराज आज हम सभी दारमा ग्रामजनों ने विशेष पर्व ;त्यार में विशेष पकवान बच्छी/पूरी, चुन्या/पकोड़ी, हलवा, चावल/छकु, स्या/ मीट, पलती गुढ़े, फाफर गन्दु, मर्ती-च्यक्ती तैयार कर रखा है। कृपया आप इन्हें ग्रहण करें।
सर्वप्रथम मर्ती-च्यक्ती (स्थानीय शुद्ध एल्कोहल) पिलाकर विशालकाय अजगर को मदहोश किया गया और मीट खिलाया गया। फिर ग्रामजनों द्वारा तैयार पकवानों साथ-साथ गोल गरम-गरम लाल सुर्ख पत्थरों को तब तक खिलाया गया, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो गया। दैत्य अजगर भर्ती-च्यक्ती (स्थानीय शुद्ध एल्कोहल ) के नशे में मदहोश होने के कारण उसे पता नहीं चला कि मैं कितना खा चुका हूँ। परिणामस्वरूप इन गरम-गरम लाल सुर्ख पत्थरों को तब तक खिलाया गया जब तक लक्ष्या की प्राप्ति न हो गया। दैत्य अजगर मर्ती-च्यक्ती (स्थानीय शुद्ध एल्कोहल) के नशे में मदहोश होने के कारण उसे पता नहीं चला कि वह कितना खाना खा चुका है। परिणाम यह हुआ कि गरम-गरम लाल सुर्ख पत्थरों ने अजगर के पेट में बारुद का सा काम किया और विस्फोट के साथ फट पड़ा। इस भयंकर विस्फोट में अजगर के शरीर से चीथड़े उड़ गये, जिससे इस दैत्यकार आतंकित सर्प का अन्त हुआ।
नागलिंग और चल गाँव के आर-पार अजगर की अंतड़ियां विशाल चट्टानों पर चिपकी पड़ी हैं। इस निशानी सफेद भूरे कालेनुमा आँतों की लकीरें दूर से आज भी स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं। जय श्री कल्या लोहार जी के अफरों रूपी पत्थर के निशान आज भी उस स्थान पर विद्यमान हैं, जिनमें गोल बारुद रूपी पत्थरों को गर्म किया गया था। कल्या लौहार कोई साधरण व्यक्ति नहीं बल्कि अवतारी पुरुष थे। रं लुंग्बा में जय श्री कल्या लोहार जी, ‘प्रथम रं विश्वकर्मा’ के रूप में अवतार लेकर देवभूमि को इस दैत्याकार विशाल अजगर से बचाने को अवरित हुए थे।
एक कथा के अनुसार जब शिव भगवान अपनी स्थानीय तपस्थली की खोज में घूमते-घूमते दारमा घाटी के इस ग्राम में पहुँचे तो उन्होंने देखा कि इस घाटी के क्षेत्रवासी नरभक्षी/जीवभक्षी विशालकाय साँप अजगर के आतंक से आतंकित हैं। तब भोले बाबा के नाग ने यहाँ क्षेत्रवासियों को इस आतंक से मुक्ति दिलाने के लिये ‘जय श्री कल्या लोहार जी’ का रूप धरण कर इस आतंक रूपी अजगर का अन्त किया। तभी से दारमा के इस ग्राम का नाम शिवअंश के नाम से नागलिंग पड़ा।
विशेषता- ग्राम नांगलिंग, रं लुंम्बा, दारमा का ऐसा गाँव है, जहाँ दिन में सात बार धूप निकलती और छुपती है। इसका कारण सात चोटियों से होकर उसे गुजरना होता है।

असाधारण महिला थी डाॅ. इन्दिरा हृदयेश

यादें…..
