जोहार महोत्सव : समय बदलने की आहट है

डाॅ.पंकज उप्रेती
जोहार सांस्कृतिक बेलफेयर सोसाइटी हल्द्वानी द्वारा इस बार भी दो दिवसीय जोहार महोत्सव का भव्य आयोजन किया गया। महोत्सवों की बाढ़ में इस आयोजन की जो विशेषता दिखाई देती है वह एक घाटी की संस्कृति तो है ही लेकिन प्रतिस्पद्र्धा और द्वन्द के बीच यह साफ हो चुका है कि ‘समय बदलने की आहट है’।
हल्द्वानी की बसासत के साथ किस प्रकार से भोटिया पड़ाव बसा वह लम्बी कहानी है। (पिघलता हिमालय के सम्पादक स्व. आनन्द बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी स्मृतियों के झरोखे से’ विस्तार से दिया गया है।) तब तिकोनिया पर से घोड़े-बकरियों के झुण्ड लम्बी कतार में लग जाया करते थे। डीएफओ हीरासिंह पांगती साहब सहित दो-तीन परिवार सबसे पुराने परिवार यहाँ बसे। दोनहरिया में लक्ष्मण निवास भी मिलने जुलने वालों का केन्द्र बना। पुष्कर सिंह जंगपांगी जी का आवास ‘प्रताप भवन’ बनते समय नहर के पास बहुत संघर्ष की कहानी है। ‘शंकर निवास’ पुरानी यादों का परिवार है। खैर पहाड़ में कुछ परिवारों का जम-जमाव हो गया। पड़ाव के बीचोंबीच पांगती परिवार का ‘मिलम निवास’ भी बुद्धिजीवियों का अखाड़ा बन गया। उस दौर में हल्द्वानी के होल्यार बंजारा होली के रूप में दोनहरिया शिवमन्दिर तक जाया करते थे।
समय के साथ बदलाव स्वाभाविक है परन्तु भोटिया पड़ाव में जाते ही अलग प्रकार की अनुभूति होती थी। हाँ, यहाँ मोहल्ले में आबादी घनी होने लगी थी और जोहार-मुनस्यार से आने वाले व्यापारियों का अड्डा दीवान सिंह जी का ‘सीमान्त ट्रान्सपोर्ट’ हो चुका था। मुख्य बाजार में ओके होटल के पास इस ट्रान्सपोर्ट कम्पनी की धक थी। 1968 में कालाढूंगी रोड स्थित हमारा छापाखाना ‘शक्ति प्रेस’ जन मिलन का बड़ा केन्द्र बन चुका था, जहाँ पहाड़ के हर कौने से आने-जाने वाले मिलते थे। बाद में यहीं पर बाजपुर बस अड्डा बन गया और तराई क्षेत्रा के लोगों का मिलन केन्द्र भी हुआ। 1978 में ‘पिघलता हिमालय’ शुरु होते ही शक्ति प्रेस व्यापारियों के मिलन का केन्द्र भी बना। संस्थापक स्व. दुर्गा सिंह मर्तोलिया ने रिंगाल के कारोबार के लिये यूपी के व्यापारियों से सम्पर्क बनाए थे। ‘रहमत अली शेख फारुखी’ नाम मुझे आज भी याद है। कई व्यापारी रिंगाल के लिये आते और हिन्दू धर्मशाला इत्यादि स्थानों में रुकते थे। व्यापारियों की अपनी इशारों की भाषा थी जिसे वह हाथ मिलाते हुए रुमाल से ढक कर एक-दूसरे के सौदा कर लेते।
हल्द्वानी का पर्वतीय उत्थान मंच का कार्यालय भी पिघलता हिमालय शक्ति प्रेस ही बना। रामलीला मैदान से शुरुआती शोभा यात्रा निकाली गई थी। बाद में हीरानगर में इसे स्थापित किया गया लेकिन जब तक भवन नहीं बन गया, उत्थान मंच की सारी गतिविधियों का केन्द्र शक्ति प्रेस ही रहा। मुझे भली भांति याद है हल्द्वानी में उत्तरायणी जुलूस को मेले का स्वरूप देने के लिये प्रथम बार स्टाल लगाने का विचार आया तो पिता जी ने सबसे पहले मिलम के जड़ी-बूटी विशेषज्ञ उत्तम सिंह सयाना और दुम्मर से उनी कपड़ों के लिये जंगपांगी जी को बुलाया। मात्र दो-चार स्टाल लगे थे। अगले साल भी ऐसा ही हुआ। बाद में यह मेला स्टालों की भरमार का बना। समाज में बढ़ती उच्छंृखलताओं को देख पिता जी ने उत्थान मंच को हमेशा के लिये छोड़ दिया। जिस मंच के लिये वह दिन-रात समर्पित थे, उन्होंने क्यों छोड़ा होगा, यह आज आज समझ में आने लगा है……….
पिता जी लेखन में जुटे रहते। तब उन्हें ‘राजजात के बहाने’ कृति के लिये राहुली सांकृत्यायन पुरस्कार से सम्मान मिला था। लगातार धारदार लेखन वह करते रहे। हीरसिंह राणा, गोपालबाबू गोस्वामी मिलने प्रेस में ही आ जाया करते थे। मेले की भीड़ क्या होती है, इस प्रश्न को पिता जी बहुत रोचक तरीके से हमें समझा देते थे। साथ ही पहाड़ के तमाम कौतिकों का उदाहरण देते, जो स्वयंस्पफूर्त होते हैं। पिछले एक दशक में तो हल्द्वानी सहित आसपास उत्तरायणी महोत्सव नाम के ही ढेर लग चुके हैं। तमाम मंच जगह-जगह सजने लगे हैं। इसके अलावा फैलते जा रहे हल्द्वानी में कई प्रकार के जलसे-जुलूसों का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। कई प्रकार की संस्कृतियों का गुलदस्ता यह भाबर है लेकिन हर कोई चाहेगा कि वह अपनी जड़ों को पल्लवित करे और अपने संस्कार अगली पीढ़ी तक पहँुचाए। ऐसी ही कोशिश जोहार समाज में भी हुई। शुरुआत में अपने स्थानीय तीज-त्यौहारों साथ जो शुरुआत हुई थी वह होली पूजा के रूप में बेहतर शुरुआत बन गई। माघ की खिचड़ी का आयोजन भी ध्यैनियों के सम्मान में मिलने-जुलने का बड़ा आयोजन बनने लगा। जोहार मिलन केन्द्र आपस में मेल-जोल का शानदार केन्द्र स्थापित हो गया, जिसमें हर आयुवर्ग के लोग आते हैं। ऐसे में उर्जावान युवाओं ने विचार किया कि क्यों न आधुनिक समय को देखते हुए किसी ऐसे आयोजन को अंजाम दिया जाए जिसकी सपफलता बड़ा परिणाम दे।
जोहार की बात और व्यवहार को लेकर कई संगठन हैं लेकिन जोहार सांस्कृतिक बेलफेयर सोसाइटी ने इसे कर दिखाया और ‘जोहार महोत्सव’ के रूप में जो वृक्ष रोपा वह आज हरा है। इसके पहले आयोजन में अनुभव कम था लेकिन उत्साह ज्यादा, जिसका परिणाम यह हुआ कि तमाम जगह से जोहारी बन्धु आयोजन में भागीदार बने। पहले अनुभव के बाद सोसाइटी ने अगले वर्ष इसके स्वरूप में बदलाव किये बगैर आयोजन को तरीके से समेट लिया। इसके बाद आयोजन का स्वरूप लगभग तय हो चुका था और समझ आने लगा था कि हल्द्वानी भाबर मेें किस प्रकार से सफलता प्राप्त की जा सकती है। इसके स्टालों में जोर दिया गया और व्यावसायिक गतिविधियां द्रुत हुईं। सांस्कृतिक माहौल बनाने के लिये उन कलाकारों को बुलाया जाने लगा। सांगीतिक दृष्टि से आयोजन का यह हिस्सा बहुत असरकारी होता है, इसका प्रभाव दूरगामी होता है। खैर, आयोजकों ने जोहार की प्रतिभाओं को मौका देने के अलावा बाहर से कलाकार आमंत्रित किये।
‘जोहार-महोत्सव-मेला-संस्कृति’ की समग्र पड़ताल के बाद आयोजकों को बधाई दी जानी चाहिये कि वह इस बड़े आयोजन को अंजाम तक पहुंचा रहे हैं। साथ ही सुझाव भी है कि आयोजन के ‘जोहार’ नाम अनुरूप इसकी हर हरकत उस संस्कृति की ठहस से भरपूर हो। जिस जोहार नगर (भोटिया पड़ाव) के बसने के समय घोर संघर्ष हुए थे तब इसके फैलाव के बारे में विचार भी नहीं आता था। वर्तमान में हल्द्वानी के अलग-अलग स्थानों पर जोहार वासियों की बसासत है। सारे साधन-संसाधन होने के बावजूद अब वह स्थिति है कि अधुना समय में इसकी चमक और ज्यादा हो।
यह सच भी स्वीकार लेना चाहिये कि समय बदलने की आहट इस बार के महोत्सव में दिखाई दी। पुरानी पीढ़ी के बहुत से लोग हमारे बीच नहीं हैं। कुछ समर्पित जन अस्वस्थ्य होने के बावजूद समाज की बेहतरी के लिये जुटे हैं। कई जुझारु जन अपने अनुभवों के साथ इस अभियान को बनाये रखने की कसक लिये हुए दिखाई दिये। देखना होगा समय का चक्र किस दिशा को तय करेगा….

कथाकार शेखर जोशी की रटन अन्त तक रही

श्रद्धासुमन
डाॅ.पंकज उप्रेती
हिन्दी के जाने-माने कथाकार शेखर जोशी का गाजियाबाद के एक अस्पताल में 4 अक्टूबर 2022 को निधन हो गया। स्वास्थ्य कारणों से वह सप्ताह भर इस अस्पताल मेें रहे और सबसे विदा ले ली। लेखन-पढ़न में 90 वर्ष तक ईमानदार कार्य करने वाले जोशी जी सामाजिक मिलनसार थे। उनकी कहानियों का अंग्रेजी, चेक, पोलिश, रूसी और जापानी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उनकी कहानी दाज्यू पर बाल-फिल्म सोसाइटी द्वारा फिल्म का निर्माण किया गया है।
उम्र के उत्तराद्र्ध में आँखों की रोशनी कम होने के बावजूद वह लैंस के सहारे पुस्तकें, चिट्ठी-पत्राी पढ़ते थे। 11 सितम्बर को अपने जीवन के 90 साल पूरे करने वाले शेखर जोशी का जन्म अल्मोड़ा जिले के ओलिया गाँव में 10 सितम्बर 1952 को हुआ था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा अजमेर और देहरादून में हुई थी। इण्टरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान ही सुरक्षा विभाग में जोशी जी का ई.एम.ई. अप्रेन्टिसशिप के लिये चयन हो गया, जहाँ वो सन् 1986 तक सेवा में रहे। तत्पश्चात स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर स्वतंत्र लेखन करने लगे।
दाज्यू, कोशी का घटवार, बदबू, मेंटल जैसी कहानियों में शेखर जोशी को हिन्दी साहित्य के कथाकारों की अग्रणी श्रेणी में खड़ा कर दिया। उन्होंने नई कहानी को अपने तरीके से प्रभावित किया। पहाड़ के गाँवों की गरीबी, कठिन जीवन संघर्ष, उत्पीड़न, यातना, प्रतिरोध्, उम्मीद और नाउम्मीदी से भरे औद्योगिक मजबूरों के हालात, शहरी-कस्बाई और निम्नवर्ग के सामाजिक-नैतिक संकट, धर्म और जाति में जुड़ी रूढ़ियां- ये सभी उनकी कहानियांे के विषय रहे हैं। शेखर जोशी की प्रमुख रचनाओं में कोशी का घटवार 1958, साथ के लोग 1978, हलवाहा 1981, नौरंगी बीमार है 1990, मेरा पहाड़ 1989, डायरी 1994, बच्चे का सपना 2004, आदमी का डर 2011, एक पेड़ की याद, प्रतिनिधि कहानियां शामिल हैं।
हिन्दी साहित्य को अपनी कालजयी रचनाओं से समृ( करने वाले शेखर जोशी ने चिकित्सा शोध् के लिये अपने शरीर को दान किया था। जिस कारण उनकी पार्थिक देह को ग्रेटर नोएड के शारदा हाॅस्पिटल को दिया गया। शेखर जी के सुपुत्र प्रत्तुल जोशी पिछले महीने ही आकाशवाणी अल्मोड़ा केन्द्र से सेवानिवृत्त हुए है।। छोटे सुपुत्र संजय जोशी फिल्मकार हैं। ‘प्रतिरोध् का सिनेमा’ नाम से उनके अभियान चर्चित हैं।
शेखर जोशी जितना अपने लेखन पढ़न में डूबे थे उतना ही सामाजिकता में रमे रहे। उनका अधिकांश समय पहाड़ से बाहर बीता लेकिन उनके दिल-दिमाग में पहाड़ बसता था। इलाहाबाद में लम्बी यात्रा उनकी रही है। पत्नी के निधन के बाद जब उनसे उनका इलाहाबाद छूटा, वह भी उन्हें बहुत उदास कर चुका था लेकिन समय ने बहुत उलट किया वह लखनउ रहने लगे। अपने मित्रांे-साथियों के साथ बराबर पत्राचार करते, पुस्तकों की समीक्षा लिखते, स्वतंत्रा रूप से लेख लिखते। नव लेखकों को प्रोत्साहित करते और पहाड़ को आवाद करने की बात करते। पिघलता हिमालय परिवार के साथ ही भी उनका यह रिश्ता बना रहा। सम्पादक स्व. आनन्द बल्लभ उप्रेती के कहानी संग्रह की भूमिका भी उन्होंने लिखी। इसके अलावा निरन्तर पत्राचार से सम्वाद होता रहता था। उप्रेती जी के निधन के बाद सम्पादक श्रीमती कमला उप्रेती को ढांढस बंधते हुए जोशी जी ने मार्मिक पत्रा लिख भेजा था, जिसमें उन्होंने अपने इलाहाबाद छूट जाने के दर्द को भी लिखा और कामना की कि संकट की इस घड़ी में पिघलता हिमालय को सींचना होगा।
इलाहबाद के समय से ही शेखर जोशी के तमाम संगी-साथी थे और उनका जुड़ाव-लगाव सभी से था लेकिन लखनउ आने के बाद पहाड़ के सभी प्रमुख जनों से उनकी मुलाकात थी। पत्रकार-लेखक नवीन जोशी उनकी लगातार टोह लेते रहते। वरिष्ठ पत्रकार महेश पाण्डे नियमित रूप से भेंटघाट करने के साथ ही उन्हें पहाड़ की सूचनाओं से जोड़े रहते। आज जब शेखर जोशी जी हमारे बीच नहीं हैं, सभी उनके रचना संसार के अलावा उनके व्यक्तित्व को याद कर श्रद्धासुमनअर्पित कर रहे हैं। वह हमेशा अपनी रचनाओं के माध्यम से याद रहेंगे।
वाकेई शेखर जोशी अपनी पीढ़ी के विराट व्यक्तित्व वाले रचनाकार थे, जिनकी रटन लिखने-पढ़ने-समझने की थी। उनकी सच्चाई थी कि वह गुंथते चले जाते, उन्हें सम्मान की चाह नहीं थी। पिघलता हिमालय परिवार स्व. शेखर जोशी को श्रद्धासुमन अर्पित करता है।
———————————————————————-
साहित्यकार/कहानीकार शेखर जोशी 2016 में मुनस्यारी भी आये थे। दरअसल वह इस बार अपने ग्रीष्म प्रवास में परिजनों के साथ पहाड़ों की सैर में निकले थे। तब 84 वर्षीय श्री जोशी जी ने पिघलता हिमालय के साथ खूब बातचीज की। उनका जीवन इलाहाबाद पिफर लखनउ में बीता लेकिन उनकी यादों में पहाड़ का बचपन हमेशा रहा है। पिघलता हिमालय से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा था- ‘‘गाँव-घरों में ताले लटक जाना दुर्भाग्य है जो हमारी परम्परा की जड़ रहे हैं।’’ उस समय लेखक मंच प्रकाशन से उनकी पुस्तक ‘मेरा ओलिया गाँव’ तैयार हो रही थी। जोशी जी अपनी पुरानी यादों में घिरते हुए कहने लगे- उनका गाँव परम्परा और आध्ुनिकता का मेल था, खेती भी अच्छी होती थी, लोगों के पास समय भी था, लोक संस्कृति- गीत, एंेपण सभी तो था। 12 घरों के इस गाँव में अब केवल 2 घर खुले रहते हैं। यह सब कैसे हुआ, उसी का वृत्तांत पुस्तक में है। कमोवेश यही स्थिति आज हर गाँव की है।

