पंचाचूली— श्री न्यौला पंचाचूली देव

नरेन्द्र सिंह दताल
वैसे तो हमारे देवभूमि में कई अद्भुत, आकर्षक, चमत्कारिक और रमणीय पर्यटक स्थल विद्यमान हैं लेकिन सुदूरवर्ती अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर धारचूला की दारमा घाटी के ग्राम दाँतू और ग्राम दुग्तू सौन के भूभाग में ऐसी पंच हिम पर्वत श्रृंखला है, जिसे न्यौला नदी का मुकुट कहते हैं। इसे न्यौल पंचाचूली के नाम से सम्बोधित करते हैं। ‘जै ह्या गबला देव’ की तपोस्थली न्यौला पंचाचूली हिम पर्वत शिखर उतनी ही प्राचीन है, जितनी प्राचीन हमारी संस्कृति-सभ्यता-समाज का उद्गम इस सृष्टि में हुआ। यह हिम शिखर ऐसा प्रतीत होता है मानो किसी चित्रकार ने कैनवास पर एक खूबसूरत पेन्टिंग बना दी हो।
वायु पुराण, मानस खण्ड में कुमाउ की सरयू व कौशिकी /कोसी नदी के साथ त्रिशूल ग्लेशियर ;हिमशिखर व न्यौला पंचाचूली पवित्र हिम शिखर का वर्णन किया गया है। ;महाभारत के पाण्डव वन विचरण प्रसंग में न्यौला पंचाचूली स्थल का भी वर्णन अध्याय 110 में है।-कुमाउ का इतिहास लेखक बद्रीदत्त पाण्डे।
प्रागैतिहासिक काल में ही पंच हिम शिखर को लिखित रूप से पंचाचूली नाम से जाना जाता है। पर इस पंचाचूली हिम शिखर को रं लुंग्बा के जन ;स्थानीय लोग न्यौला पंचाचूली नाम से सम्बोधित उस प्राचीनतम काल से ही करते रहे हैं जब से हमारी संस्कृति-सभ्यता-समाज ने इस रं लुंग्बा भू-भाग में शरण ली। स्थानीय जन न्यौला पंचाचूली हिम पर्वत श्रृंखला को ‘जैं न्यौला सैं’ ;जै श्री न्यौला भगवान के रूप में पूजते हैं। इस हिम श्रृंखला की तलहटी से बहुत बड़ा ‘दंग्तो न्योल्पा बुग्याल’ परिक्षेत्र है, जहाँ ग्राम जन खेत जुताई के बाद सभी जानवरों को तीन-चार माह के लिए स्वतंत्र छोड़ देते हैं। ये जानवर बुग्याली चारों में ही मस्त रहते हैं।
पंच हिमग्लेशियर के हिमकुण्ड से न्यौला नदी ;न्यौला यंग्ती का उद्गम होता है। यह नदी दुग्तू-सौन और दाँतू ग्राम को अलग करती हुई, तेजी से आगे बहती है। श्यामल रंगनुमा न्यौला नदी छलछलाती, कलकल-खलखल गर्जना करती करती हुई दो किलोमीटर आगे आदि कैलास पर्वत से आने वाली दूसरी धैली गंगा से मिलन करती है। उनके मिलन में ऐसी आतुरता दिखाई देती है मानो दो बहनें/सखियों का मिलन सदियों के बाद हो रहा है। जो बाद में भारत-नेपाल देश को अलग करने वाली काली नदी से तवाघाट में मिलन करती है। आगे निकलते हुए मिलम ग्लेशियर जोहार घाटी से निकलने वाली गोरी गंगा से जौलजीवी नामक स्थान में संगम करते हुए और आगे निकलती है। यह नदी पंचेश्वर नामक स्थान से आगे निकलते हुए, मैदानी क्षेत्र टनकपुर में अन्य सहायक नदियों से मिलकर शारदा नदी नाम से जानी जाती है। इसी शारदा नदी से जिला पीलीभीत ;उ.प्र. में एशिया का सबसे बड़ा क्षेत्रफल में फैला कच्चा बांध् बनाया गया है। ;यह बांध् केवल मिट्टी से ही बनाया गया है जो जनमानस, जीव-जन्तु, खेत-खलिहानों को अमृत स्वरूप/समान जल प्रदान करती है।
न्यौला पंचाचूली हिम ग्लेशियर उत्तराखण्ड के सुन्दरतम पर्वतमालाओं में सुन्दर व महत्वपूर्ण ट्रेकिंग डेस्टिनेशन है, जो हमें पौराणिक गाथाओं से परिचित कराता है।
इस न्यौला पंचाचूली हिम पर्वत माला पर प्रकाश तरंगें और ध्वनि तरंगों का अद्भुत समागम होता है। जिसे हम सूर्योदय और सूर्यास्त के समय साक्षात महसूस कर सकते हैं, जिसके प्रकाश प्रतिबिम्ब से मन/हृदय-दिमाग निर्मल हो जाता है। न्यौला पंचाचूली से निकलने वाली तेज हवा कुछ ऐसा एहसास कराती है कि मानो प्रकृति प्रेमियों का आह्वान कर रही है। प्रकृति प्रेमी जब पहली बार इस न्यौला पंचाचूली प्रकृति के अद्भुत अकल्पनीय हिम दृश्यों का दर्शन करते हैं तो उन्हें ऐसा लगता है मानो रं लुग्बा के रक्षक देव, देवों के देश, जै श्री ह्या गबला देव का तेजस्वी तेज का साक्षात दर्शन कर रहे हैं।
पौराणिक कथा- इस पंचा न्यौला हिम पर्वत श्रृंखला को न्यौला पंचाचूली क्यों कहा जाता है?
