हिमालयी संस्कृति का परिचय- बारापटिया समाज की संस्कृति

पुस्तक समीक्षा
डा.पंकज उप्रेती
हिमालय संस्कृतियों का जनक है और आज भी इसकी आदि संस्कृति उपस्थित है। समय के साथ बहुत कुछ बदला है लेकिन बीज हमेशा अंकुरित होते हैं। हिमालयी संस्कृतियों में जोहार घाटी के जेष्ठरा बारापटिया समाज की संस्कृति भी इस प्रकार की पुरातन संस्कृति है। कभी गोरी नदी के दोनों ओर इस समाज का काफी जमजमाव था। इन्हीं का एक गाँव है- बोथी। बोथी के बोथियालों को जेष्ठरा यानी ज्येष्ठ/सयाना/बड़ा माना जाता है। जैसा कि सभी समाजों में प्रचलित है कि ज्येष्ठ को अधिक अधिकार दिये जाते हैं और उसकी जिम्मेदारी भी ज्यादा होती है। वही स्थिति बारापटिया ज्येष्ठराओं की भी रही है।
अपने समाज को आगे बढ़ाना, उसे सुरक्षित रखना ज्येष्ठ यानी बड़े का धर्म भी है। अपने इसी धर्म के पालन के लिये इस समाज के बुजुर्गों ने जब जोहार घाटी में कदम रखा तो यह जनशून्य स्थान उन्हें अनुकूल लगा। घोर जंगल और जंगली जानवरों के बीच हिमालय के कई रंग उन्होंने निहारे और तय कर लिया कि यहीं अपने घरौंध्े बनायेंगे। बस, फिर क्या था। कृषि योग्य भूमि को तराश कर खेतीबाड़ी की जाने लगी, पशुपालन किया जाने लगा। शान्तिप्रिय और आस्थावान लोग कैलास मानसरोवर के दर्शन को भी जाने लगे। व्यापार के सिलसिले में तिब्बत में भी इनकी यात्राएं होती थीं। इस प्रकार बारपटिया संस्कृति फैलती चली गई। यहीं से शुरू हुआ है ‘बारह पाट का घाघरा’ वाला किस्सा। याने इनके परम्परागत वस्त्राभूषण इतने भारी और रौबदार होते थे कि हर किसी के बस की बात नहीं। इस क्षेत्र के पुरुष बारह पाट का उफनी लमकोट बखुला और सिर में बारह हाथ लम्बी पगड़ी पहनते थे। महिलाएं बारह पाट घाघरा आघरा और सिर में सफेद खौंपी पहनती थी। जोहार-गोरीफाट के विभिन्न बाहर पट्टियों में सदियों से ज्येष्ठरा लोग बसे हुए थे। तेहरवीं-चैदहवीं सदी में इनका बड़ा व्यापारिक काम था। ज्येष्ठराओं में धील्ली गोल्फाल और हरपू बनिया बड़े व्यापारी बताये जाते हैं। किन्तु उच्च हिमालयी परिस्थितियों एवं तिब्बत क्षेत्र में लूटपाट की वहज से ज्येष्ठराओं ने व्यापार की अपेक्षा जमीदारी का कार्य अपना लिया। पुरातन संस्कृति के वाहक इन लोगों द्वारा दुर्गमता का वह स्वाद चखा गया जो इन्हें विपरीत स्थितियों में भी हौंसला देता है। आज भले ही समाज का फैलाव पहाड़ से मैदान तक हो चुका है और गाँव से शहर बनने की होड़ है लेकिन किसी भी समाज की जड़ें उसके मूल में होती हैं। उसका यह मूल उसका गाँव, उसकी संस्कृति है।
