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इतिहास डाॅ. मदन चन्द्र भट्ट तिब्बत के लिए पुराणों में त्रिविष्टप, उत्तर कुरू, हूण देश और भोट नामों प्रयोग होता रहा है। मध्य प्रदेश में खजुराहो के चन्देल राजा यशोवर्मा ;925-950 ई. की प्रशस्ति मिली है। उसमें कहा गया है कि बैकुण्ड ;शेषशायी नारायण की एक मूर्ति भोट के राजा ने अपने मित्र कीर ;कांगडा के राजा को भेंट की ‘कैलासाद् भोटनाथः सुहृद इति कीरराजः प्रपेदे’ इसका अर्थ है दसवीं सदी में तिब्बत को ‘भोट’ कहते थे और भोटिया वहाँ के राजा थे। कश्मीर से प्राप्त कल्हण की पुस्तक राजतरंगिणी में भोट के निवासियों को ‘भौट्ट’ कहा गया है। इसी भौट्ट शब्द से भोटिया शब्द बाल्हीक प्राकृत में बना जिसका अर्थ है- भोट का रहने वाला। इसी तरह का शब्द ‘खषिया’ भी है जिसका अर्थ है- खष देश का रहने वाला। अलमोड़िया, कुम्मैयाॅ, गढ़वाली, शोर्याल आदि भी इसी तरह के नाम हैं। कई जातियों के नाम भी स्थान बोधक हैं जैसे नौटी का रहने वाला नौटियाल, पोखरी का रहने वाला पोखरियाल आदि। स्कन्दपुराण के मानसखण्ड में जहाँ कुमाउ के पर्वत, नदी, मन्दिर और जातियों का विस्तार से वर्णन है, वहीं शौक, भोटिया और रं जातियों का कोई उल्लेख नहीं है। इसमें काली नदी को ‘श्यामा’ कहा गया है और उसके उद्गम स्थल पर महाभारत के लेखक व्यास रिषि का चर्चित आश्रम बताया गया है। दारमा के ‘दर’ स्थान पर धर्माश्रम, मुनस्यारी में परशुराम आश्रम और छिपुलाकोट में कश्यप रिषि का आश्रम था। भोटिया आक्रमण में ये सब नष्ट हो गये। आज मुन्स्यारी में कोई भी नहीं जानता कि वहाँ पर रामायण में चर्चित परशुराम मुनि का आश्रम था। ‘स्यारी’ शब्द संस्कृत भाषा में उर्वर खेत के लिए प्रयुक्त है। मुन्स्यारी का अर्थ मुनि का खेत। ये मुनि परशुराम थे। मानसखण्ड के रामेश्वर महात्म्य के अनुसार परशुराम ने रामेश्वर से कैलास तक पैदल मार्ग बनवाया था। इसी कारण पूर्वी रामगंगा का असली नाम ‘परशुराम गंगा’ पड़ा जो बाद में रामगगा हो गया। उस समय आधुनिक नन्दादेवी पर्वत को ‘मेरू’ पर्वत और शिवालिक को ‘मन्दर’ पर्वत कहते थे। तिब्बत में पूर्व की ओर यक्ष और पश्चिम की ओर गन्धर्व रहते थे जो सार्थवाह परम्परा के व्यापारी थे। जहाँ दसवीं सदी में खजुराहों लेख कैलास में भोटिया राजा का अधिकार बताता है, वहीं मानसखण्ड कैलास में ‘विद्याधर’ जाति का अधिकार बताता है। मानसखण्ड का प्रारम्भ ही निम्न पद से हुआ है- ये देवा सन्ति मरौ वरकनकमये मन्दरे ये च यक्षाः पाताले ये भुजंगाः फणिमणिकिरणाध्वस्त सर्पान्धिकाराः। कैलासे स्त्रीविलासः प्रमुदितहृदयाः ये च विद्याधराद्यास्ते मोक्षद्वारभूतं मुनिश्वरवचनं श्रोतुमायान्तु सर्वे।। अर्थ- जो देवता श्रेष्ठ एवं स्वर्णिम मेरू में रहते हैं, जो यक्ष मन्दर पर्वत में रहते हैं, अपने फण की मणियों से जो अन्धकार का नाश करने वाले पाताल निवासी नाग हैं तथा कैलास में आनी स्त्रियों के साथ विलास करने वाले विद्याधर रहते हैं, वे सब मोक्ष प्राप्ति के साधन इस मानसखण्ड की कथा को सुनने के लिए आमंत्रित हैं। मानसखण्ड द्वितीय शदी ई.पू. में शुुंग राजाओं के शासनकाल में लिखा गया। उस समय तिब्बत को भोट नहीं कहते थे। राजतरंगिणी के अनुसार हूण राजा मिहिस्कुल की सेना में भौट्ट सैनिक थे। इसका अर्थ है 165 ई.पू. की मध्य एशिया की भगदड़ से पहले भौट्ट शक और हूणों के साथ चीन की सीमा पर रहते थे। सातवीं सदी के चीनी यात्री ह्वेन्सांग ने अपनी पुस्तक ‘सी-यू-की’ में ब्रह्मपुर राज्य के उत्तर में स्त्रीराज्य का उल्लेख किया है। अलमोड़ा संग्रहालय में सुरक्षित पर्वताकर राज्य के दो ताम्रपत्रों से पता चलता है कि सातवीं सदी में ब्रह्मपुर अलमोड़ा का नाम था। उसके उत्तर में स्थित हिमाच्छादित पर्वतों में ह्वेन्सांग सुवर्णागोत्र के स्त्रीराज्य का उल्लेख करता है। बाणभट्ट से पता चलता है कि यह स्त्रीराज्य किरातों की औरतों ने बनाया था। इसकी राजधानी सुवर्णापुर आधुनिक ‘छिपुलाकोट’ में थी। स्त्रीराज्य का उल्लेख ह्वेन्सांग के अलावा जैमिनीय आश्वमेधिक, हर्षरचित, बृहत्संहिता और पुराणों में भी पाया जाता है। इससे स्पष्ट है कि शौका और भोटिया सातवीं सदी तक तिब्बत में थे, उसी के बाद उन्होंने स्त्रीराज्य का अन्त कर दारमा और जोहार पर कब्जा किया। शुनपति शौक इस राज्य का अन्तिम राजा था जिसे कत्यूरी राजा धमदेव ;1400-1420 ई. ने परास्त कर कैलास मानसरोवर को कत्यूरी साम्राज्य में मिला दिया। शुनपति शौक की लड़की राजुला ‘कन्योपायन’ के रूप में कत्यूरियों की ग्रीष्मकालीन राजधानी बैराट आयी थी। धामदेव का बेटा मालूशाही और उसके सौन्दर्यी पर मुग्ध् हो गया और उससे विवाह की जिद करने लगा। कत्यूरी साम्राज्य एक गणराज्य था जिसमें बारह रजबार और दो आलें थीं। सबने इस विवाह का विरोध् किया। मालूशाही ने राजुला के कारण कत्यूर की गद्दी छोड़ दी और बैराट में रहने लगा। उसके बेटे मल्योहीत और पौत्र हरूहीत को भी कत्यूर की गद्दी नहीं मिली।