ऐसी मान्यता है कि महाभारत युद्ध के उपरान्त जब पाँच पाण्डव व द्रोपदी स्वार्गारोहण के लिये हिमालय में विचरण कर रहे थे तब इस हिमशिखर की आलौकिक सुन्दरता को देखकर यहाँ विश्राम करने की सोची और उन्होंने विश्राम करने की अनुमति लेकर यहाँ के भूस्वामी का स्मरण किया, तब पाण्डवों को भूस्वामी के रूप में जै श्री ह्या गबला देव जी ने दर्शन दिए। ;जै श्री ह्या गबला कदेव को रं जन कैलासपति का अवतार मानते हैं। पाण्डवों ने यहाँ विश्राम की अनुमति मांगी और यहीं पर पाँच पाण्डवों ने अन्तिम बार अनाज खाद्य भोज्य पदार्थो। को पकाने के लिए चूल्हा /आग चूल्हा लगाया था, इसी कारण तब से इस पंचा न्यौला हिम शिखकर को न्यौला पंचाचूली कहा जाता है। इसके बाद आगे पांचों पाण्डवों ने केवल कन्दमूल जड़ी और अन्य जड़ियों का ही प्रयोग कर आदि हिम ओम पर्वत, आदि कैलाश पर्वत, कैलास मानसरोवर होते हुए अन्त में युधिष्ठिर ने ही स्वर्ग का मार्ग तय किया। रं लुंग्बा जनों की यह मान्यता है कि पाँचों पर्वत शिखर- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव पाँचों पाण्डवों का प्रतीक है। इसी पंच हिम ग्लेशियर के पंच /पाँच सुन्दर हिम जल की सहस्त्रधारा की भी आवाज सुनाई देती है। रं लुंग्बा के लोकगीतों में इस हिमशिखर को ‘दारमा चु न्यौंला पंचाचूली’ के शब्द नाम से सुना जा सकता है और कुमाउ के दानपुर कत्यूरी क्षेत्र में प्रचलित लोक गीत ‘न्यौला-न्यौला न्यौला, मेरी शोभनी-मेरी शोभनी दिन के दिन जोबन जाण लागो’ इस गीत का सम्बन्ध् दारमा न्यौला हिम पर्वत से अवश्य रहा होगा। न्यौला पंचाचूली हिमशिखर की उचाई समुद्र तल से 6312 मीटर ;22651 फीट से 6904 मीटर तक है।
न्यौला पंचाचूली- दाँये से बांये चोटी एक- 6355 मीटर, चोटी दो- 6904 मीटर, चोटी तीन- 6312 मीटर, चोटी चार- 6334 मीटर, चोटी पाँच- 6434 मीटर है। न्यौला पंचाचूली के पूर्व में सोना हिमनद ग्लेशियर और मैओला हिमनद ग्लेशियर स्थित है तथा पश्चिम उत्तर में बाल्टी हिमनद ग्लेशियर एवं उसका पठार स्थित है। न्यौला पंचाचूली के पिछले भाग से रालम घाटी से प्रथम बार 1972 में पर्वतारोहण किया। यह सफल अन्वेषण हमारे हिमबीर आईटीबीपी के जवानों ने पूरा किया, जिसका नेतृत्व हुकुम सिंह जी द्वारा किया गया, पर न्यौला पंचाचूली के आगे के भाग दारमा घाटी, ग्राम दाँतू से कोई भी पर्वतारोही शिखर तक पर्वतारोहण नहीं कर सका।
मुख्य विशेषताएं-
सुन्दर फुलवारी बुग्याल- न्यौल पंचाचूली हिम शिखर की गोद में दूर से दूर तक फैली हरियाली बुग्यालों के हरे-भरे घास के मैदान, तरह-तरह के सभी सातों रंगों में खिले रंग-बिरंगे पफूलों की प्राकृतिक फुलवारी, जैसे मुख्यतः क्वालचें ;ब्रह्म कमल, छिबीचैं ;गन्द्रायण के फूल, फसीचें ;कस्तुरी फूल, स्येप्लु फूल, क्ओतिलो फूल आदि और अन्य फूल मानो फूलों की नैसर्गिक झांकियाँ सी देखने को मिलती हैं।