शौका बोली-भाषा को पुनर्जीवित करने का योजनाबद्ध प्रयास है यह

अंग्रेजी-हिन्दी- शौका शब्दकोश
डाॅ.पंकज उप्रेती
किसी भी समाज की जो लोक मान्यता और बोली भाषा होती है, वह उसके पूरे बात-व्यवहार को बताती है। उस समाज की विशिष्ट शब्दावली उसके इतिहास, भूगोल और व्यवहार को बहुत सटीक बताती है जबकि उसका अनुवाद या दूसरी बोली भाषा में वही शब्द उसके पूरे अर्थ को व्यक्त करने में अधूरापन ही लगता है। ऐसा ही अधूरापन हमारी हिमालयी सीमा की बोली-भाषाओं को लेकर समाज मेें रहा है। जबकि हमारे सीमान्त क्षेत्र की विशिष्ट बोली-भाषा अपनी चाल के साथ अपने सटीक शब्दों के लिये बहुत समृद्ध है।
भारत सरकार के शब्दावली आयोग ने भी देश की विभिन्न बोली भाषाओं का अध्ययन करते हुए बहुत कार्य किया है परन्तु आज भी लगता है कि हमारी लोकभाषा का बहुत बड़ा हिस्सा उसमें नहीं है। बोली-भाषा उसके व्यवहार के साथ पनपनी है वरना दुनिया की सैकड़ों भाषाएं समय के साथ बुझ चुकी हैं। बोली भाषा के इस सच को जानते हुए शौका समाज के विद्वान गजेन्द्र सिंह पांगती ने बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया है। श्री पांगती ने अंग्रेजी-हिन्दी- शौका शब्दकोश के रूप में समाज को सजग किया है। दो खण्डों के इस शब्दकोष के पीछे उनकी सीधी सी मंशा है कि शौका बोली भाषा को पुनर्जीवित किया जाए, इसके लिये यह योजनाबद्ध प्रयास है। भाषा में जबर्दस्त पकड़ रखने वाले और अनुशासन प्रिय पांगती जी ग्रन्थ की भूमिका में शब्दकोष के बारे में बताने के साथ-साथ जितना भी उल्लेख करते हैं वह जानना शौका ही नहीं हर समाज के लिये जरूरी है। बहुत ही श्रम के साथ उन्होंने इस कार्य को किया है। शब्दकोष की भूमिका में उन्होंने इतिहास-भूगोल सहित जो जानकारी दी है वह इस प्रकार है-
भारत तिब्बत सीमा में स्थित गोरीगंगा की घाटी जोहार के मूल निवासी शौका नाम से जाने जाते हैं। यहाँ की अपनी विशिष्ट संस्कृति और भाषा रही है। प्राचीन काल में यहाँ की आबादी बहुत कम थी क्योंकि विकट होने के कारण यहाँ से तिब्बत जाने वाला दर्रा, उंटाधूरा से व्यापारिक आवागमन सबसे बाद में खुला। यहाँ के तत्कालीन लोग जो भाषा बोलते थे वह रंकस कहा जाता था। पूर्व मध्यकाल में तिब्बत व्यापार के लाभ से आकर्षित होकर जब कुमाउँ व पश्चिम नेपाल के राजदूत व खस लोग जोहार आये तो वे अपने साथ हिन्दू वैदिक धर्म व कुमाउंनी-हिन्दी भाषा ले आये। परिणामतः इस समुदाय ने न केवल वैदिक धर्म अपनाया बल्कि कुमाउंनी और रंकस के सम्मिश्रण से निर्मित एक विशिष्ट भाषा को भी अपनाया जिसे सूकिखून कहा जाता था। मध्यकाल में गढ़वाल और तिब्बत होते हुए मूल रूप से राजस्थान के राजपूत धाम सिंह जोहार मिलम में, काशी के पण्डित भट्ट मर्तोली में, गढ़वाल के शौका और कुमाउँ के व नेपाल के राजपूत बड़ी संख्या में आकर विभिन्न गाँवों में बसे तो जोहार में वैदिक धर्म के और सुदृढ़ होने के साथ ही कुमाउंनी की सहोदर एक ऐसी भाषा का जन्म हुआ जिसे सूकिबोलि/शौकी बोली कहा जाने लगा। इस विशिष्ट भाषा ने सूकिखून को चलन से बाहर कर दिया। शौका बोली में कुछ ऐसे शब्द है। जो न तो कुमाउंनी में पाए जाते हैं और न ही हिन्दी में। वे शब्द सूकिखून से आये हैं। उनमें से कुछ दारमा के रंगलू में पाए जाते हैं। और कुछ का मूल भाषा विज्ञानी ही बता सकते हैं।
तिब्बत व्यापार बन्द हो जाने के कारण जब शौका लोग जोहार घाटी से पलायन करके देश के विभिन्न स्थानों में बस गए और उनके आर्थिक क्रियाकलापों में अमूलचूल परिवर्तन हो गया तो उनकी संस्कृति और भाषा मुनस्यारी के कुछ गाँवों तक ही सीमित रह गयी। परिवर्तन की यह दिशा व गति ऐसे ही जारी रही तो वह दिन दूर नहीं जब शौका संस्कृति और भाषा दोनों विलुप्त हो जायेंगे। इसलिए इस समाज के प्रबुद्ध लोग इनके संरक्षण के लिए प्रयासरत हैं। उनके प्रयास को सफल बनाने के लिये आवश्यक है कि, मेरी आयु वर्ग के लोग जिन्होंने बचपन में शौका जीवन जिया है, शौका संस्कृति से सम्बन्धित शोधग्रन्थ और रचना साहित्य लिखें। ऐसा किया भी जा रहा है। मै। खुद ऐसी कई रचनाएं कर चुका हूं लेकिन यह सब कुछ हिन्दी में किया गया है शौका भाषा में नहीं। शौका बोली को पुनर्जीवित करने के लिए अभी तक कुछ भी नहीं किया गया है। वर्ष में तीन-तीन गाँवों में उत्क्रमण तथा व्यापार हेतु लम्बी अवधि के लिए तिब्बत और भारत के विभिन्न भागों में भ्रमणशील रहने के कारण शौकाओं को रचना साहित्य लेखन और भाषा को व्यापकरण की परिधि में लाने का कोई अवसर नहीं मिला। आधुनिक काल में भी इस भाषा का रचना साहित्य कुछ कविताओं के लेखन तक ही सीमित है। यदि यह कहा जाये कि शौका बोली कभी भी भाषा नहीं बन पायी तो गलत नहीं होगा। बोली वह होती है जो बोली जाती है। जब उस बोली में लेखन कार्य किया जाता है तो वह भाषा बन जाती है। शौका बोली के इतनी जल्दी चलन से बाहर होने का एक कारण यह भी है कि इसका लिखित साहित्य नहीं है जो इसे स्थायित्व दिला सकता था।
भाषा और संस्कृति का चोली-दामन का सम्बन्ध है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व बना नहीं रह सकता है। शौका भाषा को पुनर्जीवित किये बिना शौका संस्कृति को संरक्षित और सम्बर्धित नहीं किया जा सकता है। लेकिन यह भाषा अब मुनस्यारी के कुछ गाँवों तक ही सीमित रह गयी है जिसका उल्लेख किया जा चुका है। इसके संरक्षित करने के लिये कोई आधर भी उपलब्ध् नहीं है। हमारी आयु-वर्ग के लोग इस भाषा को जानते और कुछ हद तक बोल भी सकते हैं। उनके बाद यदि यह भाषा भी सूकिखून की तरह विलुप्त हो जाये तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा, ऐसा न हो इसके लिए प्रयास किया जा रहा है। इस प्रयास को सपफल बनाने के लिये आवश्यक है कि शौका भाषा का व्याकरण तैयार किया जाये। इसके मुहावरों और लोकोक्तियों को लिपिबद्ध किया जाये और एक बृहद शब्दकोष बनाया जाये, इसी कड़ी में शब्दकोष बनाने का यह मेरा छोटा सा प्रयास है।
शब्दकोष में सामान्यतः मूल शब्द दिया जाता है। उसके साथ उसका अर्थ, वाक्य प्रयोग, समानार्थक व विलोम शब्द, उससे बने शब्द आदि दिए जाते हैं। और ऐस बने शब्द यथा संज्ञा, भाववाचक संज्ञा, विशेषण, क्रिया, क्रिया विशेषण आदि में से क्या है यह संकेतकों के द्वारा दर्शाया जाता है। ऐसा करना इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि हर शब्द को अलग लिखने से शब्दकोष बहुत बड़ा हो जाता है। लेकिन अब सन्दर्भ बदल गया है। इन्टरनेट के कारण न तो शब्दकोष बड़ा होने की समस्या रह गयी है और न ही इसके छापने की आवश्यकता रह गयी है। एक और महत्वपूर्ण बात है, हमारा लक्षित वर्ग इस भाषा को जानता ही नहीं है। उसे किसी अंग्रेजी या हिन्दी शब्दकोष का समानार्थक शौका भाषा का शब्द ढूंढने के लिए उसके मूल शब्द जानने में भी कठिनाई होगी। इसलिए इस शब्दकोष में हर शब्द को अलग लिखा गया है। प्रोग्रामिंग के माध्यम से वे अपनी उंगुली से अंग्रेजी, हिन्दी और शौका भाषा के किसी भी शब्द को क्लिक करके अन्य दो भाषाओं में उनका समानार्थक शब्द ढूंढ सकते हैं। या यूं कहें कि जिस तरह आधुनिक टैक्नोलाॅजी के माध्यम से दुनिया उनकी मुट्ठी में है उसी तरह इन तीन भाषाओं के शब्द उनके फिंगरटिप में होंगे।
शब्दकोष उपयोगी होने के साथ बहुत बड़ा भी न हो इसके लिए संज्ञा और क्रिया दोनों बनाने वाले शब्दों में उनमें से केवल उस एक को लिया गया है जो ज्यादा चलन में है। यह इस आशा में किया गया है कि दूसरी शब्द रचना पाठक स्वयं आसानी से कर सकता है। जैसे लेख से लिखना आदि। फिर भी जहाँ भी कुछ भिन्न अर्थ का शब्द बनता हो उसे दिया गया है। इसी प्रकार हिन्दी और अंग्रेजी के समानार्थक शब्दों के साथ शौका बोली के केवल शब्द दिए गए हैं और उनका अर्थ इस विश्वास से छोड़ दिया गया है कि पाठक हिन्दी या अंग्रेजी के शब्दों से उसका अर्थ बखूबी समझ जाएंगे। आवश्क समझे जाने पर कुछ खास शब्दों का वाक्य प्रयोग बाद में दिया जा सकता है। जो शब्द इन दोनों भाषाओं में नहीं हैं उनका अन्य भाषा का समानार्थक शब्द दिया गया है। उसके लिए (न) संकेतक दिया गया है। कोई भी भाषा पूर्ण रूप से न तो स्वतंत्रा है और न ही रह सकती है। भाषा की समृद्धि के लिए अन्य भाषाओं के शब्दों को हर भाषा में अपनाया जाता रहा है और यही हमें भी करना होगा। इसलिए हिन्दी, फारसी, उर्दू और अग्रेजी के प्रचलित तथा प्रचलित की जाने लायक शब्दों को बिना संकोच के शब्दकोष में स्थान दिया गया है।
शौका बोली का मूल स्वरूप जीवित रहे इसके लिए आवश्यक है कि इसका मूल उच्चारण कायम रहे। इसमें श तथा ष के लिए बहुधा स का प्रयाग किया जाता है। इसी तरह इ की जगह र का प्रयोग किया जाता है। ण के स्थान पर भी न का प्रयोग किया जाता है। मात्राओं में भी अन्तर है। जैसे अ की आ और आ की जगह आ। इसी तरह शब्दों में भी अन्तर है। जैसे ध् की जगह द आदि। मूल उच्चारण की इन विशेषताओं को मानये रखने का प्रयास किया गया है। इस भाषा की एक बहुत बड़ी खामी है इसमें संयुक्ताक्षर का अत्यधिक प्रयोग। इससे भाषा न केवल कर्ण कटु हो जाती है बल्कि इसके लेखन में भी कठिनाई आती है। भाषा के आम प्रचलन और सहज लेखन के लिए इसमें सरलता लाना आवश्कय है। इस हेतु जहाँ भी सम्भव है वहाँ संयुक्ताक्षर के स्थान पर सरल शब्दों का उपयोग किया गया है जो सम्भव है कुछ शुद्धता के पोषक लोगों को पसन्द न आये। उन विद्वानों से से मैं निवेदन करना चाहूंगा कि भाषा के संरक्षण के लिए यह किया जाना आवश्यक है। फिर भी जो संयुक्ताक्षर न केवल बहुत आम है बल्कि शौका बोली की विशिष्टता है उनका स्वरूप यथावत रखा गया है।
इसमें कुछ शब्द छूटे हो सकते हैं और कुछ अन्य भाषाओं के शब्द शौका बोली में लेने की आवश्यकता पड़ सकती है। शब्दकोष को छोटा और उपयोगी बनाने के लिये अंग्रेजी के कुछ ऐसे शब्द छोड़ दिए गए हैं जो उपयोग में नहीं हैं। इसी प्रकार मूल शब्द से बने अन्य शब्दों में से उनको छोड़ दिया गया है जिनका प्रयोग आमतौर पर नहीं होता है। उपयोगी पाए जाने या हो जाने पर भविष्य में छोड़ गए कुछ शब्दों को शब्दकोष में लेने की आवश्कता पड़ सकती है। इसके लिये अपने वाले सुझावों के आधर पर एडमिन व सम्पादक द्वारा इसे अद्यतन व परिष्कृत कराते रहना होगा। इसके लिए मेरी पूर्व स्वीकृति है। वैसे भी अब हार्ड काॅपी का जमाना चला गया है। मैं आशा करता हूं कि नई पीढ़ी आन लाइन शब्दकोष को अधिक सहजता से स्वीकारेगी।
शौका बोली में दो ऐसे विशिष्ट शब्द हैं जिनको उच्चारण के अनुरूप देवनागरी में लिखना सम्भव नहीं है। इस पर अभी विचार विमर्श चल रहा है। क्योंकि हम देवनागरी लिपि का प्रयोग करते हैं और करते रहेंगे इसलिए इसके अनुशासन के अन्तर्गत इसका कोई सर्वमान्य हल निकल सके तो अच्छा होगा। यदि ऐसा नहीं हो पाया तो हमें इसको भविष्य के लिए छोड़ना होगा। एक और महत्वपूर्ण बात है, हमारी बोली कुमाउनी के सबसे नजदीक है। फिर भी वह उससे बहुत भिन्न है। कुमाउनी में एक ही शब्द के अलग-अलग अर्थ दशाने के लिए उच्चारण भिन्नता को अपनाया गया है लेकिन हमारी बोली में इस भिन्नता को दर्शाने के लिए कुमाउनी के अ और आ का स्थान परिवर्तन कर दिया गया है या फिर व, य, ह जैसे अक्षर में ए आदि के ध्वनि के साथ नए शब्द का निर्माण कर दिया गया है। इस अर्थ में हमारी बोली कुमाउनी से अधिक समृद्ध है। लेकिन इसके कारण हमारी बोली कुछ कर्ण कटु हो गयी है। पिफर भी इसकी विशिष्टता को बनाए रखने के लिए हमें न केवल इस अन्तर को बनाए रखना होगा बल्कि इसे और भी सुदृढ़ करना होगा। इस विशिष्टता को बचाए रखने के लिए लघु ह्रस्व के लिए हलन्त और अति दीर्घ के लिए विसर्ग (:) का प्रयाग बहुत आवश्यक होने पर ही करना होगा अन्यथा हमारी भाषा कुमाउनी या हिन्दी में समाहित हो जायेगी। शौका बोली के जिन शब्दों का समानार्थक शब्द किसी अन्य भाषा में नहीं है उनको तथा उनके प्रयोग को संलग्नक में देने का प्रयास किया जाएगा। शब्दकोष को साॅफ्रटवेयर में डाने वाले युवा यह निर्णय लेंगे कि इसे शब्दकोष में कहाँ और किस रूप में स्थान दिया जाये।
शब्द और भाषा का समाज और उसकी संस्कृति से चोली दामन का साथ होता है। इसलिये कई शब्दों का समानार्थक शब्द कुछ अन्य भाषाओं में नहीं मिलता है। ऐसे ही अंग्रेजी के कुछ शब्दों का हिन्दी समानार्थक शब्द की तुलना में शौका शब्द अध्कि सटीक होने पर उसे अपनाया गया है। ऐसे में हिन्दी और शौका शब्द एक-दूसरे के समरूप नहीं मिलेंगे। पाठकों से अनुरोध् है कि ऐसे में अंग्रेजी शब्द देखें क्योंकि इस शब्दकोश की मूल भाषा अंग्रेजी और लक्षित भाषा शौका है। एक ही वस्तु, भाव व प्रकटीकरण के लिये शौका भाषा में कई शब्द हैं और समानार्थक शब्द अंग्रेजी व हिन्दी में नहीं हैं। ऐसे शब्दों को और विशिष्ट कार्य व्यवहार से सम्बन्धित शब्दों को एक ही जगह दिया गया है ताकि यह शब्दकोष एक सन्दर्भ पुस्तक के रूप में काम आ सके और भावी पीढ़ी को भाषा का उपयोगी ज्ञान हो सके। सन्दर्भ में आसानी के लिये सम्बन्धित अंग्रेजी शब्द को s Capital Ietter में दिया गया है।
शब्द चयन का आधर पफादर बुल्के का ‘अंग्रेजी हिन्दी कोश’ रहा है। जिसके लिये मै। उस महान आत्मा का रिणी हूं। उनके शब्दकोष के उन शब्दों को छोड़ दिया गया है जो न तो प्रयोग में हैं और न ही उनके प्रयोग में आने की सम्भावना है। उसमें जो कुछ शब्द छूट गये हैं उनको सम्मिलित कर लिया गया है। कुछ मित्रों ने शौका बोली के शब्द चयन में जो सहयोग दिया उनके लिये मैं उनका आभारी हूं।
इसमें संशोधन करने और कुछ शब्दों को इससे हटाने तथा कुछ और शब्दों को इसमें जोड़ने की प्रक्रिया दसकों तक जारी रखनी होगी। इसके लिए, इसके प्रकाशित कराने और इसके उ(रण की अनुमति देने के लिए मैं जोहार पुस्तकालय और मेरे पुत्रा नवीन को सम्मिलित रूप से अधिकृत करता हूं।