स्व. आनन्द बल्लभ उप्रेती की पुयण्तिथि पर उनके उपन्यास रजनीगंगा का विमोचन करती हुई । फोटो में दायं से सम्पादक स्व. कमला उप्रेती, डाॅ. इन्दिरा , स्व. दुर्गा सिंह रावत, श्री देवेन्द्र सिंह धर्मशक्तू, सत्यवान सिंह जंगपांगी, श्रीराम सिंह धर्मशक्तू ,श्री क्रान्ति जोशी
डाॅ. पंकज उप्रेती-
उत्तराखण्ड की राजनीति में हमेशा धुरी बनकर रहीं नेता प्रतिपक्ष डाॅ.इन्दिरा हृदयेश असाधारण महिला थी। मूल रूप से बेरीनाग क्षेत्र के दशौली की इन्दिरा जी ने हर विपरीत परिस्थिति को अपने अनुकूल बनाते हुए जमाने को बता दिया कि यदि आप आगे बढ़ना चाहते हैं तो कोई रोक नहीं सकता।
ऐसी धांकड़ इन्दिरा जी का 13 जून 2021 को प्रातः 10.30 बजे हृदयघात से निधन हो गया। 80 वर्षीय इन्दिरा ने जीवन-जगत के सच को समझते और देखते हुए जो तय किया वह असाधारण ही कर सकता है। हर विपरीत परिस्थितियों को अपना बनाने वाली इस नेता की बात यूपी के जमाने में भी पक्ष-विपक्ष हमेशा मानता था। शिक्षकों की नेता के रूप में एक शिक्षक का एमएलसी बनना और कांग्रेस सहित सभी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बीच शिष्टता के साथ अपनी बात रखने का इन्दिरा जी का लहजा उन्हें हमेशा श्रेष्ठता की श्रेणी में रखता है। वह जानती थी कि शासन किस प्रकार से चलता है और प्रशासन से कैसे कार्य करवाया जाए। हल्द्वानी के विकास में उनकी अमिट छाप हमेशा रहेगी। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्गज नेता स्व. एन.डी.तिवारी के निकट रही इन्दिरा जी उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद भी सत्ता पक्ष और विपक्ष में शीर्ष आसन पर रहीं।
पिघलता हिमालय परिवार से डाॅ. इन्दिरा हृदयेश का निकट का सम्बन्ध् था। विलक्षण प्रतिभा की इन्दिरा जी जब शुरुआत में हल्द्वानी में आई तो वह स्व.आनन्द बल्लभ उप्रेती को जानती थीं। उस दौर के समाज और पत्रकारिता में जितना सच्चापन और मिठास थी, वह लोगों को जोड़ने वाला था। हल्द्वानी भी बाग-बगीचों का शहर था और हर जगह से लोग आकर बसने लगे थे। स्यौहारा बिजनौर के हृदयेश कुमार से इनका विवाह हुआ और वह हल्द्वानी में रहने लगे।
एक महिला जब समाज में आगे बढ़ना चाहती है तो उसे कितनी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है, वह इन्दिरा जी के जीवन से समझा जा सकता है। उनकी इन्हीं खूबियों को स्व. आनन्द बल्लभ जी ने जाना और प्रोत्साहित किया। राजनीति की चतुर और विद्वान इन्दिरा भी जानती थीं कि आनन्द बल्लभ को किसी प्रकार का लोभ-लालच नहीं है इसलिये वह तमाम मुद्दों पर खुलकर सम्वाद कर लेती। सूचना, लोकनिर्माण विभाग, संसदीय कार्य तथा विज्ञान एवं टैक्नालाॅजी मंत्री वह रहीं। बाद में संसदीय कार्य विधायी वित्त, वाणिज्य कर, स्टाम्प व निबन्धन, मनोरंजन कर, निर्वाचन, जनगणना, भाषा व प्रोटोकाल मंत्रालयों को संभाला। नेता प्रतिपक्ष के रूप में भी वह लोकप्रिय रही हैं। वह जानती थीं कि सूचना मंत्री रहते हुए आनन्द बल्लभ ने कभी भी उनसे विज्ञापन या अन्य मदद के लिये