दुर्गा सिंह बोथियाल बारपटिया समाज के उन अनुभवी व बुद्धिजीवियोें में से हैं जिन्होंने वर्तमान के हालात और अवसरों को जानते हुए ‘‘बोथी’’ के बहाने अपनी संस्कृति को उजागर किया है। सीमान्त की दुर्गम स्थितियों से तपकर निकले दुर्गा सिंह जी बैंकिंग सेवा में रहे हैं लेकिन उनके लिखने-पढ़ने और समाज के लिये सजगता का भाव हिमालयी संस्कृति के एक हिस्से का परिचय करवा रहा है। ‘बोथी’ के बहाने यह यह एक दस्तावेज होगा। श्री दुर्गा सिंह जी के लेखन में ठैठ ग्रामीण परिवेश के शब्दों का आना स्वाभाविक है, जिससे इसकी संस्कृति और सांस्कृतिक झांकी को समझना आसान हो जाता है। वह अपने बचपन के जिये हुए को इस पुस्तक की भूमिका में धाराप्रवाह लिखते हैं और अपने बुजुर्गों को याद करते हैं। बोथी में बसासत की कहानी इतनी रोमांचक और सच्ची है कि वह पुरातन समाज के सच्चे रिश्तों को उजागर करती है। बोथियाल द्वारा लोहार को किसी सुरक्षित और उन्नत स्थान की खोज के लिये भेजने पर लोहार ठीक उसी प्रकार अपने गुसांई के लिये निकल पड़ता है जैसे भगवान राम जी के आदेश पर हनुमान निकल पड़ते थे। हनुमान की सी सेवा और भक्ति हम बोथी के लोहार की भी देखते हैं।
इस पुस्तक में ‘पारिवारिक वृक्ष’ के रूप में श्री दुर्गा सिंह जी ने बुजुर्गों से लेकर वर्तमान पीढ़ी तक जिस प्रकार उल्लेख कर दिया है वह आने वाली पीढ़ियों के लिये महत्वूपर्ण होगा। साथ ही ‘लोहार’ परिवार की भूमिका को उन्होंने बहुत आदर के साथ बताया है। उनकी भी पीढ़ियों का उल्लेख इसमें है, जो सीमान्त क्षेत्र के उन लोगों के बारे में जानकारी दे रहा है अपने हुनर के अलावा अपनी परम्परा को बनाये रखने में निरन्तर रहे हैं।
श्री बोथियाल जी ने अपने बचपन के खेलों और ग्रामीण परिवेश का वर्णन करने के साथ ही बोथियालों के बारे में बताया है कि या तो वे महर लोगों में से हैं या कुथलिया बोरा। क्योंकि इनके पास इस प्रकार के प्रमाण मिले हैं और उन्होंने स्वयं भी देखा है। यह सब शोधार्थियों के लिये भी शोध् का विषय हो सकते हैं। इतना जरूर है कि महर और कुथलिया बोरा दोनों कुछ दूरी पर आज भी हैं। रा.स्ना.महाविद्यालय पिथौरागढ़ के संगीत विभाग में रहते हुए मैंने स्वयं कुमौड़ सहित महरों की शानदार परम्पराओं को देखा है। इसी प्रकार रा.स्ना.महाविद्यालय बेरीनाग के संगीत विभाग में रहते हुए कुथलिया बोरा संस्कृति को नजदीक से देखा। गंगोलीहाट के बौराणी क्षेत्र में भांग की पौध से चीजें बनाने की वही संस्कृति रही है जिसका उल्लेख श्री बोथियाल जी कर रहे हैं। यह इतना विशद विषय है कि इस पर अध्ययन जरूरी है।
फिलहाल, बोथी को लेकर हिमालय की जिस संस्कृति का यह दस्तावेज है, वह सिर्फ एक गाँव का नहीं बल्कि पूरे समाज का है। इस प्रकार के अध्ययन से उन भूली-विसरी जानकारियांे के बारे में पता चलता है जिसकी बहुत से लोग केवल कल्पना मात्रा करते होंगे। दुर्गा सिंह बोथियाल जी के सद्प्रयासों का लाभ समाज को होगा इन्हीं कामनाओं के साथ।
-डाॅ. पंकज उप्रेती

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