राजुला-मालूशाही की अमर प्रेम गाथा

(राजुला मालूशाही की अमर प्रेम कहानी को अपने तर्कों द्वारा समझाते हुए कई लोगों ने लेख लिखे हैं। पर यह लेख दारमा रं लुंग्बा जनों के अनुसार लिखा गया है, जो वह सुनते रहे हैं।)
न्यौला पंचाचूली
उत्तराखण्ड हिमालय की प्राकृतिक सुन्दरता का आकर्षण जितना खूबसूरत है, उतनी ही ‘राजुला-मालूशाही’ की अमर प्रेम मिलन कथा भी एक है। जो प्रेम पर समर्पण का प्रतीक मानी जाती है। यह प्रेम मिलन की गाथा विषम सांस्कृति सामाजिकता के बाद भी प्रेम के प्रति प्रेमिका राजुला स्वयं को समर्पित कर स्वप्न प्रेमी के पास पहुंचना और राजुला का अपने प्रान्त ‘रं लुंग्बा’ और पूरे भोंट देश को बचाने की खातिर, अपने मन-मस्तिष्क का आत्म-समर्पण करती है। यह प्रेम मिलन की गाथा ‘प्रेमी-प्रेमिका’ के परस्पर प्रेम के प्रति समर्पण-त्याग की ऐसी इबारत लिखती है जो तत्कालीन विषम सामाजिक, सांस्कृतिक और सभ्यता को स्वीकार कर नया इतिहास बनाती है।
भोंट देश का प्रान्त रं-लुग्बा दारमा घाटी में विख्यात मालदार व्यापारी सुनपति भोट रं रहते थे। वे धन-धान्य और सभी सुखों से परिपूर्ण होने के बाद भी सन्तान सुख से अभागे थे। सन्तान सुख भोगने की ललक में उनको परेशान देख उन्हीं के घनिष्ट व्यापारी मित्र ने बताया कि आप सन्तान प्राप्ति के लिये बागनाथ मन्दिर (वर्तमान बागेश्वर) जाकर शवि की आराधना करें तो उन्होंने अपनी पत्नी के साथ सन्तान प्राप्ति के लिये शिव आराधना करने बागेश्वर बागनाथ मन्दिर गए, वहाँ वा पर उनकी मुलाकात बैराठ (वर्तमान चैखुटिया) के राजा दुलाशाह व उनकी पत्नी से हुई, वह भी सन्तान की चाह मे बागनाथ मन्दिर आए हुए थे। दोनों की आपस में अच्छी दोस्ती हो गई और दोनों ने आपसी दोस्ती बनाए रखने के लिये एक-दूसरे को वचन दिया, यदि हमारी सन्तान ‘लड़का-लड़की’ हुई तो उनकी आपसी में शादी करा देंगे। ऐसा ही हुआ भगवान बागनाथ की कृपा से सुनपति भोट रं के घर में पुत्री का जन्म हुआ, जिसका नाम राजुला रखा गया। कुछ दिनों पहले इसी दौरान बैराठ के राज दुलाशाह के पुत्र जन्म हुआ। उनका नाम मालूशाही रखा गया। पुत्र जन्म के बाद राजा दुलाशाह ने ज्योतिषी को बुलाया और बच्चे के भाग्य के बारे में पूछा, ज्योतिष ने बताया- हे राजा तेरा पुत्र बहुरंगी है लेकिन इसकी बाल्य/अल्प आयु में ही मृत्यु का योग है। इसके निवारण के लिये जन्म नामकरण के 21वें दिन बाद इसका ब्याह किसी नवरंगी बाल कन्या से करना पड़ेगा। राजा दुलाशाह ने बागनाथ मन्दिर प्रांगण में अपनी बात याद करते हुए अपने पुरोहित को भोंट प्रदेश रं लुंग्बा दारमा सुनपति भोट (रं) के वहाँ भेजा। वहाँ की स्थिति जानकर प्रतिनिधि मण्डल ने सुनपति भोंट को राजा दुलाशाह की बात बतायी, सुनपति भोंट ने अपने दिये बचन का मान रखते हुए उनकी बात को स्वीकार किया और अपनी नवजात पुत्री का प्रतीकात्मक विवाह (जन्ममंगली/बालमंगली) मालूशाही से कर दिया। लेकिन विधि का विधान कुछ और ही था। बालमंगली के कुछ दिनों बाद राजा दुलाशाह की मृत्यु हो गई। इस अवसर का पफायदा राज्य प्रतिनिधियों ने उठाते हुए यह कुप्रचार कर दिया कि जो बालिका जन्ममंगली के बाद ही अपने ससुर को खा गई, अगर वह इस राज्य में आएगी तो अनर्थ हो जायेगा। इसलिये मालूशाही से यह बात गुप्त रखी गई। धीरे-धीरे मालू और राजुला दोनों बाल्यावस्था से युवावस्था में प्रवेश करने लगे। राजुला का रंगरूप सौन्दर्य आकर्षण पूर्णिमा के चाँद की तरह पूरे भोट प्रान्त रं लुंग्बा के साथ पूरे भोट देश और सीमान्त विदेशों तक के लोगों में चर्चा का विषय बन गया था। तभी सुनपति भोट रं को लगा कि मैंने राजुला को बैराठ राजकुमार से विवाह का बचन राजा दुलाशाह को दिया था लेकिन वहाँ से कोई खबर नहीं आ रही हैै। यही सोचकर वे चिन्तित रहने लगे।
एक दिन राजुला ने अपनी माँ से पूछा-
माँ दिशाओं में कौन सी दिशा?
पेड़ में कौन सा पेड़ बड़ा?
गंगाओं में कौन सी गंगा?
देवों में कौन सा देव?
राजाओं में कौन सा राजा?
देशों में कौन सा देश?
माँ ने उत्तर दिया-
दिशाओं में सबसे प्यारी पूरब दिशा जो धरा को प्रकाशवान रखती है।
पेड़ों में सबसे बड़ा पेड़ पीपल, जिसमें देवी-देवता वास करते हैं।
गंगाओं में सबसे बड़ी गंगा भागीरथी, जो असंख्य जनों की प्यास बुझाती है और सबसे अधिक जल की आवश्यकताओं को पूरी करती है।
देवताओं में सबसे बड़ा देव ह्या गंगरी ‘महादेव’, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आशुतोष है।
राजाओं में सबसे बड़ा राजा दुलाशाह, जो मानवीय व्यक्तित्व के धनी हैं।
देशों में देश है रंगीलो बैराठ। तब राजुला मुस्कुराते हुए अपनी माँ से कहती है, माँ मेरा ब्याह रंगीलो बैराठ के राजकुमार से ही करना। इसी बीच राजकुमार मालू ने सपनू में राजुला को दखा, उसकी मोहिनी रूप व शालीन स्वभाव को देखकर मालू मोहित हो गया। मालू ने सपने में ही राजुला को वचन दिया कि मैं एक दिन तुम्हें ब्याह कर जाउँफगा। यही स्वप्न राजुला को भी हुआ। इसी दौरन हूण देश का राजा विक्खीपाल शादीशुदा होने के बाद भी भोंट प्रान्त रं लुंग्बा पुत्राी राजुला की खूबसूरत मोहिनी रूप के बारे में सुनकर दारमा सुनपति भोट के यहाँ उनकी पुत्री राजुला का हाथ मांगने आया और मालदार सुनपति भोट रं को धमकाया, अगर तुमने अपनी बेटी का ब्याह मुझसे नहीं किया तो हम तुम्हारे भोट प्रान्त रं लुंग्बा दारमा व पूरे भोट देश को गुलाम कर देंगे।
एक ओर राजकुमार मालूशाही (स्वप्न प्रेमी)) प्यार व परस्पर बचन। दूसरी ओर हूण देश राजा विक्खीपाल की धमकी। इन सब असमंजस से व्यथित होकर राजुला ने निर्णय लिया, क्यों न मैं स्वयं बैराठ जाउं।
माघ माह बागेश्वर उत्तरायणी मेला लगने का समय होता है। (मिलन हेतु जाने-आने का समय) राजुला अपनी माँ को बिना स्वप्न प्रेम की बात बताए, बैराठ देश का रास्ता पूछा, लेकिन राजुला की माँ ने क्यों कहते हुए कहा, बेटी तुझे तो हूण देश को जाना है, बैराठ के रास्ते का तुम्हें क्या मतलब। इस बीच जब बैराठ राजकुमार मालू ने स्वप्न प्रेम वाली बात अपनी माँ को बताई और वे भोट प्रान्त रं लुंग्बा, दारमा घाटी जाकर राजुला से विवाह कर लाने की बात माँ का कही, माँ ने अलग बेमेल सामाजिक, सांस्कृतिक, सभ्यता व सुदूर भोट देश कहकर मालू को समझाया। पर मालू इन सभी बातों को न मानते हुए माँ पर दबाव बनाने लगा। माँ अपने पुत्र को खोने के डर से मालू को एक वर्ष की लम्बी निद्रा के लिए निद्रा जड़ी-बूटी सुंघा दी, जिससे वे अपनी स्वप्न प्रेम वाली बात भूल गया।
इसी दौरान राजुला ने सहेलियों संग और अपने सेवक व्यापारिक समूह के साथ उत्तरायणी बागेश्वर मेला देखने जाने का आग्रह किया। इस मेले में दरमानी और भोट प्रान्त व्यापारी भी व्यापार हेतु बागेश्वर मेले में आते थे। बागेश्वर बागनाथ मेला देखने के बहाने से पहली बार राजुला सीपू-बलाती हिम दर्रा मार्ग व खतरनाक कठिनाई युक्त मार्ग को पार कर मुनस्यारी होते हुए सरयू नदी के किनारे लगा बागेश्वर उत्तरायणी मेले में पहँुची। बागेश्वर बागनाथ मन्दिर का दर्शन कर आगे बागनाथ की कृपा से कफू पक्षी रूपी सन्यासी बाबा/लामा राजुला को बैराठ राज्य तक पहँुचाने का मार्ग दिखाया। राजुला मालू क कक्ष तक पहँुची लेकिन मालू तो एक वर्ष की जड़ी निद्रा के बश में अचेत पड़ा था। इसलिये मालू उठ न पाया। निराश होकर राजुला ने अपनी रत्न जड़ी अंगूठी निकाल कर मालू को पहना दी और एक पत्रा लिख कर तकिये के नीचे रख दिया। राजुला रोते-रोते दुःखी होकर अपने प्रान्त ;वर्तमान रं लुंग्बा,(दारमा) लौट गई।