हाथ नहीं फैलाए। यही कारण था कि वह पत्रकारिता विषय को लेकर भी बातचीत करती। बाद के सालों में पत्रकारिता के गिरते जा रहे स्तर पर वह चिन्तित थीं लेकिन राजनीतिक दांवपंेच में प्रेसवार्ता का आयोजन करती रहीं। अपना वाहन भेजकर उप्रेती जी को विशेष तौर से बुलाती थी लेकिन पत्रकारिता की रंगीन दुनिया में उप्रेती जी ने प्रेसवार्ता में जाना छोड़ दिया। वह जानते थे कि इन्दिरा जी बोलेंगी और पत्रकार लिखेंगे, सवाल पूछने का साहस कोई नहीं करेगा। ऐसे में इन्दिरा जी स्वयं ही प्रेस में मिलने आईं और सार्वजनिक रूप से कहती थीं कि ‘उप्रेती जी पत्राकार हैं।’ जमाने की रंगीनियत में रंगना और राजनीति में सबको मनाए रखना एक बात है लेकिन इन्दिरा जी आदमी का मिजाज जानती थीं। वह ‘पिघलता हिमालय’ के हर आयोजन में अतिउत्साह से भागीदारी करती थीं। ऐसी विद्वान, दिग्गज नेता, संरक्षक को पिघलता हिमालय परिवार की श्रद्धांजलि।
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;हल्द्वानी स्मृतियों के झरोखे से लेखक आनन्द उप्रेती की पुस्तक के
पृष्ठ संख्या 67 से 71 तक में पढ़ें- इन्दिरा जी के जीवन के अनछुए पहलू

भोट, भौट्ट और भोटिया

इतिहास
डाॅ. मदन चन्द्र भट्ट
तिब्बत के लिए पुराणों में त्रिविष्टप, उत्तर कुरू, हूण देश और भोट नामों प्रयोग होता रहा है। मध्य प्रदेश में खजुराहो के चन्देल राजा यशोवर्मा ;925-950 ई. की प्रशस्ति मिली है। उसमें कहा गया है कि बैकुण्ड ;शेषशायी नारायण की एक मूर्ति भोट के राजा ने अपने मित्र कीर ;कांगडा के राजा को भेंट की ‘कैलासाद् भोटनाथः सुहृद इति कीरराजः प्रपेदे’ इसका अर्थ है दसवीं सदी में तिब्बत को ‘भोट’ कहते थे और भोटिया वहाँ के राजा थे। कश्मीर से प्राप्त कल्हण की पुस्तक राजतरंगिणी में भोट के निवासियों को ‘भौट्ट’ कहा गया है। इसी भौट्ट शब्द से भोटिया शब्द बाल्हीक प्राकृत में बना जिसका अर्थ है- भोट का रहने वाला। इसी तरह का शब्द ‘खषिया’ भी है जिसका अर्थ है- खष देश का रहने वाला। अलमोड़िया, कुम्मैयाॅ, गढ़वाली, शोर्याल आदि भी इसी तरह के नाम हैं। कई जातियों के नाम भी स्थान बोधक हैं जैसे नौटी का रहने वाला नौटियाल, पोखरी का रहने वाला पोखरियाल आदि।
स्कन्दपुराण के मानसखण्ड में जहाँ कुमाउ के पर्वत, नदी, मन्दिर और जातियों का विस्तार से वर्णन है, वहीं शौक, भोटिया और रं जातियों का कोई उल्लेख नहीं है। इसमें काली नदी को ‘श्यामा’ कहा गया है और उसके उद्गम स्थल पर महाभारत के लेखक व्यास रिषि का चर्चित आश्रम बताया गया है। दारमा के ‘दर’ स्थान पर धर्माश्रम, मुनस्यारी में परशुराम आश्रम और छिपुलाकोट में कश्यप रिषि का आश्रम था। भोटिया आक्रमण में ये सब नष्ट हो गये। आज मुन्स्यारी में कोई भी नहीं जानता कि वहाँ पर रामायण में चर्चित परशुराम मुनि का आश्रम था। ‘स्यारी’ शब्द संस्कृत भाषा में उर्वर खेत के लिए प्रयुक्त है। मुन्स्यारी का अर्थ मुनि का खेत। ये मुनि परशुराम थे। मानसखण्ड के रामेश्वर महात्म्य के अनुसार परशुराम ने रामेश्वर से कैलास तक पैदल मार्ग बनवाया था। इसी कारण पूर्वी रामगंगा का असली नाम ‘परशुराम गंगा’ पड़ा जो बाद में रामगगा हो गया। उस समय आधुनिक नन्दादेवी पर्वत को ‘मेरू’ पर्वत और शिवालिक को ‘मन्दर’ पर्वत कहते थे। तिब्बत में पूर्व की ओर यक्ष और पश्चिम की ओर गन्धर्व रहते थे जो सार्थवाह परम्परा के व्यापारी थे।