प्रतिरोधक जड़ीबूटी- न्यौला पंचाचूली के 1 से 2 किलोमीटर में देवपुष्प ;क्वालचें ‘ब्रह्मकमल’, प्रतिरोधकता युक्त संजीवनी जड़ीबूटी जैसे अर्च ;जंगली हल्दी, दुम ;पहाड़ी लहसुन, क्वचो ;स्यक्वा, छीबी ;गन्द्रायणी, अतीस, हत्ताजड़ी, कीड़ाजड़ी, अखाचे, सर्पगन्ध कटकी, गोकुल मासी, गंजरी ;मीठा अतीस पाये जाते हैं। अन्य जड़ी-बूटियों के साथ प्राकृतिक शाक-सब्जियाँ जैसे पनेवल, मेवल, हेटोवल/फोटोयल, थावें ;पहाड़ी जीरा और अन्य बहुत सारी जीवन रक्षक/जीवनदायनी जड़ीबूटियाँ भी पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं।
भोजवृक्ष ;स्यासिंग- इन वृक्षों के सुन्दर बागवान न्यौंला पंचचूली के समीप पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। आदि काल में रिषि मुनि इन्हीं भोजवृक्ष के छाल-भोजपत्र का प्रयोग ग्रन्थों के लेखन कार्य में किया करते थे।
पशु-पक्षी- देव मृग ;कस्तूरी मृग, हिम तेदुंआ, हिम भालू, जंगली हिरणों का झुण्ड, फो, वर और अन्य जानवरों का समूह गुगती प्या, छोटा पतली प्या ;पक्षी, मोनाल पक्षी पाये जाते हैं।
पशु चारागाह ;पौष्टिकता से भरपूर- न्यौंला पंचाचूली परिक्षेत्र के चारों ओर पौष्टिकता से भरपूर मात्रा में हरे भरे बुग्याल चारागाह हैं। इतनी भरपूर मात्रा में पौष्टिकता-स्वादिष्टता यहाँ की हरी भरी घास में है। यदि हम पशुओं को इन बुग्याल चारावाह परिसीमन में छोड़ देते हैं तो ये पशु बुग्याल की स्वादिष्ट व पौष्टिकता छोड़ नहीं पाते हैं और ये पशु अपने घर वापस आना पसन्द नहीं करते हैं। जानवर वहीं चरते-चरते खुले आसमान के नीचे ही दिन-रात रहना पसन्द करते हैं। इन बुग्यालों की पौष्टिकता के कारण यहाँ दूर हिमांचल प्रदेश से भी गद्दी भेड़ बकरियांे और घोड़ों को लेकर, यहाँ पहुँचते हैं।
पूरे उत्तर भारत में सबसे अधिक कस्तूरी मृह, हिम तेंदुआ, हिम भालू, जंगली बकरी इसी न्यौला पंचाचूली हिम ग्लेशियर परिक्षेत्रों में बहुतायत से मिलते हैं।
महा दानवीरांगना, समाजसेविका लला जसुली देवी दताल, ‘ धरोहित स्युलो सिंड. और प्राचीन नमचिंम बावे’- लला जसुली देवी दताल, प्रांगण के पास में लला जसुली देवी काल से भी पूर्व समय की लगभग 250 साल पुरानी धरोहित उच्च हिमायललय आडूनुमा फलदायी वृक्ष ;धरोहित स्यूलो सिंड है। साथ ही इस धरोहरवृक्ष के सीध्े ठीक नीचे मैदानी खेत के मध्य ग्राम दाँतू का प्राचीनतम नमचिंम बावे ;प्राचीन नमचिंम स्थित मीठा जलस्रोत है जो शुरुआती दताल ग्रामजनों का सर्वप्रथम प्याउ केन्द्र हुआ करता था।

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