बैराठ राज्य में सब सामान्य हो जाने व मालू की जड़ी निद्रा पूर्ण होने के बाद, जैसे ही मालू को होश आया, उसने अपने अंगुली में राजुला की पहनाई अंगूठी देखी, जो उसे स्वप्न प्रेम की बात याद आती है, और लिखा गया पत्र भी उसे दिखा जिसमें लिखा था कि हे मालू मैं तो तुम्हारे पास आई थी लेकिन तुम निद्रा के वश में अचेत पड़े थे। अगर तुमने स्वप्न-प्रेम में मुझे सच्चे मन से वचन दिया है तो मुझे लेने हूण देश आना क्योंकि मेरे पिता जी भोट प्रान्त रं-लुंग्बा जनों और पूरे भोट देश जनों को हूण देश की क्रूरता, अत्याचार व गुलामी से बचाने के खातिर मुझे हूण देश राजा विक्खीपाल से ब्याह रहे हैं। ये सब घटित घटनाक्रम के बारे में सोच कर राजकुमार मालू अपने के जिम्मेदार समझते हुए बहुत दुःखी हुआ। तब राजकुमार मालू अपने गुरु की शरण में गया, इस प्रेम घटना चक्र के बारे में गुरु जी को बताकर हूण देश जाने की अनुमति मांगी। गुरु जी न चाहते हुए उनके स्वप्न प्रेम वाली वास्तविक प्रेम-लीला को सुनकर मालू को साधू के वेश में हूण जाने की अनुमति दी। राजकुमार मालू जोगी (साधू) का वेश धारण कर अपनी साधू रूपी सैनिकों के साथ भोट प्रान्त रं-लुुुुुुुंग्बा, दारमा घाटी होते हुए हूण देश सीमा पर पहँुचा। उस हूण देश के सीमान्त मार्गों में ‘विष पानी’ की बावड़ियां लगी थी। उसका पानी पीकर कुछ साधू सैनिकों के साथ मालू भी अचेत हो गए। उस विष की अधिष्ठात्री विषला को साधू मालू की चेतन तड़पन देख दया आ गई। देवी ने मालू का विष निकाल दिया। मालू वही साधू वेश में घूमते-घूमते राजमहल परिक्षेत्र तक पहँुचा। वहाँ बड़ी चहल-पहल थी। क्योंकि राजा विक्खीपाल राजुला को कुछ दिनों पहले ब्याह का लाया था। साधू मालू ने अलख (उँची आवाज) लगाते हुए बोला- ‘दे माई भिक्षा दे, माई भिक्षा’। श्रृंगार व गहनों से लदी राजुला सोने की थाल में भिक्षा लेकर आई और कहा- लो जोगी, भिक्षा लो। पर जोगी मालू उसे देखता रह गया। उसने अपने सपने में आई राजुला को साक्षात देखा तो वे अपनी सुध्-बुध् ही भूल गया।
जोगी मालू ने कहा- अरे रानी तुम तो बड़ी भाग्यशाली हो। यहाँ कहाँ से आ गई। रानी राजुला ने कहा कि जोगी बता मेरे हाथ की रेखाएं क्या कहती हैं। तब जोगी ने कहा कि मैं बिना नाम, ग्राम, प्रान्त के हाथ नहीं देखता। तब रानी ने कहा- मैं सुनपति भोट (रं) मालदार व्यापारी की लड़की राजुला हूं। अब बता जोगी मेरे भाग्य में क्या है। तो जोगी ने प्यार से उसका हाथ अपने हाथ में लिया और कहा चेली (लड़की) भाग्य कैसे फूटा। तेरे भाग्य में तो रंगीलो बैराठ का राजकुमार मालूशाही है।
राजुला ने रोत हुए कहा- हे जोगी मेरे माँ-बाप ने तो मुझे अपना भोट प्रान्त रं लुंग्बा, अपना भोट देश बचाने के खातिर हूण राजा विक्खीपाल से विवाह करवाया। अपने रं लुंग्बा को बचाने के लिये मैंने ब्याह किया। यह सुनते ही मालूशाही अपना जागी ( साधू ) वेश उतारकर कहता है- हे राजुला! मैं रंगीलो बैराठ का राजकुमार मालूशाही हँू। मैंने तेरे लिये ही जोगी का वेश धरण किया है। मैं तुझे यहाँ से छुड़ाकर ले जाउँफगा। तब राजुला ने मालू का बैठने के लिये कहा और राजा विक्खीपाल को बुलाया। राजुला ने विक्खीपाल से कहा- ये जोगी बड़ज्ञ काम का है और बहुत विद्याएं जानता है। यह हमारे राज्य के काम आयेगा। राजा विक्खीपाल रानी राजुला की बात को ना नहीं कर पाया और मान गया। लेकिन जोगी के मुख पर राजसी प्रताप देखकर उसे थोड़ा शक तो हो ही गया, पर राजुला के खातिर जोगी मालू को महल परिक्षेत्रा में रहने की अनुमति दे दी। साथ ही उसपर नज़र रखता रहा। जोगी मालू राजुला से छुप-छुप कर मिलता रहा। बाद में एक दिन विक्खीपाल को यह बात पता चल गयी कि यह तो बैराठ का राजकुमार मालूशाही है। उसने मालू को मारने का षड़यन्त्रा रचा और खास दिन, भोजन बनवाया जिसमें उसने जड़ी विष जहर डाल रखा था। मालू को खाने पर आमन्त्रित किया गया। भोजन करते ही मालूशाही जड़ी विष की जकड़न से वहीं अचेत हो गय। उसकी यह हालत देखकर राजुला भी वहीं अचेत हो गई। बाद में हूण राजा विक्खीपाल ने राजुला को कैद में रख दिया। उसी रात मालू की माँ ने स्वप्न में मालू ने बताया कि माँ मैं हूण देश में जड़ी विष से मर रहा हँू। इस जगह पर हँू। माता जी ने मालू को वहाँ से लाने के लिये मामा मृत्योन्द्र सिंह (गढ़वाल के किसी गढ़ी के राजा थे) और सिदुवा-विदुवा रमोल (जड़ी बूटी बोकसाड़ी विद्या के ज्ञाता) के साथ हूण देश भेजा।
मालू के मामा राजा मृत्योन्द्र दोनों रमोला भाई व सैनिकों को लेकर भोट देश होते हुए हूण देश पहुंचे। रमोल भाई खुफिया रूप से राजमहल परिक्षेत्र में जाकर राजकुमार का पता लगाया और अपनी अपना जड़ी-विष बोकसाड़ी विद्या का प्रयोग कर मालू को जड़ी-विष की जकड़न से बाहर निकालकर जीवित किया। मालू हूण सैनिकों के वेश में राजमहल जाकर कैद राजुला को जगाकर अपने साथ लाया। फिर मामा मृत्योन्द्र के सैनिकों ने विक्खीपाल के अधिकतर सैनिकों के साथ विक्खीपाल को भी मार डाला। राजकुमार मालू ने बैराठ सन्देश भिजवाया कि मै। राजुला को अपनी धर्मपत्नी बनाकर ला रहा हँू।
मालू-राजुला प्राचीन भोट प्रान्त रं लुंग्बा, दारमा घाटी में पिता सुनपति भोट रं और माता जी का आशीर्वाद लेकर वे सीपू-बलाती हिम दर्रा मार्ग से होते हुए बैराठ देश लौट गये। वहाँ उनकी धूमधाम से शादी हुई। दोनों राजी-खुशी जिन्दगी जीते हुए प्रजा की सेवा करने लगे।

बौद्ध धर्म-बौंन धर्म-कैलास मानसरोवर

न्यौला पंचाचूली
दार्शनिक विद्वानों का मानना है कि तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार भारत से लगभग 7-8वीं शताब्दी में से हुआ। उससे पहले पश्चिम तिब्बत में स्थानीय धर्म बौंन धर्म ही था, पर 8-9 सदी के मध्य में अधिकांश राजकीय समर्थक बौद्ध धर्म लामाओं की ओर मुड़ गये और बौंन धर्मालम्बियों के साथ भेदभाव बरता जाने लगा। धीरे-धीरे वहाँ के जन मानस बौद्ध धर्म को ही अधिकतम मान्यताएं और धर्म काण्ड अपनाने लगे, जिससे यह मूल बौंन धर्म समूह जन बुद्धिजम का ही एक सम्प्रदाय लगने लगा। जिस प्रकार कालान्तर में तिब्बती बौद्ध परम्परा कई धाराओं में कट गयी, जैसे- निम्न द्येलुक, न्यिंगमा, कान्ग्यु, शाक्य, बौद्ध सम्प्रदाय हैं।
तिब्बत में बौंन धर्म के ऐतिहासिक लिखित प्रमाण 11 वीं सदी से मिलते हैं और 14 वीं शताब्दी में बौंन धर्म का धर्मिक पुनर्गठन हुआ। यह बौंन धर्म ‘तोनपा-शेन-रब’ के द्वारा स्थापित किया गया था, जो शाक्य मुनि गौतम से भी पहले के युग से बौद्ध थे। बौन धर्म का मूल विहार मेनरी मोनेस्ट्री है। जो दुनिया भर के बौंन धर्म अनुयायियों का सबसे बड़ा केन्द्र है। मेनरी का अर्थ- औषधियों का पर्वत होता है। इस मोनेस्ट्री की स्थापना सदियों पहले पश्चिम तब्बत में हुई थी। चीनी कब्जे के बाद कई बचे बौंन धर्मावलम्बी भारत और सीमान्त देशों में भाग आए। दोलाजी का मौजूदा विहार, मूल मेनरी विहार के नाम से फिस नामक स्थान में बनाया गया। सन् 1969 में यहाँ मौजूद ‘पुंगडुंग बौंन पुस्तकालय’ बनाया गया, जहाँ दुनिया भर के बौंन साहित्य का सबसे बड़ा संग्रह है। बौंन धर्म का अनुयायी प्रमुख देवाल्या ‘मिवो-शेन-रब’ ‘शेन-रब-मिवोचे’ को मानते हैं। अनुयायी इन्हीं की पूजा अर्चना करते हैं।
जी-टुची के अध्ययन वर्णन में ‘मिये-शेन-रब’ का स्वरूप बुद्ध की तरह ही एक पाषाण कमल पर आसीन चित्रण किया गया है। स्नेल ग्रोव ने मूल बौंन देवाल्या ‘कुन्तु-जाग्पो’ तो ‘म्वै-शेन-रब गुरु शेन-रब’ को बताया। बौंन धर्म का गढ़ (केन्द्र) ‘ख्युग-लुग व छपराड़’ दोनों प्रान्त के मध्य स्थित ‘शाग-शगु’ प्रान्त माना, जहाँ कैलास मानसरोवर स्थित है। कैलास मानसरोवर यात्रा मार्ग का उल्लेख हिन्दू साहित्य ‘स्कन्द पुराण’ के मानस खण्ड के अध्याय 1 में भी वर्णन किया गया है। स्कन्द पुराण के अनुसार कैलास पर्वत पर तपस्थल ब्रह्मा, वशिष्ट तथा दधिची के पुत्रों ने प्रतिदिन मन्दाकिनी नदी की स्नान यात्रा से मुक्ति पाने के लिये ब्रह्मा से कैलास पर्वत पर स्थान की व्यवस्था करने की मांग की तब देव ब्रह्म ने अपनी मानसिक-शक्ति के मानसर (मानसरोवर ताल )का सृजन किया। उस आदि काल से ही प्रतिवर्ष उत्तराखण्ड हिमालय पर्वतों को पार कर बड़ी संख्या में हिन्दू तीर्थयात्री भोले कैलाशपति के दर्शन के लिये कैलास मानसरोवर तीर्थ की यात्रा में जाते हैं।
दार्शनिक जी-टुजी ने अपने पुस्तक Tibet land of Snow में ब्रह्मा का उल्लेख करते हुए कहा, कैलास मानसरोवर हिन्दुओं, बौद्धों और बौंन तीन धर्म , धर्मावलम्बियों का मुख्य तीर्थ स्थल है।
18वीं शताब्दी में तिब्बत के बौंन अनुयायी क्षेत्रों पर दजुन्गर कबीलों का कब्जा हो गया। लामाओं और बौंन धर्मावलम्बियों को पकड़ कर जेल में ठूंस दिया गया। उस समय बौंन धर्मावलम्बियों अनुयायियों का लगातार मन्त्र पढ़ने से जीभ का रंग काला पड़ जाता था। इस लिये दजुन्गर अधिकारी इन बौंन अनुयायियों से मिलने आये। हर व्यक्ति को अपनी जीभ दिखानी पड़ती थी ताकि दोनों व्यक्तियों का परस्पर पहचान कर सकें कि वहाँ लाया है या नहीं। कालान्तर में लोगों के बीच यही अभिवादन का तरीका बन गया था। आज भी तिब्बत में लोग एक दूसरे का अभिवादन जीभ दिखाकर ही करते हैं।