जहाँ दसवीं सदी में खजुराहों लेख कैलास में भोटिया राजा का अधिकार बताता है, वहीं मानसखण्ड कैलास में ‘विद्याधर’ जाति का अधिकार बताता है। मानसखण्ड का प्रारम्भ ही निम्न पद से हुआ है-
ये देवा सन्ति मरौ वरकनकमये मन्दरे ये च यक्षाः पाताले ये भुजंगाः फणिमणिकिरणाध्वस्त सर्पान्धिकाराः।
कैलासे स्त्रीविलासः प्रमुदितहृदयाः ये च विद्याधराद्यास्ते मोक्षद्वारभूतं मुनिश्वरवचनं श्रोतुमायान्तु सर्वे।।
अर्थ- जो देवता श्रेष्ठ एवं स्वर्णिम मेरू में रहते हैं, जो यक्ष मन्दर पर्वत में रहते हैं, अपने फण की मणियों से जो अन्धकार का नाश करने वाले पाताल निवासी नाग हैं तथा कैलास में आनी स्त्रियों के साथ विलास करने वाले विद्याधर रहते हैं, वे सब मोक्ष प्राप्ति के साधन इस मानसखण्ड की कथा को सुनने के लिए आमंत्रित हैं।
मानसखण्ड द्वितीय शदी ई.पू. में शुुंग राजाओं के शासनकाल में लिखा गया। उस समय तिब्बत को भोट नहीं कहते थे। राजतरंगिणी के अनुसार हूण राजा मिहिस्कुल की सेना में भौट्ट सैनिक थे। इसका अर्थ है 165 ई.पू. की मध्य एशिया की भगदड़ से पहले भौट्ट शक और हूणों के साथ चीन की सीमा पर रहते थे।
सातवीं सदी के चीनी यात्री ह्वेन्सांग ने अपनी पुस्तक ‘सी-यू-की’ में ब्रह्मपुर राज्य के उत्तर में स्त्रीराज्य का उल्लेख किया है। अलमोड़ा संग्रहालय में सुरक्षित पर्वताकर राज्य के दो ताम्रपत्रों से पता चलता है कि सातवीं सदी में ब्रह्मपुर अलमोड़ा का नाम था। उसके उत्तर में स्थित हिमाच्छादित पर्वतों में ह्वेन्सांग सुवर्णागोत्र के स्त्रीराज्य का उल्लेख करता है। बाणभट्ट से पता चलता है कि यह स्त्रीराज्य किरातों की औरतों ने बनाया था। इसकी राजधानी सुवर्णापुर आधुनिक ‘छिपुलाकोट’ में थी। स्त्रीराज्य का उल्लेख ह्वेन्सांग के अलावा जैमिनीय आश्वमेधिक, हर्षरचित, बृहत्संहिता और पुराणों में भी पाया जाता है। इससे स्पष्ट है कि शौका और भोटिया सातवीं सदी तक तिब्बत में थे, उसी के बाद उन्होंने स्त्रीराज्य का अन्त कर दारमा और जोहार पर कब्जा किया। शुनपति शौक इस राज्य का अन्तिम राजा था जिसे कत्यूरी राजा धमदेव ;1400-1420 ई. ने परास्त कर कैलास मानसरोवर को कत्यूरी साम्राज्य में मिला दिया। शुनपति शौक की लड़की राजुला ‘कन्योपायन’ के रूप में कत्यूरियों की ग्रीष्मकालीन राजधानी बैराट आयी थी। धामदेव का बेटा मालूशाही और उसके सौन्दर्यी पर मुग्ध् हो गया और उससे विवाह की जिद करने लगा। कत्यूरी साम्राज्य एक गणराज्य था जिसमें बारह रजबार और दो आलें थीं। सबने इस विवाह का विरोध् किया। मालूशाही ने राजुला के कारण कत्यूर की गद्दी छोड़ दी और बैराट में रहने लगा। उसके बेटे मल्योहीत और पौत्र हरूहीत को भी कत्यूर की गद्दी नहीं मिली।