भोट देश का सम्बन्ध हूण देश


इतिहास कथा
नरेन्द्र न्यौला पंचाचूली
प्राचीन समय में उत्तराखण्ड का उत्तर-पूर्वी (वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय भारतीय सीमान्त क्षेत्र) का हिम क्षेत्र, पश्चिम तिब्बत प्रान्त और हूण देश के सम्बन्ध इस प्रकार से थे।
भोट देश- वर्तमान कुमाउँ का उत्तर पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय हिम सीमान्त क्षेत्र और पश्चिम तिब्बत हिम सीमान्त क्षेत्र को सर्वप्रथम स्वतन्त्र भोट देश के नाम से जाना जाता था।
    ‘कूर्मांचल वाले’ कुमाउंनी लोग भारत तिब्बत अन्तर्राष्ट्रीय हिम सीमान्त क्षेत्रा को ‘भोट देश’ कहते थे। जो हिमाच्छादित प्रान्तों का नाम है। इनका माने उस देश से है, जहाँ ‘भोट-भोटिया’ रं, रौंगपा, शौका, जाड़ औन अन्य जनजातीय लोग रहते हैं। इस क्षेत्र के वासियों को कुमाउंनी लोग भोट-भोटिया और कुछ लोग शौका से भी सम्बोधित करते थे। ( कुमाउं का इतिहास, पेज नं. 523, लेखक बद्री दत्त पाण्डे)
हूण देश- कूर्मांचल ( कुमाउं ) के कुर्मांचली लोग मध्य तिब्बत क्षेत्र के मूल/स्थायी तिब्बतियों के बौद्धिक बौद्ध और उनके देश को बौद्धिक देश/बौ( देश भी कहते थे। वास्तविक बौद्ध देश के जगह हूण देश का नाम बार-बार इतिहास में आने का कारण चैथी और पाँचवीं शताब्दी में हूण समुदायों के समूह का वर्चस्व पूरे बौद्ध /लामा देश के मध्य केन्द्र तक फैल गया था। ये हूणीये चीन के पश्चिम दक्षिण हिमालय क्षेत्र से, पश्चिम उत्तर बौद्ध देश की सीमान्त से होते हुए बौद्ध देश के केन्द्र तक पहुँचे। बौद्ध लामाओं का वर्चस्व कम होने के कारण बाद में यह बौद्ध /लामा देश ही हूण देश  कहलाने लगा/हूण देश के नाम से जाना जाने लगा।
    श्री मूर प्रोफ्ट और उसके साथी श्री विल्सन 1812 में तिब्बत गए थे। उन्होंने इसे हूण देश यानि उन देश बताया, किन्तु इस समय असली नाम हूण देश था। जिसका तात्पर्य उन मानववादी, बौद्धिकता वादियों से था, जो मानवीय और बौद्धिकता पर पूर्णतयाः विश्वास करते थे। जहाँ पर मूल बौ( लामा रहते थे। पर उस समय काल में उन हूणीयों को प्रभुत्व मध्य तिब्बत तक फैल गया था। जो हूणीयों, बौद्धिक बौद्धिकता वादी और मानववादी लामाओं से अलग व्यक्तित्व वाले लामाएं/ बौद्ध कहे जाते थे। ये अपने समुदाय और क्षेत्र  से अलग दूसरे बाहरी लोगों पर जबरदस्ती अधिकार  जमाते थे, दूसरे क्षेत्रा में लूटपाट व क्रूरतापूर्ण व्यवहार करते थे। इनके समुदाय में एक सरदार (मुखिया) होता था और ये सरदार (मुखिया) को राजा समतुल्य मानते थे और बाहरी लोग भी उसे राजा ही समझते थे। ये हूणी लोगों को आतंकित करते हुए, दूसरे क्षेत्रों को जबरदस्ती अपने अधीन करते थे।
    ये हूण समुदायी लोग मूल तिब्बती नहीं थे। आरम्भ में ये हूणी लोग चीन के पश्चिम क्षेत्र में रहते थे। पहली-दूसरी शताब्दी के मध्य में चीनियों ने इन हूणीयों को हराकर इनके मूल स्थान से पश्चिम और दक्षिण हिमालय क्षेत्रा की ओर भगाया। बाद में इन्हीं हूणीयों ने पश्चिम-दक्षिण हिम क्षेत्रों के मध्य पर अधिकार  जमाया और यही क्षेत्र बाद में हूण देश कहलाने लगा। हिन्दू सांस्कृतिक ग्रन्थोें में हूण शब्द अनेकों स्थान में आया है।
    हूण देश के हूणी व्यापारी, जोहारी व्यापारी को ‘क्योनवा’ कहते थे। उनकी बोली में जोहार और कुमाउफँ का नाम ‘क्योनम’ था। दरमानियों को ‘भोट-भोटिया या श्योण’ के नाम से सम्बोधित करते थे। व्यासियों को ‘ज्यालबू’ कहते थे।
   भोट देश के भोट प्रान्त ‘रं लुंग्बा’ की पूर्ण स्वतंत्राता पर ‘प्रथम प्रहार’-
हुणियों की क्रूरता का प्रमाण- भोट प्रान्त का मशहूर मालदार व्यापारी सुनपति रं भोट, भोट देश के सीमान्त दारमा  प्रान्त के राजा न होते हुए भी उनका यहाँ के सामाजिक नियम-कानून (शासन- प्रशासन) की व्यवस्था में तूती बोलती थी, दबदबा चलता था। इसी कारण हूणी क्रूर, घमण्डी, शादीशुदा, मुख्य सरदार/ राजा विक्खीपाल ने उसकी पुत्री की मोहिनी रूप की सुन्दरता को देखकर सुनपति भोट से पुत्री राजुला का विवाह का प्रस्ताव रखा। मना करने पर रं भोट प्रान्त ‘रं लुंग्बा’ के साथ पूरे भोट देश को गुलाम कर अपने अधीन करने की        धमकी  दी थी। सुनपति भोट-भोटिया ने भोट प्रान्त (वर्तमान रं लुंग्बा) और भोट देश को बचाने के लिए हूण देश के मुख्य सरदार/राजा विक्खीपाल का विवाह प्रस्ताव न चाहते हुए भी स्वीकार किया, राजुला ने अपने पिता का मान रखने और प्रान्त के साथ देश को बचाने के खातिर बेमेल विक्खीपाल के साथ विवाह किया। बाद में वर्तमान कुमाउँ मण्डल उत्तर-पूर्व क्षेत्र और पश्चिम तिब्बत का सीमान्त हिम क्षेत्र यानि भोट देश को हूण देश के नये शासन ने कुछ महीनों बाद गुलाम कर अपने अधीन कर लिया।
(क्योंकि हूण देश के शासक विक्खीपाल के साथ सुनपति भोट की लड़की राजुला का विवाहिता जीवन ज्यादा दिनों तक सफल न हो सका। कारण- राजुला का जन्मकालीन/बाल्यकालीन मंगेतर बैराठ स्पप्न प्रेमी राजकुमार मालुशाही उसे लेने साधु के भेष में दारमा रं भोट प्रान्त होते हुए हूण देश पहँुचे। विक्खीपाल को मारकर राजुला को अपने राजधानी  -बैराठ ‘वर्तमान चैखुटिया’ ले गए।)
हूण प्रशासन का जबरदस्ती कर वसूली- मध्य तिब्बती हूण देश के प्रशासन हमारे इस रं भोट रं लुंग्बा से तीन प्रकार कर वसूला करते थे-
1. सिंहथल मालगुजारी (जानवरों की चराई पर कर)
2. थाथल ( धूप  सेकने पर टैक्स)
3. क्यूथल (जिजारत में नफा) व्यापार में कर और व्यापार में नफा पर कर।
हुमला-झुमला राज्य, नेपाल का जबदस्ती अध्ीन कर/टैक्स, भोट ‘रं लुंग्बा’ की स्वतंत्रता पर द्वितीय प्रहार- यह दारमा परगना का (दारमा, व्यास और चैंदास) तीनों क्षेत्रा पर हुमला-झुमला राज्य ने कुछ महिने-सालों तक जबरदस्ती अपना अध्किार जमाया। वह जबरदस्ती कर वसूली, आतंकित लूटपाट किया करते थे, और जो भी आवश्यक सामग्री मिले उसे कर/टैक्स के रूप में अपने साथ ले जाया करते थे। नेपाल हुमला-झुमला प्रान्त का जबरदस्ती कर वूसली के बाद में दारमा परगना, दारमा घाटी, व्यास घाटी, चैंदास घाटी, चंद राज्य, गोरखाराज, अंग्रेज राज्य में कुमाउँ प्रान्त के अधीन आ गया।
चन्द शासन राज का जबरस्ती अधीन कर टैक्स, रं लुंग्बा की स्वंत्रता पर तृतीय प्रहार- चंद शासक ने दारमा
 
परगना से सोने-चाँदी के छोटे-छोटे चूरे के रूप में टैक्स लेते थे।
गोरखा शासन राज का जबरदस्ती अधीन कर/टैक्स, रं लुंग्बा स्वतंत्रता पर चतुर्थ प्रहार- गोरखा राज के प्रशासन दारमा परगना रं लुंग्बा से जड़ी-बूटी, बाज के पेड़, कस्तूरी, शहद और खेती पर टैक्स/ कर लेते थे।
    रं लुग्बा (प्राचीन भोट प्रान्त) में रं भोट जनों के द्वारा हूणियों से लेकर हुमला-झुमला, चंद, गोरखा और अंग्रेज राज के शासकों तक कोई हिंसक क्रूरता अप्रिय घटनाक्रम का प्रमाण नहीं मिलता है। इससे हम रं जन यह सि( कर सकते हैं कि इस रं लुंग्बा के रं जन की विचारधारा  रागद्वेष, कटुता से काफी दूरी है। इसी मानवीय, बौद्धिक विचार धारा  के कारण हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक और सभ्यता अन्य समुदाय की मानसिकता से काफी आगे है। विडम्बना यह है कि हम सब रं जनों को भोटिया और यहाँ की हमारी निवास को भोट कैसे कहा जाता है। सच तो यह है कि सर्वप्रथम इतिहास में तिब्बत को ही भोट/भोत/ बौद्ध नाम से जाना जाता था।
    ब्रिटिश भारत के प्रशासकों, लेेखकों, जासूसों और अनुसंधनकर्ताओं ने वर्तमान रं लुंग्बा के इस क्षेत्रा में रहने वाले रं जनों को तिब्बत की भांति हम जनों को भोट और यहाँ रं लुंग्बा के निवासियों को भोटिया उपजाति नाम देकर परिचित कराया। इन्हीं शब्दों का अनुसरण आज तक होता आ रहा है। जबकि हम भोट देश, भोट प्रान्त-रं लुंग्बा के ‘रं-रंस्या’ जन हैं।
    ब्रिटिश काल के शुरुआत और उससे पहले के राजशाही में यह सब क्षेत्रा स्वतंत्रा और भोट देश का भोट प्रान्त ‘रं-लुंग्बा’ हुआ करता था (रं लुंग्बा जनों का व्यापार भोट देश तिब्बतीय सीमान्त प्रान्त से हुआ करता था।)
   तिब्बती भोट शब्द को सात समुन्दर पार वाले अंगे्रज अंग्रेजी में भोट ही लिखा करते थे। अतः भोत ठीवज से यह भोट हो गया। ठीक इसी प्रकार ऐसा ह इन अंग्रेजों ने तिब्बत के याक ;चवर गाय) को रोमन में समस्त विश्व में याक को मशहूर कर दिया।
   जोहारी, व्यासी, चैंदासी, एवं दारमिया को सम्मिलित रूप से पड़ोसी कुमाउंनी एवं नेपाली जन भोटिया और शौक्याण शब्द से भी सम्बोधित  करते आ रहे हैं।
   (पिता श्री मोहन सिंह दताल जी के कथानुसार 20वीं शताब्दी के मध्य तक भी पश्चिमी-तिब्बत प्रान्तीय प्रशासन दारमा घाटी के मध्य ग्रामों तक जबरदस्ती कर वसूली किया करते थे। पिता श्री 9-10 बार व्यापारी सहायक के रूप में व्यापार के लिये प्राचीन भोट देश प्रान्त- रं लुंग्बा और वर्तमान तिब्बत देश प्रान्त- पश्चिम तिब्बत के सीमान्त क्षेत्रा शिल्दी थं, ज्ञानिमा, ठुकर निम्न व्यापारिक मण्डियों में व्यापार के लिये गये थे।)
जय हो हमारे पूर्वज, जय हो हमारा रं लुंग्बा (प्राचीन भोट प्रान्त)
‘‘खा जैनु निसु – खा लिजु – थन गुम निनि’’

प्राचीन व्यापारिक सम्बन्ध

नरेन्द्र न्यौला पंचाचूली
प्राचीन समय की बात जब रं लुंग्बा (प्राचीन भोट प्रान्त) के दारमा घाटी में धनधान्य से परिपूर्ण मालदार व्यापारी सुनपति भोट रं रहा करते थे। तब लगभग 75 प्रतिशत वर्तमान कुमाउँ में कत्यूरी वंश के राजाओं का शासन था। पर रं लुंग्बा (दारमा, व्याँस और चैदाँस घाटी) स्वतन्त्र भोट प्रान्त ‘रं लुंग्बा’ हुआ करता था।
उस समय भोट देश का अलग राजा शासन करता था। तब परगना दारमा के वासी भांट देश का भोट प्रान्त होने के बाद भी वे अपने-अपने ग्रामों के स्वतन्त्र स्वामी थे। उस समय दारमानी, दारमा, रंगपा और जोहारी लोग दारमा और जोहार घाटी आने जाने व पश्चिम तिब्बत प्रान्त ;मल्ला जोहार व्यापार मार्ग से पहलेद्ध। ये हिम दर्रा मार्ग निम्न थे-
1 पंचा-दाँतू हिम दर्रा मार्ग, 2. सीपू- बलाती हिम दर्रा मार्ग।
पंचा-दाँतू हिम दर्रा मार्ग- दारमा-जोहार घाटी के व्यापारी और अन्य लोग पंचाचूली हिमगिरी शिखर के पंचा हिम दर्रा को पार कर दारमा जोहार घाटी आया-जाया करते थे। यह हिम दर्रा तहसील धरचूला, दारमा घाटी में है।
यह दर्रा मार्ग छोटा और खतरनाक था। इस मार्ग का प्रयोग तल्ला और मध्य दारमा के 10-15 ग्राम वाले करते थे। यह पंचा-दाँतू हिम दर्रा साफ मौसम में ही पार किया जा सकता था, जोहार घाटी वाले इस दर्रा को पार कर ग्राम दाँतू में प्रवेश किया करते थे, साथ ही दारमा घाटी के वासी रालम-पातों ग्राम क्षेत्रा में पहुंचते थे।
कहावत- इस पंचा-दाँतू दर्रा मार्ग को तय करने में इतना कम समय लगता था कि मूल दाँतू ग्राम से जड़ी-बूटी, नमक और घीट से से तैयार मरच्या (नमकीन चाय जड़ी बूटी गरम चाय) पीते हुए, जोहार घाटी के रालम-पातौं क्षेत्र में पहुँचा जा सकता था।
सीपू-बलाती हिम दर्रा मार्ग- तहसील मुनस्यारी और धारचूला, ग्राम सीपू, अटासी और ग्राम सीपू बलाती के क्षेत्र में पड़ने वाला इस हिमदर्रा को पार करते हुए दारमा-जोहार घाटी आया-जाया करते थे।
यह दर्रा मार्ग पंचा दर्रा की अपेक्षा लम्बा और सुरक्षित था। इस मार्ग का प्रयोग मल्ला दारमा के 9-10 ग्राम वाले किया करते थे, यह सीपू-बलाती हिम दर्रा जोहार घाटी वाले इस दर्रा को पार कर ग्राम बलाती, अटासी ‘जोहार घाटी’ में पहुंचते थे।
कहावत- ऐसी मान्यता है कि इस हिम दर्रा की दारमा-जोहार नजदीक ग्रामों की दूरी तय करने में इतना समय लगता था कि सीपू गाँव में बनी रोटी कपड़े में तय की गयी, गरम रोटी जोहार घाटी के बलाती ग्राम क्षेत्रा तक गरम ही पहँुचती थी।
;जोहार-रालम घाटी और दारमा घाटी के व्यापारी इन दोनों ही पंचा-दाँतू और सीपू-बलाती दर्रा मार्ग का प्रयोग करके दारमा घाटी होते हुए, सीमान्त पश्चिम तिब्बत प्रान्त के निम्नलिखित क्षेत्र- मंगोल, शिल्दी थं, मिसल, चिन, ज्ञानिमा, दरचन, दयाकार, शिनचिलम और ठूकर मण्डियों में सामाग्रियों का व्यापारी विनियम करते थे। पुरंग, पाला किरमेक, डोंग दर्चिन, जोमजिंन, बिल्थी थं तकलाकोट ठुकर (मानसरोवर) गढ़तोक में अधिकतर व्याँसी लोग व्यापारी विनिमय कर व्यापार करते थे और नीति-माना घाटी वासी शिवचिलम, चपराउफ मण्डियों में व्यापारिक विनिमय के लिए जाते थे। इन्हीं मण्डियों के आसपास लला लसुली देवी के धर्म शालाएं विद्यमान हैं। उन धर्मशालाओं के अवशेष/ साक्ष्य आज भी मौजूद हैं। दारमा घाटी के तरह ही जोहार घार्टी के व्यापारी भी इन्हीं तिब्बती मण्डियों का प्रयोग व्यापारिक विनिमय के लिये करते थे। इन मण्डियों तक पहँुचने के लिए उटाधूरा, जयन्तीधूरा, कुंगरी-बिंगरी धूरा तीनों गिरी द्वारों को पार करना पड़ता था।
अंग्रेज समय काल से भारत-तिब्बत अन्तर्राष्ट्रीय सीमान्त व्यापारियों का विनिमय व्यापार केन्द्र दारमा रं लुंग्बा (दारमा प्राचीन भोट प्रान्त क्षेत्र) मंगोल शिल्दी थं, विदांग नामक ग्राम ;वर्तमान ग्राम खिमलिंगद्ध हो गया, और यह विनिमय व्यापार लगभग 1962 तक चलता रहा। वर्तमान समय इस दारमा भारत-पश्चिम तिब्बत सीमान्त क्षेत्रा से कोई व्यापार नहीं होता है।
विनिमय (आदान-प्रदान) पश्चिम तिब्बत सामग्री- निम्न सामाग्री जैसे स्वर्ण चुरे, सुहागा, तिब्बती बकरियों का उन (पसमीन उन), नमक, बहुमूल्य रत्न, लाचा (लाख), जंगली पशुओं का चोखाल (समूर), पत्थर रत्न और अन्य सामग्री होते थे। साथ ही बकरियों, घोड़े, झुप्पू, याक का भी खरीददारी भोट (रं) जन करते थे। यह व्यापार 16500 से 18500 पिफट उफँचाई पर प्रवास के समय होता था। इन सीमान्त वासियों का मुख्य पेशा तिब्बती व्यापार तथा उफनी शिल्प उद्योग में एक दूसरे के पूरक थे।
विनिमय भारतीय (भोट/रं) सामग्री- निम्न सामग्री जैसे- गुड़, मिश्री, चीनी, चाय कपड़ा, तम्बाकू सूती वस्त्रा, सामान्य दवाईयां, ड्राई फूड, लपफो और दैनिक प्रयोग की अन्य सामग्रियों की खरीददारी पश्चिम तिब्बत व्यापारीजन करते थे।
सुनपति रं भोट समयकाल से ही जोहार-दारमा घाटी आना-जाना, व्यापार करना व अच्छे व्यवहारिक सामाजिक सम्बन्ध् के कारण शादी-विवाह का भी चलन था।
पौराणिक किवदंतियाँ (जनश्रुतियाँ)- दारमा-जोहार-रालम घाटी का पारिवारिक सम्बन्ध्- एक समय की बात है, दारमा घाटी के बेटे का ब्याह जोहार रं, रंगपा लड़की के साथ हुआ, ब्याह के बाद कुछ दिन के लिये अपने मायके जोहार-रालम घाटी रहने जा थी। मायका जोहार घाटी जाते समय वे न्यौला पंचाचूली हिमगिरी पंचा-दाँतू दर्रा को पार करने वाली थी, तब वे उच्च हिम मार्ग पार करने से कुछ पहले कुछ देर आराम करते हुए अपने दोनों तरफ ससुराल व मायका को निहार रही थी, और ससुराल से साथ लायी खाद्य सामग्री (स्यली/फाफर के आटे से तैयार गोलनुमा खाद्य) गंदु, चरपा और पतली/कट्टू आटा से तैयार गुठे, श्यली/ फापफर के आटे से तैयार गंदु (गोलनुमा), चरपा खाद्य पदार्थ पैक वाला निंगाल का टिफिन बाॅक्स ढलान की ओर गिरता ही चला गया। उस महिला ने तुरन्त उस जगह को दोष देते हुए, कोई न खा पाएँ, खा यानु बं (कितनी गन्दी जगह) अपशब्द निकल आया, जिसके कारण उसी वक्त मौसम खराब होते हुए हिमस्खलन व भूस्खलन होने लगा, वह महिला जोड़ी इस हिमस्खलन की चपेट में आकर वहीं मर गयी, साथ ही न्यौला पंचाचूली के निचला भूभाग ‘न्योल्पा बुग्याल थं’ के आसपास रहने वाले मूल दाँतू ग्राम के अधिकतर ग्रामवासी उस हिमस्खलन मं दबकर मर गए, कुछ बचे हुए ग्रामवासी वर्तमान स्थित ग्राम दाँतू में आकर बस गए।
ये ग्रामवासी ही यह ग्राम दाँतू के मूल दताल निवासी माने जाते हैं। उसी समय इस पंचा-दाँतू हिम दर्रा मार्ग पूर्ण रूप से खण्डित हो गया। जिस कारण इस पंचा-दाँतू हिम दर्रा मार्ग से दोनों ‘दारमा-जोहार-रालम घाटी’ का सम्पर्क पूर्ण रूप से टूट गया, तब से आज तक इस पंचा-दाँतू हिम दर्रा मार्ग का पता नहीं चल सका। इसी समय में जोहार- दारमा घाटी को मिलाने वाली दूसरी अटासी, बलाती, सीपू हिम दर्रा (बलाती-सीपू हिम दर्रा) के टूटने से यह मार्ग भी बन्द हो गया था। इसके पश्चात जोहार घाटी का व्यापार मल्ला जोहार के रास्ते पश्चिम तिब्बत प्रान्त से होने लगा। पर वर्तमान समय में इस मार्ग का प्रयोग ट्रेकर्स जोहार से दारमा, दारमा से जोहार घाटी ट्रेकिंग किया करते हैं।
यह समय काल मीठे, मृदुभाषी, ईमानदार और कर्मठ लोगों का सत्यवादी युक्त समय था।

पौराणिक गाँव गैलंड. (गैं), ग्राम- सेला

इतिहास कथा
नरेन्द्र ‘न्यौला पंचाचूली’
शताब्दियों पहले ग्राम- सेला के स्येला मण्डम नदी के दायें छोर पर पौराणिक गाँव- गैलंड. नामक स्थान पर ग्राम बौन के राठ- बुंड.स्येला बौनालों के पितृ पूर्वज जन निवास करते थे, वे इस गैलंड. नामक क्षेत्र के मूल निवासी थे और और वर्तमान उत्तराधिकारी वे ही माने जाते हैं। इन बौनालों को बुंड.स्येला उपजाति नाम से भी सम्बोधित करते हैं। सदियों पूर्व ग्राम सेला का यह गैलंड. नामक स्थान में वीरान पड़े गाँव के मकानों के खण्डित अवशेष, मकानों के प्रवेश द्वार चैखटें, चिकनी मिट्टी का बर्तनों के साक्ष्य प्रमाण स्वरूप अभी भी मिलते रहते हैं। इस सुन्दर पौराणिक गाँव गैलंड. नामक क्षेत्र के चैड़े-चैड़े खेत के निशान, खेतों के बीच मैदानी भू-भाग, भू विभाजक पत्थरों के चिन्ह, गाँव के खड़न्जे एवं किराने किनारे खड़े किये गये उँचे-उँचे बड़े पत्थरों का बाड़ा, अनाज कूटने पीसने का जन्नदी (पत्थर का हाथ चक्की) और विशाल पत्थर पर बना पाला (ओखली), जानवरों को पानी पिलाने का कुलो, देव चिन्हित स्थल और गाँव का पंचायती चैथरा थं (चबूतरा) ऐसा आभास करता है मानो अभी-अभी कुछ समय पूर्व ही पंचायत से उठाकर लोग अपने-अपने घरों को चले गये हों, साथ ही इन साक्ष्यों को देखकर ऐसा लगता है मानो कुछ सदी पूर्व ही गैलंघ ग्रामवासियों ने यहाँ से पलायन किया हो।
सेला पौराणिक गाँव गैलंड. की प्राकृतिक, कृषि व व्यवसायिक सम्पदा के रूप में काफी समृद्ध था परन्तु यहाँ रहने वाले लोगों में बार-बार एक ही चीज की कसक थी कि गाँव पहाड़ से सटकर बसे होने के कारण दिन में सूर्य उदय की किरणें देर से पहुंचती है व शाम में सूर्य अस्त की किरणें जल्दी छुप जाती है (यानि सूरज की किरणें दिन में बहुत थोड़े समय तक के लिये ही पहुंच पाती थी)। सूरज की किरणें मानव व फसली जीवन के लिये अति महत्वपूर्ण होता है। यह गाँव ‘पहाड़ सूरज की किरणें’ गैलंड. सेलाल जनों के पलायन का कारण था, ऐसा दारमा रं जन और बुंड.स्येला जन कहते हैं। एक दिन गैलंड. सेलाल जनों ने इस समस्या का समाधान हेतु आपसी विचार विमर्श कर पंचायत का आयोजन किया, आगे भविष्य में गाँव तक सूरज की किरणें पहुंचने में रुकावट न हो करके इस रुकावट पैदा करने वाले पहाड़ को काटने का निर्णय लिया। प्राचीन काल में कोई भी ग्रामजन व बाहुबली जन जब भी किसी विशेष कार्य को करते थे, उस कार्य को प्रण लेकर करते थे और दूसरे क्षेत्र जनों के लिए एक उदाहरण सिद्ध करते थे। यह पहाड़ कटान का कार्य भी गैलंघ ग्राम जनों ने प्रण लेकर किया, प्रण लिया यदि हम एक ही रात में भोर सवेर से पहले इस पहाड़ को काट सके तो यहीं रहेंगे अन्यथा इस मातृ भूमि को छोड़कर कहीं और प्रवास पर चले जायेंगे।
(यह बात उस प्राचीन त्य वचन समय की है जब लोग अपने वचनों का सौ प्रतिशत मान रख उस वचनों पर अडिग रहते थे और मानव, वनस्पति व पशु पक्षियों की आपस की परेशानी को समझते हैं, साथ ही उस युग में वर्तमान का नौ दिन-एक दिन और वर्तमान नौ रात-एक रात के बराबर माना जाता था।)
पौराणिक गाँव-गैं ‘गैलंड.’ ग्रामजनों ने विशेष चाँदनी रात का दिन निश्चित कर ग्राम विधिवत पूजा-पाठ किया और भूमि-पूजन कर ग्राम जन अपने-अपने गैन्थी, फावड़ा, छैनी, साम्बल, घन और अन्य हथियारों को लेकर बलशाली ग्राम योद्धा युवक उस पहाड़ को काटने निकले, गाँव के बाहुबल योद्धा युवक दल ने पहाड़ का मध्य-निचली तल भाग को गुफानुमा काट-काटकर दोपहर तक गिराने की बहुत कोशिश की पर पहाड़ का चट्टान ठोस पत्थरों के होने के कारण योजना मुताबिक यह पहाड़ नहीं गिरा पाए। फिर दुबारे इसी दल ने पहाड़ के उच्च सिरा भाग से इस चट्टान का कटान करना शुरु किया। चट्टान काटते- काटते, तोड़ते-तोड़ते पहाड़ की चोटी को लगभग आध तक काट दिया पर समय बीतता जा रहा था। समय बीतते- बीतते तड़के बोर सवेर हो जाने के कारण उन्होंने उस कार्य को वहीं रोक दिया, वे उस पहाड़ को पूर्ण तोड़ नहीं पाये। बुंघ स्येला पितृ पूर्वज जनों के द्वारा उस प्राचीन समय पर तोड़े गये पहाड़ के टुकड़े और हथियारों के निशान के साक्ष्य वर्तमान समय पर भी साफ-साफ दिखाई देते हैं। पहाड़ के मध्य निचला तल भाग के जिस जगह पर चट्टान कटान का कार्य किया गया था, उस जगह पर वह पहाड़ इतना बड़ा गुफानुमा कटान हुआ है, जिस पर अनेकों लगभग 100-150 लोग एकत्रित हो सकते हैं। बाद में गैलंघ स्येला जनों ने उस पहाड़ को योजना मुताबिक नहीं तोड़ पाने के कारण वर्तमान बौनाल राठ- ‘ बुंड.स्येला ’ के पितृ पूर्वज जनों ने प्रण के मुताबिक गैलंघ गाँव से पलायन करने का निर्णय किया।
बुंड.स्येला पितृ पूर्वजों का पलायन करते समय पास के ग्राम-वर्तमान स्येला वासियों के पितृ पूर्वजों ने काफी समझाया पर वे उनकी बात को नहीं माने। अपने प्रण के मुताबिक अपनी वर्तमान जन्म- कर्म भूमि को छोड़कर वे वहाँ से चलते चलते वर्तमान बौंन गाँव पर जाकर बस गए, आजकल उन्हें ग्राम-बौंन, का बौनाल बुंड.स्येला राठ जन कहते हैं। यह ग्राम बौंन, राठ बुंड.स्येला, सेला ह्या गुरु गैलंड. देव को अपना ईष्ट देव मानते हैं।

महादेव गुफा ‘प्राचीन महादेव ध्यान साधना गुफा’ ग्राम सीपू

नरेन्द्र न्यौला ‘पंचाचूली’
‘हिम गिरी-देव भूमि’ उत्तराखण्ड देव- देवियों, सन्यासियों, रिषि-मुनियों व लामाओं का ध्यान साधना ‘तप केन्द्र भूमि’ आदि काल से ही रहा है। इस हिम देव भूमि में ऐसा भी एक ग्राम है। जहाँ देवाधिदेव जी का ‘साक्षात पदचिन्ह व आध्यात्मिक ध्यान साधना गुफा’ विद्यमान है। यह उस समय की बात है। जब दिव्य शक्ति प्राप्त विशेष व्यक्ति सन्यासी और भगवान देवों में विशेष क्षण पर परस्पर साक्षात्कार होता था। देवाधिदेव महादेव जी हिमालय क्षेत्रों से बाहर के ‘शिवालयों प्रवास’ से वापसी के दौरान दारमा से होते हुए जब वे अपने मूल निवास स्थान ‘कैलास मानसरोवर’ वापस जा रहे थे। इसकी सूचना मिलते ही दारमा लुंग्मा के सभी स्थानीय ‘सैं समा-देवी देवताओं’ व क्षेत्र जनों ने सैं ह्याजंगरी जी के मार्गदर्शन में अतिथि तपस्वी बाबा जी का न्यौंला पंचाचूली हिम शिखर के निकट भव्य रूप से स्वागत किया।
तपस्वी भोले बाबा शिव ने स्थानीय देवी-देवताओं के प्रेम भाव और ग्राम जनों की आस्थामय पाठ-पूजन के साथ- साथ ग्राम सीपू क्षेत्र के आस-पास के प्राकृतिक, नैसर्गिकता, रंग बिरंगे पफूलों की फुलवारी भोज वृक्षों की सिलसिलेवार नर्सरी, जड़ीबूटी की सुगन्धता, कस्तूरी मृगों (देव मृगों) के विचरण और यहाँ की भौगोलिकता से प्रसन्नचित्त होकर उन्होंने ग्राम सीपू में अपने पद को विराम दिया। इस क्षेत्र की ‘आध्यात्मिक ध्यान साधना ’ को महसूस करने के लिए यहीं रुके, ग्राम सीपू से कुछ दूर एकान्त क्षेत्रा में ध्यान साधना हेतु एक ही रात में ‘ध्यान साधना गुफा’ का निर्माण करवाया जिसे हम रं लुंग्बा जन ‘महादेव गुफा’ के नाम से सम्बोधित करते हैं। इस ‘ध्यान साधना गुफा’ में महादेव जी ने महत्वपूर्ण दारमा प्रवास के लगभग तीन माह बिताए। बाद में रं लुंग्बा के सभी देवी-देवताओं ने सदा दारमा लुंग्बा को ही अपना स्थायी तपस्थली बनाने का बहुत अनुरोध् किया लेकिन महादेव जी स्थायी तपस्थली वाली बात को न मानते हुए, यहाँ प्रवास में प्रत्येक साल आने की बात पर सहमति दी और महादेव जी ने दारमा से दूसरे दिन प्रस्थान की तैयारी की परन्तु स्थानीय तपस्वी सै। ह्याजंगरी जी अपने तंत्रामंत्रा शक्तिबल से जिस दिन महादेव जी कैलास पर्वत जा रहे थे उसी दिन लगातार तेज बर्फबारी व ओलावृष्टि करा दी। महादेव जी जैसे-जैसे आगे कैलास की ओर जा ही रहे थे, ग्राम ढाकर के सामने बर्फीला पहाड़ी मार्ग से पैर फिसल कर गिर गये, जिससे उनका एक पैर जख्मी हो गया। तदोपरान्त ‘सैं ह्याजंगरी जी’ ने महादेव जी की मदद करते हुए उनको ग्राम सीपू महादेव तपस्थली गुफा की ओर वापस लौटे। वापस लौटते समय ग्राम सीपू क्षेत्र मार्ग पर स्थित पौराणिक शिलाखण्ड पर भोले शिव जी के पद पड़े और उस शिलाखण्ड पर पद चिन्ह के निशान पड़ गये, जो आज भी उस शिलाखण्ड पर विद्यमान है।
महादेव जी के इस ‘पद चिन्ह युक्त पौराणिक शिलाखण्ड’ के पास ही मन्दिर स्थापित कर ग्राम जन सदियों से पूजा अर्चना करते आ रहे हैं व महादेव जी आशीर्वाद ग्राम जनों को ‘सुरक्षा सुख समृद्धि के रूप में प्राप्त होता रहता है। सैं ह्याजंगरी जब जब महादेव जी को ‘महादेव तपस्थली गुफा’ में छोड़कर लौट रहे थे। उस वक्त महादेव खौला के प्रवेश स्थल के पास में ही सैं ह्याजंगरी ने अपने हाथ में लिए सूखे भोज वृक्ष से बनी लट्ठी वाले ठण्डे पर मंत्रणा कर उसे रोप दिया और ग्राम जनों की उपस्थित में कहा कि अगर महादेव जी इस गुफा में प्रवेश के बाद भी हमेशा किसी भी रूप में यहाँ वास करेंगे-रहेंगे तो यह सूखी भोजवृक्ष लट्ठी ‘मेरा हमसफर भोज वृक्ष लट्ठी’ हरा-भरा होकर पेड़ का रूप ले लेगा अगर महादेव जी का अंश का वास यहाँ नहीं होगा तो यह रोपित भोजवृक्ष लट्ठी हरित नहीं होगा। लेकिन चमत्कार हुआ। कुछ दिनों बाद सैं ह्याजंगरी जी द्वारा वह रोपित भोजवृक्ष लट्ठी ने पौध्े स्थल में लोगों की आस्था केन्द्र के कारण पौराणिक पौध भोजवृक्ष विशाल हरा-भरा भोज वृक्ष के रूप में आज स्थित है। यह ध्यान देने वाली बात है कि उस विशाल पौराणिक भोज वृक्ष से लगभग डेढ़ किलो मीटर के परिक्षेत्र में कोई भी भोजवृक्ष का पेड़ नहीं है। इससे पूर्णतया प्रमाणित होता है कि यह भूमि भोले बाबा शिव की ‘ध्यान साधना तप भूमि’ रही है और उनका ग्राम सीपू व क्षेत्रा जनों के रक्षक रूप में हमेशा विराजमान रहता है।
ऐसा माना जाता है कि ग्राम सीपू का नाम हमारे ग्राम पूर्वज बुजुर्गों व देव दूत ‘धामी जी’ ने भगवान महादेव शिव जी की आध्यात्मिक ध्यान साधना की तपस्थली होने के कारण ‘शिव से सीपू’ रखा। पौराणिक कथाओं और गाथाओं के अनुसार उत्तर पूर्व भोंट प्रान्त के भोले बाबा शिव ने जिस महादेव ध्यान साधना गुफा में तपस्या की थी तभी से देवाधिदेव प्रत्येक साल साक्षात प्रवास पर ग्राम सीपू महादेव गुफा में आते हैं। बाद में ग्राम जनों ने महादेव ध्यान साधना गुफा में ही ग्राम रक्षक शिव पूजा स्थल का चयन किया और प्रत्येक साल में एक बार उस पूजा स्थल में जाकर देवाधिदेव महादेव जी पूजा अर्चना करते आ रहे हैं। ग्राम सीपू, शिव स्थापित स्थल पर ग्राम जन छः वर्ष में एक बार महापूजन का आयोजन कर धूमधाम से महादेव महा महोत्सव मनाते हैं। इस महोत्सव में देश प्रदेश के सभी ग्राम परिवार जन उपस्थित रहते हैं। कुछ श्रद्धालु जन महादेव गुफा पूजा स्थल में जाकर महादेव जी की पूजा अर्चना करते हैं।
आज भी 500-600 साल पहले ग्राम बुजुर्ग जनों ने ग्राम रक्षक देवाधिदेव महादेव जी का ध्यान साधना भंग न हो व गुफा को संरक्षण प्रदान करने के वास्ते विशालकाय दरवाजे का निर्माण करवाकर गुफा के मुख्य द्वार पर लगवाया। इस प्राचीन महादेव ध्यान गुफा मुख्य द्वार में उस प्राचीन समय पर लगवाए गए दरवाजे के अवशेष वर्तमान समय में भी विद्यमान हैं। महादेव गुफा दुर्गम खतरनाक क्षेत्र में स्थित है। इस कारण आज से 120-130 साल पूर्व ग्राम जनों की एक राय बनाकर ‘शिव ध्यान गुफा’ से शिवलिंग लाकर गाँव के पश्चिमी छोर में मन्दिर की स्थापना कर पूजा अर्चना करने का निर्णय लिया। प्रत्येक साल ग्रामजन महादेव जी की पूजा अर्चना गाँव में स्थापित महादेव शिव स्थल में परम्परागत ढंग से करते हैं। महादेव जी की कृपा दृष्टि सदा सभी क्षेत्रा वासियों में बनी रहती है। इस महादेव गुफा के अन्दर अनेकों शिवलिंग विराजमान हैं।
ग्राम सीपू भ्रमण के दौरान श्रद्धालु जन बताते हैं कि ‘महादेव गुफा’ परिसीमन के आसपास में सच्चे स्वच्छ निर्मल मन से उँ मंत्र का जाप करें तो पर्यावरण से उँ की ध्वनि तरंगों की गूंज सुनाई देती है। हजारों साल पहले देवाधिदेव महादेव जी ने जिस स्थान पर बैठकर साक्षात आध्यात्मिक ध्यान तप किया। देवाधिदेव महादेव जी के इस पवित्र भूमि शिव स्थल पर पहँुचकर एक क्षण में ही आत्मा में ऐसी शुद्धता का महसूस होता है। मानो सांसारिक दुनिया से ‘आत्मा का परमात्मा’ के साथ परस्पर मिलन की अनुभूति होने लगती है। बहुत साल पूर्व गाँव वालों ने शिव अंश पंच धातु का त्रिशूल ‘शिव ध्यान साधना गुफा’ में स्थापित किया। समय-समय पर श्रद्धालु जन वहाँ पहँुचकर शिवमय हो जाते हैं। इन सभी पूर्व की घटना और वर्तमान में मन की आत्मीयता का अनुभव से सिद्ध होता है। सीपू महादेव जी की गुफा में महादेव शिव आदिकाल से ही विराजमान है और इस महादेव गुफा के अन्दर बहुत सारे शिवलिंग है।
कुछ लोग बताते हैं कि सीपू प्रथम साक्षात प्रवास के बाद देवाधिदेव महादेव जी महादेव ध्यान साधना गुफा के पिछले द्वार से आदि कैलास (छोटा कैलास), उँ पर्वत होते हुए कैलास मानसरोवर अपने स्थायी तपस्थली को चले गए।

उत्तराखण्ड की रामलीला का संगीत

डाॅ.पंकज उप्रेती
विश्व रंगमंच पर राम के चरित्र को लेकर अनगिनत नाट्य खेले जाते हैं। वर्षों के काल क्रम बीतने पर भी विद्वानों ने नायक के रूप में राम को स्वीकारा है। इन्हीं की देन है- राम काव्य परम्परा तथा इसके आदिकवि हैं- वाल्मीकि। वेद-पुराणों में रामकथा के बीज देखने को मिलते हैं।
कल्याण के श्रीराम भक्ति अंक में रामकाव्यों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि भगवान श्रीराम जैसे स्थावन-जंगमात्मक जगत् में सर्वत्र व्याप्त हैं, वैसे ही रामचरित्र भी किसी न किसी रूप में सर्वत्र प्रसिद्ध है। रामचिरत्र के विषय में आर्ष ग्रन्थ के रूप में श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, आध्यात्म रामायण, आनन्द रामायण, अद्भुत रामायण, भुशण्डिरामायण, श्रीरामचरित मानस आदि कतिपय ग्रन्थ सर्वाधिक मान्य हैं। इसके साथ ही विभिन्न पुराणों में, विभिन्न सम्प्रदायों में तथा विभिन्न भाषाओं में रामकथा का निरूपण बड़े समारोह से हुआ है। राम काव्य को लोकनाट्य के रूप में ऐसी मान्यता मिली कि जन-जन मर्यादापुरुषोत्तम की लीला मंचन करने और देखने में विश्वास करता है। रामलीला के रूप में इसका जगह-जगह मंचन होता है।
लोकनाट्य के रूप में रामलीला और इसके संगीत पर चर्चा करने से पूर्व रामकथा के प्रारम्भिक रूप के विषय में जानना आवश्यक है। वैदिक साहित्य में अनेक व्यक्ति, जिनका चरित्र रामायण में वर्णित है, उनका निर्देश उपलब्ध होता है। इक्ष्वाकुवा निर्देश ऋगवेद संहिता में यह मिलता है- जिस जनपद के इक्ष्वाकु राजा है, उनके रक्षा स्वरूप कर्म में वह प्रदेश बढ़ता है। अर्थवेद में भी इक्ष्वाकु के नाम का उल्लेख मिलता है- औषधे! जिस प्रसिद्ध प्राचीन इक्ष्वाकु राजा ने तुम्हें सभी व्याधियों के नाश के रूप में जाना।3 ‘मन्त्ररामायण’ नामक नामक ग्रन्थ जो पं.नीलकण्ठ ने लगभग चार सौ वर्ष पूर्व लिखा है, में ऋगवेद के मन्त्रों से रामायण कथा निकाली है। सायण आदि भाष्यों में यह अर्थ उपलब्ध नहीं है। इसका कारण यह है कि भाष्यकारों ने मन्त्रों का भाष्य यज्ञ-परक किया है। वेदों के अनेक अर्थ होते हैं। अतः इतिहासपरक नीलकण्ठ का भाष्य भी उपयुक्त है। जब रामायण को वेद का अवतार माना जाता है, तब मन्त्रों का रामपरक भाष्य निर्मूल है। ऋगवेद की ऋचा में रामायण का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि भगवान राम-सीता के साथ तपोवन में आये। दूसरे चरण में बताया गया है कि राम और लक्ष्मण पीछे रावण छिपकर सीता के पास आया और उसने उनका हरण कर लिया। तीसरे तरण में यह बताया गया है कि हनुमान ने लंका में आग लगा दी और चैथे चरण में कहा गया है कि रावण युद्ध के लिये राम के सम्मुख आ गया। दशरथ का उल्लेख भी ऋगवेद में मिलता है- ‘लाल रंग और भूरे रंग के दशरथ के चालीस घोड़े एक हजार घोड़ों के दल का नेतृत्व करते हैं। शतपथ ब्राह्मण में कैकेय का उल्लेख इस रूप में है- ‘उन्होंने कहा कि ये अश्वपति कैकेय इस समय वैश्वानर को जातने हैं।’ जनक का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में बहुधा हुआ है। ब्रहम्पुराण में रामकथा के अंश सर्वत्र विखरे पड़े हैं। अठारह पुराणों के गणनाक्रम में ब्रह्मपुराण की गणना सबसे पहले होती है, इसलिये इसे आदि पुराण भी कहा जाता है। देवताओं व दानवों के युद्ध में कोई निर्णय न हो पाने की स्थिति में आकाशवाणी होती है कि जिस पक्ष की ओर से राजा दशरथ लड़ेंगे, उसी की विजय होगी। पद्मपुराण में रामकथा का उल्लेख कई बार हुआ है। इसके सृष्टि खण्ड में भगवान की वनयात्रा, तीर्थयात्रा तथा पुष्कर में श्राद्धादि का वर्णन है। उत्तरखण्ड में 242 अध्याय से 246 अध्याय तक रामकथा पूरी कह दी गयी है।9 महापुराणों की के गणनाक्रम में शिव पुराण चैथे स्थान पर परिगणित है। इसमें श्रीराम की कथा कई स्थानों पर आयी है। एक उदाहरण प्रस्तुत है- रावण द्वारा सीता के हरण के बाद राम-लक्ष्मण जब सीता की खोज में निकलते हैं, उस समय शिव अपने आराध्य श्रीराम को देखते हैं और कहते हैं, ये मनुष्य नहीं साधुओं की रक्षा तथा हमारे कल्याण के लिये स्वयं परब्रह्म के रूप में अवतरित हुए है, इनके छोटे भाई लक्ष्मण शेषावतार हैं।
यद्यपि वेद पुराण में रामकथा के कई कथासूत्र मिलते हंै तथापि महर्षि वाल्मिकी ने रामायण काव्य में राम के सम्पूर्ण जीवन पर पहली बार प्रकाश डालते हुए संसार को राम-कथा महाकाव्य के रूप में अमूल्य निधि दी। भारतीय रामकाव्य के विकास में रामायण के पश्चात कई अन्य रामकाव्यों का उल्लेख मिलता है, उनमें आध्यात्म रामायण प्रमुख है। इसके अतिरिक्त अनेक रामायणों का योगदान रामकाव्य में है। जैसे- लोमेश रामायण, मन्जुल रामायण, सौहार्द रामायण, श्रवण रामायण, दुरन्त रामायण, देव रामायण इत्यादि परन्तु ‘श्रीमद्भागवत’ में श्रीराम के चरित्र का संक्षेप वर्णन होते हुए भी लालित्यपूर्ण है। इसके नवम् स्कन्ध में कहा गया है कि जिन्होंने भगवान राम का दर्शन और स्पर्श किया, उनका अनुगमन किया, वे सब तथा कौशलादेश के निवासी भी उसी लोक में गये, जहाँ बड़े-बड़े योगी योग साधना द्वारा जाते हैं। रामकाव्य की इस धारा में तुलसीदास ने जो अद्भुत कार्य किया वह गेय रूप में अमर है। रामचरित पर तुलसीदास का मंतव्य है कि कवितारूपी मुक्तमणियों को युक्ति से बेधकर फिर रामचरित रूपी सुन्दर तागे में पिरोकर सज्जन लोग अपने निर्मल हृदय में धारण करते हैं, जिससे अत्यन्त अनुराग रूपी शोभा होती है, वे अत्यन्त आनन्द को प्राप्त करते हैं। काव्य के बाद मर्यादापुरुषोत्तम राम के चरित्र को लेकर नाट्य रूप में इसका प्रस्तुतिकरण भी होने लगा। इसी क्रम में उत्तराखण्ड की रामलीला है। जिसका मंचन गेय नाट्य के रूप में होता है। पहाड़ की रामलीला का सबसे महत्वपूर्ण अंग इसका संगीत ही है। इसीलिये सबसे अधिक ध्यान गेयता पर ही दिया जाता है। भारतीय शास्त्राीय संगीत का इसमें गहरा प्रभाव है। कई शास्त्रीय रागों की बहुलता इसके गीतों में दिखाई देती है। जैसे- विलावल, पीलू, देश, विहाग, जयजयवन्ती, भैरवी, झिंझोटी, मालकोंस आदि। मंचन के दौरान सम्वादों में प्रभावोत्पादकता लाने के लिये पात्र सस्वर मानस की चैपाईयों का पाठ भी करते हैं। तुलसीदास की चैपाईयों के साथ सम्वादों में प्राचीन कवित्त, सवैया आदि छन्दों, राधेश्याम की रामायण के उद्धरणों तथा नौटंकी शैली की लोकप्रिय धुन ‘बहरे तवील’ भी सुनने को मिलती है।
उत्तराखण्ड में गीतनाट्य रामलीला का शुभारम्भ अल्मोड़ा नगर से माना जाता है। इसका शुभारम्भ 18वीं सदी के अन्तिम भाग में कुमाऊँ की राजधानी अल्मोड़ा में हुआ। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के उदीयमान कलाकार स्व.प्रगति साह ने अपने शोध प्रबन्ध में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्रवक्ता स्व.मोहन उप्रेती की रिपोर्ट का उल्लेख करते हुए बताया था- ‘‘सन् 1886 में अल्मोड़ा के श्री देवीदत्त जोशी ने पहले पहल रामलीला का प्रस्तुतीकरण गेयनाटक के रूप में किया। पहले अल्मोड़ा में केवल दशहरे के ही दिन राम जुलूस निकलता था और खुले मैदान में रावण का पुतला जलाते थे। सम्भव है कि श्री जोशी ने उत्तर भारत में रामलीला प्रदर्शनों की लोकप्रियता को देखकर स्वयं राम भक्त होने के नाते अपने निवास स्थान अल्मोड़ा में भी उसे आरम्भ करने का निश्चय किया हो और यह भी सम्भव है कि गेय शैली में प्रस्तुत करने की प्रेरणा उन्हें अपने संगीत प्रेम के कारण मिली होगी। अल्मोड़ा से प्रारम्भ हुई उनकी यह गेय रामलीला शीघ्र ही समूचे कुमाऊँ-गढ़वाल क्षेत्र में दशहरे के उत्सव का प्रमुख आकर्षण का केन्द्र बन गई।’’ कुमाऊँ की सर्वप्रथम रामलीला के बारे में मतभेद हैं किन्तु सन् 1860 में प्रथम बार अल्मोड़ा में रामलीला के पक्ष में अधिक लोगों का मत है। वर्तमान में सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में लोकनाट्य के रूप में जो रामलीला मंचन होता है उसका मूल स्वरूप इसके कर्णप्रिय गीत-संगीत को लेकर है। राम सेना और रावण सेना के पात्रों के मुंह से विभिन्न राग-तालों में जिस प्रकार गीत, चैपाई, छन्द, सम्वाद सुनाई देते हैं वह लोकनाट्य होते हुए भी शास्त्रीय पक्ष को अपने में समेटे हुए है। प्रस्तुत हैं उत्तराखण्ड में मंचित होने वाली रामलीला के कतिपय गीत-
यमनकल्याण
सीता रावण से- अरे रावण तू धमकी दिखाता किसे,
मुझे मरने का खौफो खतर ही नहीं।
मुझे मारेगा क्या अपनी खैर मना,
तुझे होने की अपनी खबर ही नहीं।।
तू जो सोने की लंका का मान करे,
मेरे आगे वह मिट्टी का घर ही नहीं।
मेरे दिल का सुमेरू डिगे वो कहाँ,
मेरे मन में किसी का डर ही नहीं।।
उक्त गीत को कई बार ‘बहरे तवील’ नौटंकी की धुन में भी सुना जाता है परन्तु अभ्यास के लिये दीपचन्दी ताल में इसे यमन में पिरोया है और गाया जाता है।
भैरवी
राग भैरवी में कई गीत रामलीला नाट्य मंचन में सुनने को मिलते हैं। उदाहरण के लिये राम-कौशल्या सम्वाद का यह गीत प्रस्तुत है, जो कहरवा ताल में है-
आज पिता ने वनों का राज हमे दीन्हा।
पिता वचन नहिं टालना, यही हमारा काम।।
बरस चैदह वन जाइके पुनः मिलेंगे आय।
करो तुम पत्थर का सीना, वनों का राज हमें दीना।।
राग भैरवी का एक और गीत भी प्रस्तुत है जो वन जाने से पूर्व राम माता कौशल्या को समझाते हुए कह रहे हैं-
क्यों तू रुदन मचावे जननी, आँसू थाम-थाम-थाम।
नहिं दोषु मातु का माता, लिख दिया था यही विधाता।
अब क्या हाथ मले से आता, है विधि बाम-बाम-बाम।
लिखते हैं वेद अरु गीता, सब झूठी जग की रीत।
सदा रहा है नहिं कोई जीता, है एक नाम-नाम-नाम।
सिन्धभैरवी ताल दादरा का एक गीत प्रस्तुत है जिसे मन्थरा द्वारा गाया जाता है। मन्थरा रानी कैकयी को राम के विरुद्ध भड़काते हुए कहती है-
क्यों तुम हो भूल बैठी सुनिये हो राजरानी।।
कल राम राज पावें, राजा ने मन में ठानी।
संकट भरत को होगा, नहिं पावे राजधानी।।
इसी प्रकार सिन्ध भैरवी में एक और उदाहरण प्रस्तुत है जब बालक राम-लक्ष्मण वाटिका में भ्रमण करते हैं तो लक्ष्मण सीता को देख राम से कहते हैं-
देखो जी देखो महाराज यह ललनी।
संग सखी मिल मंगल गावें,
सिर पर सोहे देखो ताज यह ललनी।।
ललित मधुर चितवन अति नीकी,
फिरत है कौन से काज यह ललनी।।
खमाज
रामलीला की चैपाईयों में खमाज राग का प्रभाव है। एक उदाहरण (राग खमाज ताल विलम्बित कहरवा) प्रस्तुत है जब जनक दरवार में गुरु विश्वामित्र अचानक आ जाते हैं। दशरथ पूछते हैं-
केहि कारण आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लाउब बारा।
कृपा करहु मोहिं देहु बताई। कीन्ह पवित्र मोर गृह आई।
राम तर्ज के अलावा राक्षसी तर्ज भी गीतों के उदाहरण हैं। वन में राम-लक्ष्मण को देख ताड़िका कहती है-
बिलावल, ताल- कहरुवा
रे नृप बालक काल ग्रसाये। क्यों तुम सन्मुख मेरे आये।
जिनके आये करन सहाई। ते डरपोक विप्र मुनि राई।।
बिलावल में एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत है जब सूर्पनखा राम-लक्ष्मण को वन में अकेला पाकर रिझाती है-
प्रभु जी हमें वर लेओ, हमें वर लेओ।
एक तो मैं नीकी नार, हमें वर लेओ।
एक तो मैं बाली मैं बाली, मैं भोली मैं भोली।
दूजे भाई दसशीश, हमें वर लेओ।
दूजे मस्त जवानी, हमें वर लेओ।
गारा
विभीषण रावण को सझाते हुए कहते हैं राम से युद्ध मत करो-
मेरी मानो कहँु भईया, वे तो हैं रघुवीर।।
मैं तुमसे कहँू समुझाई, चित्त करके सुनो मम भाई,
पर नारी न लावो चुराई, तुम तो हो रणधीर।।
उस कुमति बसी विपरीती, ताते तुम करहु अनीती,
हित अनहित मानत प्रीती, सुनिये हो अति धीर।।
मांड
धनुषयज्ञ के समय जब रावण अभिमान के साथ सम्वाद करता है तब बाणासुर कहता है-
वृथा अभिमान क्यों करता अरे रावण सभा के बीच।
नहीं शिव धनु पुराना है, बनाया बज्र विधाता ने,
लिये पहचान भगवत को पिता बलिदान दिया उनको।।
इसी प्रकार वनवास के समय सीता जी कहती हैं। मांड-
पड़ी है धूप गरमी से,
लगी है प्यास अति भारी।
कहीं छाया नहीं दीखे,
मैं चलती नाथ अब हारी।।
झिंझोटी-
राम-लक्ष्मण को वन में देख सूर्पणखा मुग्ध हो जाती है और लक्ष्मण से झिंझोटी के स्वरों में गाती हुए कहती है-
मैं तो छोड़ आयी लंका का राज,
लखन लाल तेरे लिये।।
भाई भी छोड़ा मैंने, बहिना भी छोड़ी,
छोड़ आयी सारा परिवार, लखन लाल तेरे लिये।।
बाग भी छोड़ा, बगीचा भी छोड़ा
छोड़ आयी सारा संसार, लखन लाल तेरे लिये।।
तिलककामोद-
लक्ष्मण-परशुराम सम्वाद में यह गीत है-
लक्ष्मण परशुराम से- पिनाक पुराना, काहे रिस होत।।
ऐसे धनुष बहुत हम तोड़े, कबहँु न क्रोध नहिं कीन्हा।
या में ममता है केहि कारण, जो देखत भृगुनाथ रिसाना।।
बार-बार मोहे परशु दिखाकर, क्यों करते अभिमाना।
जो कायर तुम मिले मुनि जी, उन्हीं को तुम जा धमकाना।।
इस प्रकार कई राग-रागनियों, मिश्रित रागों, धुनों में रची-बसी उत्तराखण्ड का रामलीला नाटक अद्भुत है। ग्यारह दिनों तक रामलीला मंचन में जब गेयता चढ़ती जाती है तो श्रोता मुग्ध हो जाता है।